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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त
    57

    उद॑ङ्जा॒तो हि॒मव॑तः॒ स प्रा॒च्यां नी॑यसे॒ जन॑म्। तत्र॒ कुष्ठ॑स्य॒ नामा॑न्युत्त॒मानि॒ वि भे॑जिरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उद॑ङ् । जा॒त: । हि॒मऽव॑त: । स: । प्रा॒च्याम् । नी॒य॒से॒ । जन॑म् । तत्र॑ । कुष्ठ॑स्य । नामा॑नि । उ॒त्ऽत॒मानि॑ । वि । भे॒जि॒रे॒ ॥४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदङ्जातो हिमवतः स प्राच्यां नीयसे जनम्। तत्र कुष्ठस्य नामान्युत्तमानि वि भेजिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उदङ् । जात: । हिमऽवत: । स: । प्राच्याम् । नीयसे । जनम् । तत्र । कुष्ठस्य । नामानि । उत्ऽतमानि । वि । भेजिरे ॥४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) सो तू (हिमवतः) उद्योगी पुरुष से (जातः) उत्पन्न होकर और (उदङ्) ऊँचा पद पाकर (प्राच्याम्) प्रकृष्ट गति के बीच (जनम्) मनुष्यों में (नीयसे) लाया जाता है। (तत्र) वहाँ पर (कुष्ठस्य) गुणपरीक्षक राजा के (उत्तमानि) उत्तम-उत्तम (नामानि) यशों का (वि) विविध प्रकार से (भेजिरे) उन्होंने सेवन किया है ॥८॥

    भावार्थ

    प्रजागण उत्तम राजा को पाकर सदा उसका नाम गाते रहते हैं ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(उदङ्) ऊर्ध्वं पदं गतः (जातः) प्रादुर्भूतः (हिमवतः) म० २ उद्योगिनः पुरुषात् (सः) स त्वम् (प्राच्याम्) प्रकृष्टायां गत्याम् (नीयसे) प्राप्यसे (जनम्) लोकं प्रति (तत्र) जनसमूहे (कुष्ठस्य) म० १। गुणपरीक्षकस्य पुरुषस्य (नामानि) यशांसि (उत्तमानि) श्रेष्ठानि (वि) विविधम् (भेजिरे) भज सेवायाम्−लिट्। सेवितवन्तः ॥

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    विषय

    कुष्ठस्य उत्तमानि नामानि

    पदार्थ

    १. यह कुष्ठ (उदङ) = उत्तर में (हिमवतः) = हमाच्छादित पर्वतों से (जातः) = उत्पन्न होता है। सः वह यह कुष्ठ (प्राच्याम्) = पूर्व दिशा में (जनं नीयसे) = लोगों के समीप प्राप्त कराया जाता है। हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न हुआ-हुआ यह कुष्ठ सुदूर पूर्व दिशा में स्थित प्रदेशों में लोगों द्वारा उपयुक्त होता है। २. (तत्र) = वहाँ, उन प्रदेशों में (कुष्ठस्य उत्तमानि नामानि) = कुष्ठ के उत्तम नामों का (विभेजिरे) = वे लोग सेवन करते हैं। 'व्याधिः कुष्ठं पारिभाव्य व्यासपाकलमुत्पलम् इन नामों का स्मरण करते हुए वे कहते हैं कि यह औषध [विगत: आधियेन] रोगों को भगानेवाली है, [कुष्णाति रोगम्] रोग को उखाड़ फेंकनेवाली है [परिभावे साधुः] रोग-पराजय में उत्तम है [व्यापे साधुः] सोमशक्ति को शरीर में व्याप्त करने में उत्तम है 'सोमस्यासि सखा हितः'। [पाकं लाति] शक्तियों का परिपाक प्राप्त कराती है, [उत्पलति] शरीर में सोम की ऊर्ध्व गति का कारण बनती है।

    भावार्थ

    उत्तर में हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न हुआ-हुआ यह कुष्ठ पूर्व आदि दिशाओं में प्राप्त कराया जाता है। वहाँ सब इसके गुणसूचक उत्तम नामों का स्मरण करते हैं।

     

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    भाषार्थ

    (हिमवतः) हिमवान् के (उदङ् ) उत्तर में (जातः) हे कुष्ठ ! तू पैदा हुआ है, (सः) वह तू (प्राच्याम्) पूर्व की दिशा में (जनम् ) जनता या जनपद के प्रति (नीयसे) ले-जाया जाता है, या उस जनता या जनपद में तू प्राप्त१ होता है। ( तत्र ) वहाँ (कुष्ठस्य ) कूठ-औषध के ( उत्तमानि नामानि) नामी अर्थात् प्रसिद्ध उत्तम-कुष्ठों के विभागों को (विभेजिरे), [धनिक (मन्त्र २)] आपस में विभक्त कर लेते हैं अथवा विभेजिरे = उत्तम कुष्ठों को मध्यम तथा अल्पगुणी कुष्ठों से जुदा करते हैं, छाँटते हैं।

    टिप्पणी

    [१. चीञ् प्रापणे (भ्वादिः)।]

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    विषय

    कुष्ठ नामक परमात्मा वा ओषधि का वर्णन करते हैं।

    भावार्थ

    तू (उदङ्) उत्कृष्ट (हिमवतः जातः) हिमाच्छादित पर्वतों पर प्रकट होता है, (सः) वह तू जब योगी के हृदय में प्रकट होजाता है तब (प्राच्याम्) पूर्व आदि दिशाओं में (जनम्) जनों के प्रति अर्थात् उनके उपदेश के लिये (नीयसे) लेजाया जाता है, अर्थात् योगी लोग तेरा साक्षात् कर तेरे नाम को सर्वत्र ले जाते हैं, सर्वत्र फैला देते हैं, (तत्र) उस प्रजाजन में (कुष्ठस्य) सर्वत्र व्यापक परमात्मा के (उत्तमानि नामानि) उत्तम नामों को (वि भेजिरे) योगीजन फैला देते हैं। (२) उत्तरदिशा से वह लाया जाता है, उत्तरदिशा में इसकी अनेक नाम रूप और जातियां हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनः कुष्ठो देवताः। १-४, ७, ९ अनुष्टुभः। ५ भुरिक्, ६ गायत्री। १० उष्णिग्गर्भा निचृत्। दशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kushtha Oshadhi

    Meaning

    Rising and growing from snowy mountains, it is brought to the people in the east where they distinguish its different names and best qualities and benefit from it.

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    Translation

    Grown in the north on the snowy mountain, you are carried east-ward to the people. There the kustha medicine comes to be used under various celebrated names.

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    Translation

    This Kustha springs up from the northward snowy hill and is brought for the use of the men in the east. The People distinguish between the good name and place of this Kustha.

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    Translation

    O God, Thou art realized on the lofty snowy mountain. When Thou revealest Thyself in the heart of a Yogi, Thou art spread by him in all directions. The yogis diffuse in the world the manifold, excellent names of God!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(उदङ्) ऊर्ध्वं पदं गतः (जातः) प्रादुर्भूतः (हिमवतः) म० २ उद्योगिनः पुरुषात् (सः) स त्वम् (प्राच्याम्) प्रकृष्टायां गत्याम् (नीयसे) प्राप्यसे (जनम्) लोकं प्रति (तत्र) जनसमूहे (कुष्ठस्य) म० १। गुणपरीक्षकस्य पुरुषस्य (नामानि) यशांसि (उत्तमानि) श्रेष्ठानि (वि) विविधम् (भेजिरे) भज सेवायाम्−लिट्। सेवितवन्तः ॥

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