अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 7
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वास्तोष्पतिः
छन्दः - विराडुष्णिग्बृहतीगर्भा पञ्चपदा जगती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
86
सूर्यो॑ मे॒ चक्षु॒र्वातः॑ प्रा॒णो॒न्तरि॑क्षमा॒त्मा पृ॑थि॒वी शरी॑रम्। अ॒स्तृ॒तो नामा॒हम॒यम॑स्मि॒ स आ॒त्मानं॒ नि द॑धे॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्यां॑ गोपी॒थाय॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसूर्य॑: । मे॒ । चक्षु॑: । वात॑: । प्रा॒ण: । अ॒न्तरि॑क्षम् । आ॒त्मा । पृ॒थि॒वी । शरी॑रम् । अ॒स्तृ॒त: । नाम॑ । अ॒हम् । अ॒यम्। अ॒स्मि॒ । स: । आ॒त्मान॑म् । नि । द॒धे॒ । द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म् । गो॒पी॒थाय॑ ॥९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यो मे चक्षुर्वातः प्राणोन्तरिक्षमात्मा पृथिवी शरीरम्। अस्तृतो नामाहमयमस्मि स आत्मानं नि दधे द्यावापृथिवीभ्यां गोपीथाय ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्य: । मे । चक्षु: । वात: । प्राण: । अन्तरिक्षम् । आत्मा । पृथिवी । शरीरम् । अस्तृत: । नाम । अहम् । अयम्। अस्मि । स: । आत्मानम् । नि । दधे । द्यावापृथिवीभ्याम् । गोपीथाय ॥९.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
पदार्थ
(मे) मेरा (चक्षुः) नेत्र (सूर्यः) सूर्य [के सदृश प्रकाशमान], (प्राणः) प्राण (वातः) वायु [के समान चलनेवाला], (आत्मा) आत्मा (अन्तरिक्षम्) मध्य लोक [के समान मध्यवर्ती], (शरीरम्) शरीर (पृथिवी) पृथिवी [के समान सहनशील] है। (अयम्) यह (अहम्) मैं (अस्तृतः) विना ढका हुआ (नाम) प्रसिद्ध (अस्मि) हूँ। (सः अहम्) वह मैं (आत्मानम्) अपना आत्मा (द्यावा-पृथिवीभ्याम्) सूर्य और पृथिवी को (गोपीथाय) रक्षा [अथवा पृथिवी, इन्द्रिय आदि की रक्षा] के लिये (नि) नित्य (दधे) देता रहता हूँ ॥७॥
भावार्थ
योगी जन विद्याभ्यास और तपोबल से संसार के सब तत्त्वों से उपकार लेकर संसार की रक्षा करते हैं ॥७॥
टिप्पणी
७−(सूर्यः) सूर्यवत् प्रकाशनमस्ति (मे) मम (चक्षुः) नेत्रम् (वातः) वायुः। वायुसदृशप्रगमनः (प्राणः) (अन्तरिक्षम्) द्यावापृथिव्योर्मध्ये वर्तमानोऽवकाशतुल्यः (पृथिवी) भूमिवत् सहनशीलम् (शरीरम्) देहः (अस्तृतः) स्तृञ् आच्छादने-क्त। अनाच्छादितः (नाम) प्रसिद्धौ (अयम्) (अस्मि) (सः) सोऽहम् (आत्मानम्) आत्मसामर्थ्यम् (नि) नित्यम् (दधे) ददामि (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्यभूमिभ्याम्। तदुपलक्षितसर्वलोकाय (गोपीथाय) निशीथगोपीथावगथाः। उ० २।९। इति गुपू रक्षणे-थक् निपातनात् साधुः। रक्षणाय। यद्वा गो+पा रक्षणे-थक्, निपातनादीत्वम्। पृथिवीन्द्रियादीनां रक्षणाय-इति दयानदभाष्ये, ऋ० १।१९।१ ॥
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
भाषार्थ सूर्य देव हमारे नेत्र हैं वायुदेव प्राण हैं अन्तरिक्ष देव आत्मा और पृथ्वी शरीर हैं। यह हम अमर नाम वाले द्यावा पृथिवी संरिक्षत होने के लिए हम अपनी आत्मा को उनके आश्रित करते हैं।
शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज
मानव के नेत्र किसके प्रकाश से प्रकाशित होता है तो उत्तर मिलता है कि नाना तारामण्डलों के, तो नाना तारामण्डलों का विज्ञान समाहित हो जाता है आगे पुनः प्रश्न कर रहा है क्या नेत्र किसके प्रकाश में तो उत्तर देता है अग्नि का प्रकाश तो अग्नि की जितनी तरंगें हैं चाहे वह सूर्य मण्डल में हैं चाहे वह बृहस्पति में है चाहे वह मंगल में हैं चाहे वह आरुणी में हैं चाहे वह सौर मण्डलों में गति कर रही हैं परन्तु वह सर्वत्र विज्ञान उसके समीप आ जाता है तो इन्द्रियों मंव समाहित रहने वाला विज्ञान है परन्तु उससे प्रश्न किया जाता है क्या किसके प्रकाश में तो कहता है यहां नेत्रों का विषय समाप्त हो गया है यहां शब्द का विषय आ जाता है शब्द के प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है अरे भोले प्राणी! जब तू अपनी अन्तरात्मा के नेत्रों के साक्षात्कार नही कर पाता तो प्रभु को कैसे साक्षात्कार कर पायेगा परन्तु जिस हृदय रूपी गुफा में रहने वाला आत्मा विद्यमान हैं परन्तु एक दूसरे विज्ञान से गुथा हुआ है
