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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भृगुः देवता - त्रैककुदाञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
    44

    अ॑सन्म॒न्त्राद्दु॒ष्वप्न्या॑द्दुष्कृ॒ताच्छम॑लादु॒त। दु॒र्हार्द॒श्चक्षु॑षो घो॒रात्तस्मा॑न्नः पाह्याञ्जन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स॒त्ऽम॒न्त्रात् । दु॒:ऽस्वप्न्या॑त् । दु॒:ऽकृ॒तात् । शम॑लात् । उ॒त । दु॒:ऽहार्द॑: । चक्षु॑ष: । घो॒रात् । तस्मा॑त् । न॒: । पा॒हि॒ । आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒ ॥९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असन्मन्त्राद्दुष्वप्न्याद्दुष्कृताच्छमलादुत। दुर्हार्दश्चक्षुषो घोरात्तस्मान्नः पाह्याञ्जन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असत्ऽमन्त्रात् । दु:ऽस्वप्न्यात् । दु:ऽकृतात् । शमलात् । उत । दु:ऽहार्द: । चक्षुष: । घोरात् । तस्मात् । न: । पाहि । आऽअञ्जन ॥९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (आञ्जन) हे संसार के व्यक्त करनेवाले ब्रह्म ! तू (असन्मन्त्रात्) असत्य भाषण से, (दुष्वप्न्यात्) बुरी निद्रा में उठे हुए कुविचार से, (दुष्कृतात्) दुष्ट कर्म से, (शमलात्) अशुद्धता से (उत) और (दुर्हार्दः) दुष्ट हृदयवाले (घोरात्) घोर वा भयानक (चक्षुषः) नेत्र से (तस्मात्) इस सबसे (नः) हमें (पाहि) बचा ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर के सहाय से प्रयत्न करें कि वे कभी मिथ्या न बोलें, स्वप्न में बुरा विचार न करें, और दुष्कर्मों से बच कर शुद्ध आचरण रक्खें और नेत्र आदि इन्द्रियों से कुचेष्टा न करें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(असन्मन्त्रात्) असत्+मत्रि गुप्तभाषणे-घञ्। मन्त्रा मननात्-निरु० ७।१२। असत्यभाषणात् (दुष्वप्न्यात) दुःस्वप्न-यत्। दुर् दुष्टेषु स्वप्नेषु भवात् कुविचारात् (दुष्कृतात्) दुष्टकृतात्। पापात् (शमलात्) शकिशम्योर्नित्। उ० १।११२। इति शम उपशमे-कलप्रत्ययः। अशुद्धव्यवहारात् (उत) अपि च (दुर्हार्दः) अ० २।७।५। हार्दयतेः क्विपि णिलोपे रूपम्। दुष्टहृदययुक्तात् (चक्षुषः) नेत्रात् (घोरात्) क्रूरात् (तस्मात्) उपर्युक्तात् सर्वस्मात् (नः) अस्मान् (पाहि) रक्ष (आञ्जन) म० ३। हे जगतो व्यक्तीकारक ब्रह्म ॥

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    विषय

    दुष्टता से दूर

    पदार्थ

    १. हे (आञ्जन) = ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभो! आप (असत् मन्त्रात्) = असत्य मन्त्रणा से कुविचारों से (न: पाहि) = हमें बचाइए। हम कभी कुविचारों में न पड़ जाएँ। (दुष्वप्यात्) = अशुभ स्वप्नों के कारणभूत असन्मन्त्रों से हम सदा दूर रहें, अशुभ विचारों के कारण हमें बुरे स्वप्न ही न आते रहें। (उत) = और शम् (अलात्) = शान्ति का निवारण करनेवाले-सतत अशान्ति के कारणभूत (दुष्कृतात्) = दुष्कर्मों से हमें बचाइए। ३. (दुहर्दिः) = दौर्मनस्य से तथा (घोरात् चक्षुसा) = क्रोधभरी आँख से (तस्मात्) = अनुक्रम से उन सबसे आप हमें बचाइए। हम कभी दौर्मनस्य से युक्त न हों। हमारी आँख कभी क्रोध को न उगल रही हो।

    भावार्थ

    प्रभु की उपासना हमें बुरे स्वानों के कारणभूत दुर्विचारों से बचाती है। यह उपासना ही हमें शान्ति के ध्वंसक दुष्कर्मों से दूर रखती है तथा इसी उपासना से हम दुष्ट हृदयता व क्रोध-वर्षिणी आँखों से बचे रहते हैं।

