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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृगुः देवता - त्रैककुदाञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
    65

    नैनं॒ प्राप्नो॑ति श॒पथो॒ न कृ॒त्या नाभि॒शोच॑नम्। नैनं॒ विष्क॑न्धमश्नुते॒ यस्त्वा॒ बिभ॑र्त्याञ्जन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ए॒न॒म् । प्र । आ॒प्नो॒ति॒ । श॒पथ॑: । न । कृ॒त्या । न । अ॒भिऽशोच॑नम् । न । ए॒न॒म् । विऽस्क॑न्धम् । अ॒श्नु॒ते॒ । य: । त्वा॒ । बिभ॑र्ति । आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒ ॥९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या नाभिशोचनम्। नैनं विष्कन्धमश्नुते यस्त्वा बिभर्त्याञ्जन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । एनम् । प्र । आप्नोति । शपथ: । न । कृत्या । न । अभिऽशोचनम् । न । एनम् । विऽस्कन्धम् । अश्नुते । य: । त्वा । बिभर्ति । आऽअञ्जन ॥९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (न) न तो (एनम्) इस [पुरुष] को (शपथः) क्रोधवचन, (न)(कृत्या) हिंसा क्रिया और (न)(अभिशोचनम्) महाशोक (प्राप्नोति) पहुँचता है, और (न)(एनम्) इसको (विष्कन्धम्) विघ्न (अश्नुते) व्यापता है, (यः) जो [पुरुष] (आञ्जन) हे संसार को व्यक्त करनेवाले ब्रह्म ! (त्वा) तुझको (बिभर्ति) धारण करता है ॥५॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण से परमात्मा को आत्मा में स्थिर करता है, उसको आध्यात्मिक शान्ति होने से आधिभौतिक और आधिदैविक शान्ति भी मिलती है ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(न) नहि (एनम्) पुरुषम् (प्राप्नोति) गच्छति (शपथः) शीङ् शपिरुगमि०। उ० ३।१३। इति शप आक्रोशे-अथ। मिथ्यापवादः। उपद्रवः। क्रोधवचनम् (कृत्या) विभाषा कृवृषोः। पा० ३।१।१२०। इति कृञ् हिंसायाम्-क्यप्, तुक् टाप् च। हिंसाक्रिया (अभिशोचनम्) शुच शोके-ल्युट्। इष्टवियोगानुचिन्तनम्। चित्तविकलता (विष्कन्धम्) अ० १।१६।३। विशेषेण शोषकः। विघ्नः (अश्नुते) व्याप्नोति (यः) आत्मा (त्वा) त्वाम् (बिभर्ति) आत्मनि धारयति (आञ्जन) म० ३। हे जगतो व्यक्तीकारक ब्रह्म ॥

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    विषय

    दुष्टता से दूर

    पदार्थ

    १. हे (आञ्जन) = ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभो! (यः) = जो भी उपासक (त्वा बिभर्ति) = आपको धारण करता है-हदय में आपका ध्यान करता है, (एनम्) = इसे (शपथः न प्राप्नोति) = परकृत शपथ प्रास नहीं होती, अर्थात् यह दूसरों से दी गई गालियों से मानस-सन्तुलन नहीं खो बैठता, (न कृत्या) = न ही इसे परकृत हिंसक कर्म [छेदन-भेदन] प्राप्त होता है, (न अभिशोचनम्) = और न ही इसे शोक प्राप्त होता है। २. (एनम्) = इस पुरुष को (विष्कन्धम्) = गति का प्रतिबन्धक कोई विघ्न भी (न अश्नुते) - नहीं व्यापता। यह उपासक अपनी जीवन-यात्रा में निर्विघ्नरूप से आगे-और आगे बढ़ता जाता है। आनेवाले विप्नों को यह प्रभु-शक्ति से पार कर जाता है

