अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
ऋषिः - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त
188
म॒न्युरिन्द्रो॑ म॒न्युरे॒वास॑ दे॒वो म॒न्युर्होता॒ वरु॑णो जा॒तवे॑दाः। म॒न्युर्विश॑ ईडते॒ मानु॑षी॒र्याः पा॒हि नो॑ मन्यो॒ तप॑सा स॒जोषाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्यु: । इन्द्र॑: । म॒न्यु: । ए॒व । आ॒स॒ । दे॒व: । म॒न्यु: । होता॑ । वरु॑ण: । जा॒तऽवे॑दा: । म॒न्युम् । विश॑: । ई॒ड॒ते॒ । मानु॑षी: । या: । पा॒हि । न॒: । म॒न्यो॒ इति॑ । तप॑सा । स॒ऽजोषा॑:॥३२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देवो मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः। मन्युर्विश ईडते मानुषीर्याः पाहि नो मन्यो तपसा सजोषाः ॥
स्वर रहित पद पाठमन्यु: । इन्द्र: । मन्यु: । एव । आस । देव: । मन्यु: । होता । वरुण: । जातऽवेदा: । मन्युम् । विश: । ईडते । मानुषी: । या: । पाहि । न: । मन्यो इति । तपसा । सऽजोषा:॥३२.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
संग्राम में जय पाने का उपदेश।
पदार्थ
(मन्युः) प्रकाशमान क्रोध (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, (मन्युः) क्रोध (एव) ही (देवः) दिव्यगुणवाला, (मन्युः) क्रोध (होता) दाता वा ग्रहीता, (वरुणः) वरणीय अङ्गीकारयोग्य, और (जातवेदाः) धन प्राप्त करानेवाला (आस) हुआ है। (मन्युः=मन्युम्) क्रोध को (याः) उद्योग करनेवाली (मानुषीः=०-ष्यः) मनुष्यजातीय (विशः) प्रजाएँ (ईडते) सराहती हैं। (मन्यो) हे क्रोध (तपसा) ऐश्वर्य से (सजोषाः) प्रीति करता हुआ तू (नः) हमें (पाहि) बचा ॥२॥
भावार्थ
यथावत् प्रयुक्त क्रोध के गुण पहिले से विदित हैं, नीतिज्ञ पुरुष विधिपूर्वक क्रोध से ऐश्वर्य बढ़ा कर रक्षा करते हैं ॥२॥ (मन्युर्विशः) के स्थान में सायणभाष्य और ऋग्वेद में [मन्युं विशः] पद हैं ॥
टिप्पणी
२−(मन्युः) दीप्यमानः क्रोधः (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (एव) निश्चयेन (आस) अस्तेर्लिटि छान्दसो भूभावाभावः। बभूव (देवः) दिव्यगुणयुक्तः। प्रकाशमानः (होता) दाता ग्रहीता वा (वरुणः) श्रेष्ठः। (जातवेदाः) अ० १।७।२। जातधनः (मन्युः) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। इति द्वितीयार्थे प्रथमा। मन्युं क्रोधम् (विशः) प्रजाः (ईडते) स्तुवन्ति (मानुषीः) मनोर्जातावञ्यतौ षुक्च। पा० ४।१।१६१। इति मनु-अञ् षुक् च टिड्ढाण०। पा० ४।१।१५। इति-ङीप् यद्वा। जनेरुसिः। उ० २।११५। इति मनु अवबोधने-उसि ! मनुष्-अण्, ङीप्। मानुष्यः। मनुष्यजातीयाः (याः) या गतौ-ड, टाप्। उद्योगशीलाः (पाहि) रक्ष (नः) अस्मान् (मन्यो) हे क्रोध (तपसा) तप संतापैश्वर्ययोः-असुन्। प्रतापेन। ऐश्वर्येण (सजोषाः) जुषी-असुन्। समानप्रीतिः ॥
विषय
मन्यु के लिए प्रार्थना।
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
मुनिवरों! देखो, जब मानव को क्रोध आने लगा। क्रोध की उतनी मात्रा बलवती हो जाती है। जितना मानव अपने को संकुचित्त बना लेता है, उतने ही क्रोध की मात्रा सूक्ष्म बन जाती है। अब जब क्रोध आने लगा, क्रोध की मात्रा उत्पन्न होने लगी तो मेरे प्यारे! वही क्रोध चित्र बन करके अन्तरिक्ष में रमण करने लगा।