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    भाषार्थ

    (आञ्जन) हे सर्वत्र अभिव्यक्ति करनेवाले ब्रह्म-पुरुष ! (असत् मन्त्रात्) बुरी मन्त्रणा अर्थात् गुप्त मन्त्रणा से (दुष्बप्न्यात्) बुरी स्वप्नों से प्राप्त विकलता से, (दुष्कृतात्) दुष्कर्म से, (उत) तथा (शमलात्) पाप से (दुर्हाद:) हृदय की दुर्भावना से, (घोरात् चक्षुष:) चक्षु के घोरपन से, (तस्मात्) उस कथित प्रत्येक से (न:) हमारी (पाहि) रक्षा कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र-भावनाओं से स्पष्ट है कि मन्त्र में ब्रह्म-पुरुष का वर्णन है, अञ्जन-भस्म का नहीं। असन्मन्त्र= "द्वौ संनिषद्य यन्मन्त्रयेते राजा तद् वेद वरुणस्तृतीयः" (अथर्व० ४।१६।२) अर्थात् दो बैठकर जो मन्त्रना करते हैं, उसे वरुण-राजा जानता है, तीसरा हुआ। इससे प्रतीत होता है कि यह मन्त्रणा है गुप्तमन्त्रणा, बुरी मन्त्रणा, षड्यंत्र। शमल है 'पाप', जोकि 'शम्' अर्थात् चित्त की शान्ति को 'अलम्' अर्थात् समाप्त कर देता है। घोरात् चक्षुषः =आंख का घोरपन, अर्थात् क्रूरता।]

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    विषय

    अञ्जन के दृष्टान्त से ज्ञान का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ज्ञानाञ्जन ! तू (नः) हमें (असत्-मन्त्रात्) दुष्ट पुरुषों की दुष्ट सलाहों और कुचोदनाओं, एवम् दुर्विचारों और दुर्मन्त्रणाओं से, (दुः-स्वप्न्याद) बुरे २ विचारों से उत्पन्न होने वाले बुरे २ स्वप्नों से, (दुष्कृतात्) दुर्विचारों से उत्पन्न होने वाले दुराचारों से, (उत) और (शमलाद्) पाप कर्म से और (दुर्हार्दः) दुष्ट हृदय वाले पुरुष की (घोरात्) पापमय, भयंकर (चक्षुषः) आंखों से भी (पाहि) बचा, हमारी रक्षा कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भगुर्ऋषिः। त्रैककुदमञ्जनं देवता। १, ४-१० अनुष्टुभः। कुम्मती। ३ पथ्यापंक्तिः। दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Anjana, Refinement

    Meaning

    O love of real beauty and faith in divine grace, Anjana, knowledge and dedication to truth, protect us against imprecation and evil chant, save us from evil dream and negative ambition, guard us against evil will and action, and save us from heinous sin. Protect us against the evil eye and the devilish heart. Save us from all this evil and damaging negativity.

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    Translation

    O ointment, may you: protect us from evil conspiracy, from unpleasant dreams, evil actions, sinful acts, and also from a malicious and illwilling eye:

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    Translation

    This salve keeps up away from acting upon bad advice regarding the removal of eye-diseases, bad sleep, bad means of removing eye-diseases, affection, troublesome cruel eye-diseases.

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    Translation

    From lying speech, from evil dream, from wicked deed and sinfulness, from hostile and malignant eye, from these, O God, protect us well.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(असन्मन्त्रात्) असत्+मत्रि गुप्तभाषणे-घञ्। मन्त्रा मननात्-निरु० ७।१२। असत्यभाषणात् (दुष्वप्न्यात) दुःस्वप्न-यत्। दुर् दुष्टेषु स्वप्नेषु भवात् कुविचारात् (दुष्कृतात्) दुष्टकृतात्। पापात् (शमलात्) शकिशम्योर्नित्। उ० १।११२। इति शम उपशमे-कलप्रत्ययः। अशुद्धव्यवहारात् (उत) अपि च (दुर्हार्दः) अ० २।७।५। हार्दयतेः क्विपि णिलोपे रूपम्। दुष्टहृदययुक्तात् (चक्षुषः) नेत्रात् (घोरात्) क्रूरात् (तस्मात्) उपर्युक्तात् सर्वस्मात् (नः) अस्मान् (पाहि) रक्ष (आञ्जन) म० ३। हे जगतो व्यक्तीकारक ब्रह्म ॥

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