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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त
    45

    अ॒यं ते॑ अ॒स्म्युप॑ न॒ एह्य॒र्वाङ्प्र॑तीची॒नः स॑हुरे विश्वदावन्। मन्यो॑ वज्रिन्न॒भि न॒ आ व॑वृत्स्व॒ हना॑व॒ दस्यूं॑रु॒त बो॑ध्या॒पेः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ते॒ । अ॒स्मि॒ । उप॑ । न॒: । आ । इ॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । प्र॒ती॒ची॒न: । स॒हु॒रे॒ । वि॒श्व॒ऽदा॒व॒न् । मन्यो॒ इति॑ । व॒ज्रि॒न् । अ॒भि । न॒: । आ । व॒वृ॒त्स्व॒ । हना॑व । दस्यू॑न् । उ॒त । बो॒धि॒ । आ॒पे: ॥३२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं ते अस्म्युप न एह्यर्वाङ्प्रतीचीनः सहुरे विश्वदावन्। मन्यो वज्रिन्नभि न आ ववृत्स्व हनाव दस्यूंरुत बोध्यापेः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ते । अस्मि । उप । न: । आ । इहि । अर्वाङ् । प्रतीचीन: । सहुरे । विश्वऽदावन् । मन्यो इति । वज्रिन् । अभि । न: । आ । ववृत्स्व । हनाव । दस्यून् । उत । बोधि । आपे: ॥३२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह मैं (ते) तेरा (अस्मि) हूँ। (सहुरे) हे समर्थ ! (विश्वदावन्) हे सर्वदाता ! (प्रतीचीनः) प्रत्यक्ष चलता हुआ तू (नः) हमारे (अर्वाङ्) सन्मुख होकर (उप एहि) समीप आ (वज्रिन्) हे वज्रधारी (मन्यो) क्रोध ! (नः अभि) हमारी ओर (आ ववृत्स्व) वर्तमान होजा, (उत) और (आपेः) अपने बन्धु का (बोधि) बोधकर, [जिससे हम दोनों] (दस्यून्) दुष्टों को (हनाव) मारें ॥६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सब प्रकार विचार करके दुष्टों पर क्रोध करते हैं, वे विजयी होते हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(अयम्) पुरुषार्थी (ते) तव (अस्मि) (उप) समीपे (नः) अस्माकम् (आ इहि) आगच्छ (अर्वाङ्) अभिमुखः (प्रतीचीनः) विभाषाञ्चेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति प्रत्यच्-स्वार्थे ख। अल्लोपो दीर्घश्च। प्रत्यञ्चन्। प्रत्यक्षं गच्छन् (सहुरे) हे शक्तिमन् (विश्वदावन्) विश्व+डुदाञ्-वनिप्। हे सर्वस्य दातः। (मन्यो) हे क्रोध (वज्रिन्) हे वज्रोपेत (अभि) अभिलक्ष्य (नः) अस्मान् (आ) समन्तात् (ववृत्स्व) छान्दसः शपः श्लुः। वर्तस्व (हनाव) आवां हिनसाव (दस्यून्) उपक्षपयितॄन् दुष्टान् (उत) अपि च (बोधि) बुध अवगमने लोटि छान्दसं रूपम्। बुध्यस्व। बोधं कुरु (आपेः) इणजादिभ्यः। वा० पा० ३।३।१०८। इति आप्लृ व्याप्तौ-इण्। बन्धोः ॥

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    विषय

    ज्ञान के प्रति रुचि-सौभाग्य

    पदार्थ

    १. ज्ञान-रुचि बनकर यह कहता है कि हे ज्ञान! (अयं ते अस्मि) = यह मैं तेरा है, अर्थात् अब मैं ज्ञान का भक्त बन गया हूँ। (उप नः अर्वाङ् आ इह) = तू हमें समीपता से अभिमुख होता हुआ प्राप्त हो। (प्रतीचीन:) = मेरे शत्रुओं के प्रति गति करता हुआ तू मुझे प्राप्त हो। सहुरे-हे शत्रुओं का पराभव करनेवाले ज्ञान! (विश्वदावन्) = तू हमारे लिए सब ऐश्वयों का देनेवाला है। (हे वज्रिन्) = क्रियाशील-हमें क्रियाशील बनानेवाले (मन्यो) = ज्ञान! तु (नः अभि:) = हमारी ओर (आववृत्स्व) = आनेवाला हो। तू हमें सदा प्राप्त हो । (दस्यून हनाव) = हम तेरे साथ मिलकर दस्युओं का हनन करनेवाले हों। तेरे द्वारा हम दास्यबवृत्तियों को नष्ट कर सकें, (उत) = और हे ज्ञान! तू (आपे:) = अपने मित्र का-मेरा (बोधि) = ध्यान करनेवाला हो। तुझे ही शत्रुओं के संहार के द्वारा हमारा रक्षण करना है।

