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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त
    73

    अ॒भि प्रेहि॑ दक्षिण॒तो भ॑वा॒ नोऽधा॑ वृ॒त्राणि॑ जङ्घनाव॒ भूरि॑। जु॒होमि॑ ते ध॒रुणं॒ मध्वो॒ अग्र॑मु॒भावु॑पां॒शु प्र॑थ॒मा पि॑बाव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्र । इ॒हि॒ । द॒क्षि॒ण॒त: । भ॒व॒ । न॒: । अध॑ । वृ॒त्राणि॑ । ज॒ङ्घ॒ना॒व॒ । भूरि॑ । जु॒होमि॑ । ते॒ । ध॒रुण॑म् । मध्व॑: । अग्र॑म् । उ॒भौ । उ॒प॒ऽअं॒शु । प्र॒थ॒मा । पि॒बा॒व॒ ॥३२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्रेहि दक्षिणतो भवा नोऽधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि। जुहोमि ते धरुणं मध्वो अग्रमुभावुपांशु प्रथमा पिबाव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्र । इहि । दक्षिणत: । भव । न: । अध । वृत्राणि । जङ्घनाव । भूरि । जुहोमि । ते । धरुणम् । मध्व: । अग्रम् । उभौ । उपऽअंशु । प्रथमा । पिबाव ॥३२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अभि प्र इहि) आगे आ, और (नः) हमारी (दक्षिणतः) दहिनी ओर (भव) वर्त्तमान हो, (अध) तव (भूरि) बहुत से (वृत्राणि) अन्धकारों को (जङ्घनाव) हम दोनों मिटा देवें। (मध्वः) मधुर रस का (अग्रम्) श्रेष्ठ (धरुणम्) धारण करने योग्य [स्तुतिरूप] रस (ते) तुझे (जुहोमि) भेंट करता हूँ। (प्रथमा=०-मौ) पहिले वर्तमान (उभौ) हम दोनों (उपांशु) एकान्त में (पिबाव) [रसपान] करें ॥७॥

    भावार्थ

    महात्मा पुरुष आत्मदोषों पर क्रोध करके अनेक अन्धकारों को मिटाते हैं और वे ही इस मन्युस्तुति को एकान्त में सूक्ष्मरूप से विचारकर अधिक आनन्द भोगते हैं ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(अभि) (प्र) (इहि) गच्छ (दक्षिणतः) दक्षिणोत्तराभ्यामतसुच्। पा० ५।३।२८। इति अतसुच्। दक्षिणभागे परमसहायकत्वेन (भव) (नः) अस्माकम् (अध) अथ। अनन्तरम् (वृत्राणि) तमांसि (जङ्घनाव) हन्तेर्यङ्लुगन्ताल् लोटि। आडुत्तमस्य पिच्च। पा० ३।४।५२। इति आडागामः। आवामतिशयेन हनाव (भूरि) भूरीणि बहूनि (जुहोमि) ददामि (ते) तुभ्यम् (धरुणम्) अ० ३।१२।३। धर्तव्यम्। स्तुतिरूपं रसम् (मध्वः) मधोः। मधुररसस्य (अग्रम्) श्रेष्ठं सारभूतम् (उभौ) अहं च मन्युश्च (उपांशु) निर्जने देशे (प्रथमा) प्रथमौ। शत्रुभ्यः पूर्वभाविनौ सन्तौ (पिबाव) आवां पानं करवाव ॥

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    विषय

    ज्ञान+ध्यान-सोमरक्षण

    पदार्थ

    १. हे ज्ञान ! तू (अभि प्रेहि) = मुझे अभिमुख्येन प्राप्त हो। (न:) = हमारे (दक्षिणतः भव) = दक्षिण की ओर हो, अर्थात् मैं तेरा आदर करनेवाला बनूं। जिसे हम आदर देते हैं, उसे दाहिनी ओर ही बिठाते हैं। (अध) = अब हम तेरे साथ मिलकर (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (भूरि) = खूब ही (जंघनाव) = नष्ट करें। २. (ते) = तेरे उद्देश्य से, तेरी प्रगति के लिए (धरुणम्) = शरीर का धारण करनेवाले (मध्वः अग्रम्) = मधुर वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ इस सोम को (जुहोमि) = अपने अन्दर आहुत करता हूँ। सोमरक्षण से बुद्धि की तीव्रता होकर ज्ञान में वृद्धि होती है। हे ज्ञान ! तू और मैं (उभा) = दोनों मिलकर (उपांशु) = चुपचाप-मौनपूर्वक-ध्यानावस्था को अपनाकर प्रथमा पिबाव सबसे प्रथम इस सोम का पान करते हैं। ज्ञान-प्राप्ति व ध्यान सोमरक्षण के साधन बनते हैं।

     

    भावार्थ

    हम ज्ञान को साथी बनाकर वृत्र आदि शत्रुओं का हनन करें। इस ज्ञान की प्रासि के लिए सोम का पान करें। ये ज्ञान और ध्यान हमें सोम-रक्षण में समर्थ बनाएँ।