उसको वैज्ञानिकों ने क्या, चिकित्सकों ने विचारा। मुझे स्मरण है राजा रावण के यहाँ सुधन्वा वैद्यराज रहते थे। एक समय सुधन्वा और अश्वनीकुमार महात्मा भुञ्जु के पुत्र दोनों विद्यमान होकर यह विचारने लगे, १. यदि मानव को सतोगुण में क्रोध आता है तो उसकी शरीर में क्या प्रतिक्रिया होती है? २. उसके रजोगुण में आता है, उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है? और ३. जब यह क्रोध तमोगुण में आता है तब क्या प्रतिक्रिया होती है? और उनमें भी नाना प्रकार के भेदन हैं। मुनिवरों! देखो, महाराजा सुधन्वा, अश्वनीकुमार ये सब आयुर्वेद के मर्म को जानते थे। आयु के मर्म को जानते थे।
महाराज वैद्यराज सुधन्वा ने यह कहा कि जब मानव को सतोगुण में क्रोध आता है उसको क्रोध नहीं कहते उसको मन्यु कहते हैं। वह सतोगुण में दूसरे के उपकार के दूसरे के गुणों की चर्चा कर रहा है।
उनमें यदि अति हो जाती है अति में क्रोध भी बन जाता है और वह क्रोध मानव के मस्तिष्क के ऊर्ध्वा भागम् ब्रह्मोः। जिसे लघु मस्तिष्क कहते हैं जिसमें सूक्ष्म सूक्ष्म तरंगें आती रहती हैं और वह तरंगें नृत्य करती रहती हैं। तो मुनिवरों! इस क्रोध से वह सूक्ष्म ब्रह्मरन्ध्र में लघु मस्तिष्क जो होता है उसके ज्ञान तन्तु समाप्त हो जाते हैं। जब मानव को रजोगुण में क्रोध आता है तो उसकी रजोगुण की जो मर्यादा होती है उसमें जो सतोगुणी ज्ञान है उसका माध्यम समाप्त हो जाता है।
जब तमोगुण में क्रोध आता है तो मानो देखो, नाग प्राण अमृत का विष बना करके मानव को विषैला बना देता है। मानव को विष कर बना देता है और वह जो नाग प्राण है उसका ऊर्ध्व मुख हो करके शरीर में जो अमृत होता है, क्रोध अति के आने से तमोगुण में वह नाग प्राण उस अमृत को निगलता रहता है और उसका विष बना करके त्यागता रहता है। मानव का शरीर रुग्ण हो जाता है। मानव विषधर बन जाता है। क्रोध में परणित हो जाता है। मानव की अर्द्ध मृत्यु हो जाता है। यह महाराजा सुधन्वा ने वर्णन किया है और जब मुनिवरों! इस मानव को रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण मिश्रित हो करके क्रोध की मात्रा आती है तो उस मानव का बेटा! ब्रह्मचर्य के सहित ब्रह्मरन्ध्र के तन्तु समाप्त हो जाते हैं। तो प्यारे मेरे! इस अग्नि में रमण नहीं करना चाहिए।
अग्नि क्या है! इसको वैज्ञानिकों ने विचारा। मुझे स्मरण है बेटा! महाराजा सुधन्वा ने और अश्वनी कुमार ने और आयुर्वेद के मर्म को जानने वाले कुछ कुछ राजा रावण के विधाता कुम्भकरण जी थे। वे कुम्भकरर्ण भी जानते थे। बेटा! आयुर्वेद में इतना जानते थे वहाँ विज्ञान में तो वह पारायण थे। उनका विज्ञान नितान्त कहलाया गया था। परन्तु जब वे अनुसन्धान करने लगे तो महाराजा कुम्भकर्ण रेवणी ने यह कहा हे सुधन्वा! हे वैद्यराजो! अश्वनीकुमारो! आओ, कुछ विचार करेंगे। वह विचार करने लगे। उन्होंने एक विज्ञानशाला में एक यन्त्र का निर्माण किया और निर्माण करके एक समय सुधन्वा के विधाता थे रेणकेतुका। एक समय उन्हें क्रोध आ रहा था और वह तमोगुण से सना हुआ क्रोध था। तब राजा कुम्भकर्ण ने अपने यन्त्र में स्थिर कर लिया और जब यन्त्रों में उसको दृष्टिपात करने लगे। उन्होंने इन परमाणुओं को लेकर के यन्त्रों में स्थिर किया और मुनिवरों! देखो, केवल एक क्षण का ही क्रोध था और क्षणों क्षणों के परमाणु ले करके उन्होंने यन्त्रों में स्थिर किए और जिस मानव को वह परमाणु जल में प्रवेश करके परणित कर दिए वही मानव साधारण मृत्यु को प्राप्त होता रहा।