    भावार्थ

    जिस दिन हम ज्ञान के आराधक बनते हैं, वह दिन हमारे सौभाग्यवाला होता है। इस ज्ञान के साथ मिलकर हम दास्यववृत्तियों का संहार करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (सहुरे) हे सहनशील या पराभवकारी! (विश्वदावन्) तथा हे समग्र शक्ति प्रदान करनेवाले मन्यु! (अयम्) यह मैं (ते) तेरा-अपना (अस्मि) हूँ, (प्रतीचीन:) शत्रुओं के प्रति जाता हुआ तू (अर्वाङ) हमारी ओर हुआ (न: उप) हमारे समीप (एहि) आया कर; (वज्रिन्) हे शत्रुवर्जक आयुध या बल को धारण करनेवाले (मन्यो) मन्यु! (न: अभि) हमारे अभिमुख (आववृत्स्व) लौट आया कर, (दस्युन् हनाव) ताकि हम दोनों मिलकर [भविष्य में भी] उपक्षयकारियों का हनन कर पाएँ, (उत) तथा (आपे:) मुझे अपना बन्धु (बोधि) तू जान।

    टिप्पणी

    [आपे:= आपिम्, आप्तम्, बन्धुभूतम्, मां बोधि (सायण); अथवा "अपना जान। मैं तेरा अपना हूँ, यह जान।"]

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    विषय

    प्रभु से प्रार्थना।

    भावार्थ

    मैं (अयं) यह (ते अस्मि) तेरा ही हूं। आप (नः) हम से (प्रतीचीनः) प्रत्यक् तत्व, सदा अदृश्य होकर भी (नः) हमें (अर्वाङ्) साक्षात् दर्शन (उप एहि) दें। हे (सहुरे) सहनशील, बलशालिन् ! हे (विश्वदावन्) समस्त संसार को सब पढ़ार्थ देने हारे मन्यो ! (वज्रिन्) संहारक ! (नः) हमारे (अभि आ ववृत्स्व) सन्मुख आओ, हमें दर्शन दो। मैं और आप दोनों (दस्यून्) दस्युओं आत्मशक्ति के नाशक शत्रुओं को (हनाव) विनाश करें, (उत) और (आपेः) मुझ बन्धु को आप (बोधि) अपना समझें, अपनावें या ज्ञान दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मास्कन्द ऋषिः। मन्युर्देवता। १ जगती। २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    High Spirit of Passion

    Meaning

    Here I am for you, O spirit of courage and self- assertion, all giver and sustainer for the world, come, turn to me, universal spirit. O spirit of awful passion and undaunted self identity, wielder of the thunderbolt, come constantly, let us together dispel darkness and destroy evil. Pray inspire and awaken me, your own self.

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    Translation

    This I am yours. May you come towards us moving towards the enemy, O conquering one, granter of all the things. O Wrath (Manyu) wielder of adamantine weapon, may you turn towards us. Let both of us kill the destroyers. May you know me well as your protege. (Also Rg. X.83.6)

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    Translation

    I belong to this warm emotion which being invisible comes to us in visible manner. This is conquering, all-bestowing and possessing the power of thunder-bolt. Let it come to us, let us slay the thieves and dacoits and let us distinguish our brothers from others.

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    Translation

    I am all thine own, though invisible, come hither unto us; O victorious, all-bestowing, martial Perseverance. Come unto us, let us together destroy the foes of spiritual power, recognize me as thy friend!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(अयम्) पुरुषार्थी (ते) तव (अस्मि) (उप) समीपे (नः) अस्माकम् (आ इहि) आगच्छ (अर्वाङ्) अभिमुखः (प्रतीचीनः) विभाषाञ्चेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति प्रत्यच्-स्वार्थे ख। अल्लोपो दीर्घश्च। प्रत्यञ्चन्। प्रत्यक्षं गच्छन् (सहुरे) हे शक्तिमन् (विश्वदावन्) विश्व+डुदाञ्-वनिप्। हे सर्वस्य दातः। (मन्यो) हे क्रोध (वज्रिन्) हे वज्रोपेत (अभि) अभिलक्ष्य (नः) अस्मान् (आ) समन्तात् (ववृत्स्व) छान्दसः शपः श्लुः। वर्तस्व (हनाव) आवां हिनसाव (दस्यून्) उपक्षपयितॄन् दुष्टान् (उत) अपि च (बोधि) बुध अवगमने लोटि छान्दसं रूपम्। बुध्यस्व। बोधं कुरु (आपेः) इणजादिभ्यः। वा० पा० ३।३।१०८। इति आप्लृ व्याप्तौ-इण्। बन्धोः ॥

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