    विशेष

    ज्ञान और ध्यान द्वारा वासना-विनाश करता हुआ तथा सब शक्तियों का विकास करता हुआ यह व्यक्ति 'ब्रह्मा' बनता है। पाप का नाश करनेवाला यह 'ब्रह्मा' प्रार्थना करता है -

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    भाषार्थ

    [हे मन्यु!] (अभि प्रेहि) हमारे अभिमुख गमन कर, आ, (नः) हमारे (दक्षिणतः) दाहिनी ओर (भव) हो, (अधा) तदनन्तर (भूरि) प्रभूत (वृत्राणि) राष्ट्र का आवरण करनेवाले, घेरा डालने वाले शत्रुओं का (जङ्घनाव) हम दोनों हनन करें; (ते) हे मन्यु! तेरे लिए (धरुणम्) पोषक, (मध्व:) मधुर रस के (अग्रम्) श्रेष्ठ भाग की (जुहोमि) मैं आहुतियाँ देता हूँ, (उभौ) हम दोनों (प्रथमौ) युद्धारम्भ से पूर्व (उपांशु) अप्रकट रूप में (पिबाव) सोमपान करें।

    टिप्पणी

    [दक्षिणतः= युद्ध में दाहिना हाथ कार्यकारी होता है। मन्यु को सेनापति ने अपना दाहिना हाथ माना है। मान्य व्यक्ति को दाहिनी ओर रखना, यह शिष्टाचार भी है,-यह भी उपदिष्ट किया है। युद्ध से पूर्व सोमरस का सेवन करना और शुभकार्यारम्भ में यज्ञ करना, इसकी सूचना भी मन्त्र द्वारा मिलती है। सोमरस का पान शक्तिवर्धक है। इसका उपांशुरूप में पान करना इसलिए कहा है कि इसकी पूर्वसूचना शत्रु को प्राप्त न हो सके कि हम शक्ति प्राप्त कर उसके साथ युद्ध की तैयारी कर रहे हैं। जङ्घनाव= हन्+ यङ्+लुक+आट् आगम।]

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    विषय

    प्रभु से प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे मन्यो ! आप (अभि प्रेहि) हमें साक्षात् दर्शन दें और (दक्षिणतः नः भव) हमारे सदा दायें होकर रहें। (अध) और (वृत्राणि) विध्नों को हम दोनों मिलकर (भूरि) खूब (जंघनाव) विनाश करें। हे मन्यो ! (ते) तेरे (मध्वः) मधु = मधुर आनन्द रस का (अग्नं) सारभूत श्रेष्ठ (धरुणं) ध्रुव, चिरस्थायी स्वरूप को (जुहोमि) मैं स्वीकार करता हूं, प्राप्त करता हूं। (उभौ) हम दोनों प्रभु और भक्त मिलकर (उप-अंशु) शान्त, एकान्त में (प्रथमा) सब से पूर्व उस रस का (पिबाव) पान करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मास्कन्द ऋषिः। मन्युर्देवता। १ जगती। २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    High Spirit of Passion

    Meaning

    Pray come forward and be on our right side in your own place, and together we shall eliminate all darkness and adversity. I offer you the best, foremost and sweetest honeyed homage of the self, and we shall together drink of the joy of victory in closest intimacy.

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    Translation

    May you move forward. Keep to the right of us. Now let both of us destroy the evil (nescience) again and again. First, offer to-you the sustaining top (dharanam) of the sweet (madhu) and drink first, the initial drought (upamsu). (Others shall follow on if they so wish) (Also Rg. X.83.7)

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    Translation

    Let this Manyu come to us and be in our right hand. Let both of us kill the multitude of enemies. I accept the permanent essence of its sweetness and let both of us quietly save it first.

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    Translation

    O perseverance, approach, and on our right hand hold thy station, then let us both remove a multitude of impediments. I realize the steady, dignified pleasant nature, may, we be first to enjoy it in solitude.

    Footnote

    Pt. Jaidev Vidyalankar interprets Manyu as God, Both soul and God should derive and enjoy happiness in solitude.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(अभि) (प्र) (इहि) गच्छ (दक्षिणतः) दक्षिणोत्तराभ्यामतसुच्। पा० ५।३।२८। इति अतसुच्। दक्षिणभागे परमसहायकत्वेन (भव) (नः) अस्माकम् (अध) अथ। अनन्तरम् (वृत्राणि) तमांसि (जङ्घनाव) हन्तेर्यङ्लुगन्ताल् लोटि। आडुत्तमस्य पिच्च। पा० ३।४।५२। इति आडागामः। आवामतिशयेन हनाव (भूरि) भूरीणि बहूनि (जुहोमि) ददामि (ते) तुभ्यम् (धरुणम्) अ० ३।१२।३। धर्तव्यम्। स्तुतिरूपं रसम् (मध्वः) मधोः। मधुररसस्य (अग्रम्) श्रेष्ठं सारभूतम् (उभौ) अहं च मन्युश्च (उपांशु) निर्जने देशे (प्रथमा) प्रथमौ। शत्रुभ्यः पूर्वभाविनौ सन्तौ (पिबाव) आवां पानं करवाव ॥

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