सतोगुण के क्रोध का गुण वादन करते हुए आदि ऋषियों ने कहा है कि हे योगश्वरम् ब्रह्मः।
अपने विष से हम वायु मण्डल को दूषित करते रहते हैं, कहीं क्रोध के द्वारा, कहीं कामना के द्वारा कहीं अति मोह ममता के कारण संसार को हम प्रभु की सृष्टि को हम दूषित करते रहते हैं। मैं ममता का विरोधी नहीं हूँ। ममता होनी चाहिए। सामान्यता में होनी चाहिए। क्रोध मन्यु रूप में रमण करना चाहिए। मेरे प्यारे! देखो, वही मानव को जीवन देता है, आभा देता है, सतोगुणता प्रदान करता है।
विषय
इन्द्र-देव-वरुण-जातवेदाः
पदार्थ
१. यह (मन्युः) = ज्ञान ही (इन्द्रः) = इन्द्र है। ज्ञान ही हमें इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनाता है। इस ज्ञान से ही हम आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाले वृत्रहन्ता 'इन्द्र' बनते हैं। (मन्युः एव) = यह ज्ञान ही (देव: आस) = देव है। यही हमें दिव्य वृत्तियोंवाला बनाता है। ज्ञानी पुरुष ही संसार की सब क्रियाओं को एक खिलाड़ी की मनोवृत्ति से करता हुआ सच्चा देव बनता है [दिव् क्रीडायाम्]। (मन्यु:) = ज्ञान ही (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला-यज्ञ करके यज्ञशेष का सेवन करनेवाला होता है। ज्ञानी कभी अकेला नहीं खाता-सबके साथ बाँटकर ही खाता है। यह मन्यु ही (वरुण:) = हमसे द्वेष का निवारण करनेवाला होता है और (जातवेदा:) = [वेदस्-wealth] आवश्यक धनों को उत्पन्न करनेवाला है। ज्ञान से मनुष्य में आवश्यक धन को उत्पन्न करने की योग्यता आ जाती है। २. (या: मानुषी: विश:) = जो विचारशील प्रजाएँ हैं वे (मन्युः) [मन्युम्] (ईडते) = ज्ञान को उपासित करती हैं। ये ज्ञान की साधना में प्रवृत्त होती हैं। हे मन्यो-ज्ञान ! तपसा (सजोषा:) = तप के साथ हमारे लिए समान प्रीतिवाला होता हुआ (नः पाहि) = तू हमारा रक्षण कर। तपस्या के साथ ही ज्ञान का निवास है।
भावार्थ
ज्ञान से हम जितेन्द्रिय, दिव्य गुणोंवाले, दाता, निष तथा धनार्जन की क्षमतावाले होते हैं। यह ज्ञान ही हमारा रक्षण करता है। ज्ञान-साधना के लिए तप आवश्यक है।
भाषार्थ
(इन्द्रः) सम्राट् (मन्युः) मन्यु है, (देवः) मन्युदेव (मन्यु एव आस) तो मन्यु ही है, (होता) आह्वाता अग्नि (मन्युः) मन्यु है, (जातवेदाः१ वरुणः) ज्ञानी तथा धनी वरुण राजा, अर्थात् शत्रुनिवारक राजा मन्यु है; (या:) जो (मानुषी: विशः) मानुष प्रजाएँ हैं वे (मन्युम्, ईडते) मन्यु को ही स्तुति करती हैं, उसका गुणगान करती हैं, (तपसा) ताप अर्थात् जोश के साथ (सजोषाः) प्रीतिवाले (मन्यो) हे मन्यु! (नः पाहि) हमारी पालना कर, रक्षा कर।
टिप्पणी
[होता= देवानाम् आह्वाता अग्निः। सजोषा:= जुषी प्रीतिसेवनयोः (तुदादिः)। मन्त्र में इन्द्रादि के स्वरूपों का अपह्रव अर्थात् अपलाप कर, उन्हें केवल मन्युरूप कहने से युद्ध में मन्यु के अतिशय की आवश्यकता को सूचित किया है। सैनिकों और अधिकारियों के मनों में यदि मन्यु की उग्रता न हो तो युद्ध में सफलता नहीं हो सकती। इस प्रकार युद्ध में मन्यु ही पालक तथा रक्षक होता है।] [१. जात+वेदस् (विद् ज्ञाने); जातवेदस्= (वेदः धनम्) "वेदः धननाम" (निघं० २।१०)। तथा जातवेदा:= "जातवित्तो या जातधनः। जातविद्यो वा जातप्रज्ञानः" (निरुक्त ७।५।१९)।]
विषय
प्रभु से प्रार्थना।
भावार्थ