    भावार्थ

    प्रभु का हृदय में धारण हमें क्रोध, हिंसन, शोक व विनों का शिकार नहीं होने देता।

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    भाषार्थ

    (आञ्जन) हे सर्वत्र अभिव्यक्ति करनेवाले ब्रह्म-पुरुष ! [मन्त्र ७] (यः) जो उपासक (त्वा) तुझे (विभर्त्ति) निज जीवन में धारित तथा सम्पोषित करता है, (एनम्) इसको (न शपथ:) न शपथ, (न कृत्या) न हिंसा करने की भावना, (न अभि शोचनम्) न शोक (प्राप्नोति) प्राप्त होता है। (एनम्) इसको (विष्कन्धम्) गति-प्रतिबन्धक विष्न अर्थात् अन्तराय (न अश्नुते) नहीं व्याप्त करते।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में ब्रह्म-पूरुष का मुख्य वर्णन है। ब्रह्म अर्थात परमेश्वर को "पुरुषविशेष ईश्वरः" कहा है, (योग समाधिपाद, सूत्र २४)। यजुर्वेद में ब्रह्म प्रतिपादक 'पुरुषसूक्त' भी है (यजु० ३१), अतः ब्रह्म, पुरुष है। शपथ:=यह परकृत शाप नहीं है। शपथ स्वयं ली जाती है. और शाप अन्य व्यक्ति द्वारा दिया जाता है। इसलिए 'शपथाभिशापौ में द्विवचन का प्रयोग हुआ है, (निरक्त ७।१।३), यथा "अथापि शपथाभिशापौ"। कृत्या=कृती छेदने (तुदादिः). दूसरे की हिंसा की भावना। बह्मोपासक यह ममझता है कि जो दुःख-कष्ट मिलते हैं वे अपने कर्मो के अनुसार न्यायपूर्वक और व्यक्ति के सुधार के लिए, उसे सचेत कराने के लिए ही मिलते हैं, अतः वह दुःख-कष्ट मिलने पर भी शोक नहीं करता। यथा "तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यतः" (यजुः० ४०।७)। अन्तराय (मन्त्र ४)। विष्कन्धम् = वि+स्कन्दिर् गतिशोषणयोः (स्वादिः), 'गति' अर्थ अभिप्रेत है। वि+गतिः=विष्कन्धम् = "गतिप्रतिबन्धकम् विघ्नजातम्" (सायण)। गौणार्थ में,-जो अञ्जनभस्म का सेवन करता है उसका मानसिक परिवर्तन हो जाने से, वह मानसिक रोगों से मुक्त हो जाता है। मानसिक रोग हैं, शपथ लेना, हिंस्र भावनाएँ, तथा अतिशोक आदि तथा मानसिक गति में विघ्नों का विनाश।]

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    विषय

    अञ्जन के दृष्टान्त से ज्ञान का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ज्ञानाञ्जन ! प्रकाशस्वरूप ! (यः त्वा विभर्त्ति) जो तुझे धारण करता है (एनं शपथः न प्राप्नोति) उसको किसी का दुर्वचन भी नहीं लगता। (न कृत्या) उसको किसी की बुरी चाल भी नहीं सताती। (न अभि-शोचनम्) उसको किसी का कोसना भी नहीं लगता। (एनं वि-स्कन्धं न अश्नुते) उसको किसी का षड्यन्त्र या सेनाबल भी पीड़ा नहीं देता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भगुर्ऋषिः। त्रैककुदमञ्जनं देवता। १, ४-१० अनुष्टुभः। कुम्मती। ३ पथ्यापंक्तिः। दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Anjana, Refinement

    Meaning

    O vision and love of beauty and grace, Anjana, whoever the person that internalizes and holds on to you in faith with courage, malignity and curse approach him not, no black magic, no imprecation or burning hate can affect him, no evil design can ever touch him. (You are the spiritual mark of security on the forehead.)

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    Translation

    Curse does not reach him, nor evil designs, nor the tormenting stratagems, nor the rheumatism seizes him, who applies you, O ointment.

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    Translation

    Whosever uses this slave does not receive any harm from any one’s angry utterance, from any one’s violent act, from anyone’s scolding and chiding and also does not receive the trouble from rheumatism.

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    Translation

    O God, he who meditates upon Thee, remains aloof from imprecation, violence, grief and any kind of impediment!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(न) नहि (एनम्) पुरुषम् (प्राप्नोति) गच्छति (शपथः) शीङ् शपिरुगमि०। उ० ३।१३। इति शप आक्रोशे-अथ। मिथ्यापवादः। उपद्रवः। क्रोधवचनम् (कृत्या) विभाषा कृवृषोः। पा० ३।१।१२०। इति कृञ् हिंसायाम्-क्यप्, तुक् टाप् च। हिंसाक्रिया (अभिशोचनम्) शुच शोके-ल्युट्। इष्टवियोगानुचिन्तनम्। चित्तविकलता (विष्कन्धम्) अ० १।१६।३। विशेषेण शोषकः। विघ्नः (अश्नुते) व्याप्नोति (यः) आत्मा (त्वा) त्वाम् (बिभर्ति) आत्मनि धारयति (आञ्जन) म० ३। हे जगतो व्यक्तीकारक ब्रह्म ॥

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