(मन्युः इन्द्रः) मन्यु ही इन्द्र है, (मन्युः एव) मन्यु ही (देवः) देव (आस) है, (मन्युः होता) मन्यु होता है, (वरुणः) मन्यु ही वरुण है, (जात-वेदाः) मन्यु ही जातवेदा है, (मन्युः) वह मन्यु हैं जिसको (याः) जो (मानुषीः) मनुष्य, मननशील प्रजाएं हैं वे सब (ईडते) स्तुति करते हैं, उपासना करते हैं। हे (मन्यो) मन्यो ! प्रभो ! तू (सजोषाः) सप्रेम (तपसा) तप से (नः पाहि) हमारी रक्षा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मास्कन्द ऋषिः। मन्युर्देवता। १ जगती। २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
High Spirit of Passion
Meaning
Manyu, righteous passion and courage of mind, is Indra, glory and power, manyu is brilliance, manyu is the call for yajna and the yajamana, manyu is Varuna, deep as ocean, blazing as sun and self-confidence of choice. Manyu is Jataveda, spirit of intelligence and existential awareness. Communities which live all over the human world honour and adore manyu. O spirit of passion and universal intelligence of divine mind, dearest friend and inner inspiration, pray protect and promote us with the strength and discipline of body, mind and soul.
Translation
Wrath is the resplendent king. The enlightened one also is wrath personified. Wrath is the same as fervour and fervour is the venerable Lord, knower of all creatures. All the people, descendants of Manu, praise fervour. O fervour, wrath, may you protect us with your warmth and affection. (Also Rg. X.83.2)
Translation
Manyu, the zeal is Indra, the mighty power, Manyu is varily deva, the wonderful power, Manyu is hotar, the devouring force, Manyu is Varuna, the overwhelming might, Manyu is Jatavedas, the igneous ferver present in all the creatures, it is Manyu which is praised by the human being and let this Manyu being accordant guard us with its ferver.
Translation
Perseverance is full of glory, divine in nature, the bestower of strength, worthy of acceptance, and the giver of wealth. The tribes of human lineage worship perseverance. Accordant with thy religious austerity, Perseverance! Guard us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(मन्युः) दीप्यमानः क्रोधः (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (एव) निश्चयेन (आस) अस्तेर्लिटि छान्दसो भूभावाभावः। बभूव (देवः) दिव्यगुणयुक्तः। प्रकाशमानः (होता) दाता ग्रहीता वा (वरुणः) श्रेष्ठः। (जातवेदाः) अ० १।७।२। जातधनः (मन्युः) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। इति द्वितीयार्थे प्रथमा। मन्युं क्रोधम् (विशः) प्रजाः (ईडते) स्तुवन्ति (मानुषीः) मनोर्जातावञ्यतौ षुक्च। पा० ४।१।१६१। इति मनु-अञ् षुक् च टिड्ढाण०। पा० ४।१।१५। इति-ङीप् यद्वा। जनेरुसिः। उ० २।११५। इति मनु अवबोधने-उसि ! मनुष्-अण्, ङीप्। मानुष्यः। मनुष्यजातीयाः (याः) या गतौ-ड, टाप्। उद्योगशीलाः (पाहि) रक्ष (नः) अस्मान् (मन्यो) हे क्रोध (तपसा) तप संतापैश्वर्ययोः-असुन्। प्रतापेन। ऐश्वर्येण (सजोषाः) जुषी-असुन्। समानप्रीतिः ॥
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