परन्तु रहा यह वाक् हम प्रभु को साक्षात्कार करना चाहते हैं कैसे कर पायें जब तक हम अपनी आत्मा को साक्षात्कार नही कर पायेंगें वह केवल आत्मा का भी अनुभव का विषय है ओर प्रभु का अनुभव का विषय है नेत्रों से कोई साक्षात्कार नही कर पाया आज तक, तो संसार का कोई प्राणी ऐसा नही हुआ है यह विज्ञान तो एक खिलवाड़ है प्रकृति का यह विज्ञान क्या है आध्यात्मिकवेत्ता कहते हैं कि यह तो खिलवाड़ हैं यह तो हम आत्मा का इन्द्रियों का विषय है यह जो ब्रह्माण्ड की पिण्ड की कल्पना करने वाला मानव है पिण्ड ओर ब्रह्माण्ड की दोनों की कल्पना करने वाला हैं एक मानव प्राणायाम कर रहा है एक मानव प्राण को जान रहा है हमारे इस मानव शरीर में दस प्राण है प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान मुनिवरों! नाग, देवदत, धनंजय, कुरू कृकल यह दस प्राण कहलाते हैं इस सर्वत्र विज्ञान पांचों इन दसों प्राणों की गतियों में रमण कर रहा है जो मानव के शरीर में निहित रहते हैं जितना भी प्रकृति का ,पांचों गतियों में गति करने वाला गतिशील हो रहा है
इन्द्रियों में जो समाहित रहने वाला है वह इन्द्रियों का विषय है इन्द्रियों में समाहित रहता है वह प्रकृतिवाद का मानो वर्णन कर रहा है परन्तु जहां आत्मा का प्रसंग आता है आत्म चेतना है परन्तु इतना उच्चारण कर रहा है उससे स्वरूप को किसी ने दृष्टिपात नही किया उसका कैसा स्वरूप है आत्मा अणु ओर विभु में दोनों में इसके स्वरूप में वर्णन करने वाले आदि ऋषियों ने अपना अपना मन्तव्य दिया है
शब्द को कौन श्रवण कर रहा है अनहाद किसे कहते हैं जिसे स्पर्श ध्वनि कहते हैं आदि ब्रह्मा ने जब सृष्टि के प्रारम्भ में व्याकरण को जानने का प्रयास किया तो यह जो अनहाद इसमें जो स्वर ध्वनि होती हैं इस ध्वनि के शब्दों को ले करके व्याकरण के रूपों में परिणत किया है।
इसी ध्वनि को ले करके, इसी से मानव बाह्य जगत में नाना प्रकार के स्वरों की रचना करता है व्यंजनों में रमण करने लगता है उसी ध्वनि को अपने शब्दों में परिवर्तित कर लेते हैं यह शब्द कहां से आता है इसका समन्वय अन्तरिक्ष से रहता है इसका समन्वय मानव के ब्रह्मरन्ध्र से रहता है तो शब्दों का जो समन्वय अथवा सम्बन्ध है वह ब्रह्मरन्ध्र से कहलाता है ऋषियों ने कहा इसका आंकुचन करो ऋषि मुनियों ने इसको आंकुचन किया, आंकुचन करके इसको अन्तर्हृदय में अन्तर्हृदय रूपी गुफा में इसका अनुसन्धान करने लगे आगे रसना पर चले गये रसना में जो नाना प्रकार के स्वादन होते है। यह पंच रस कहलाते हैं इन रसों का स्वादन लेने वाली कौन निर्णय कर रहा है वह रसना है रसना का समन्वय जलों से होता हैं यह जल ही नाना प्रकार का रस समाहित रहता है इन रसों का सम्बन्ध ही चन्द्रमा से होता है चन्द्रमा से रस आता रहता है उसको यह पान करता रहता है वही रस नाना प्रकार की वनस्पतियों में रहता है वनस्पतियों को पान करती रहती हैं उन्हीं नाना प्रकार की औषधियों के रूप में वनस्पतियों में ऋषि मुनियों ने रसना से ले करके इनको आयुर्वेद का निकास किया है प्रत्येक मानव वनस्पति को रसना से जान जान करके नाना प्रकार की औषधियों का मिलान किया है अब ऋषियों ने उन्होंने विचारा कि इसको भी आंकुचन करो अब इसको आंकुचन कर लिया आंकुचन करके इसको भी हृदय में समाहित कर लिया तो इसी प्रकार त्वचा का आया, वायु में रमण करने वाला जो प्राण है इसका समन्वय त्वचा से रहता है यह त्वचा के ऊपर अनुसन्धान किया ओर व्यापक रूप में ले गये जिसमें विज्ञान था संसार के जितने भी स्पर्श क्रिया हैं वह अग्नि से ले करके शीतलता क्या जितने भी स्पर्श हैं वह त्वचा को समाहित हो गये इसको जाना जानने के पश्चात, इन सबको आंकुचन की सामग्री बनाई गई ऋषि मुनियों ने जो आत्मा का याग करने वाले थे आध्यात्मिक याग करने वाले जो मृत्यु को विजय करना चाहते हैं उन्होंने इसका साकल्य बनाया सामग्री बनाई इन सर्वत्र विषयों कजो जान करके साकल्य बना करके हृदय रूपी यज्ञशाला में आहुति देने लगे ओर वह जो आहुति देने लगे उसमें जो परमानन्द प्राप्त हो रहा था जिसमें जिस पिपासा में यह अन्तरात्मा लगा हुआ है वह आनन्द की पिपासा में वह जो आनन्द है वह नेत्रों से साक्षात्कार नही किया जाता है।
विषय
अस्तृत
पदार्थ
१. यह ब्रह्मा विराट् शरीर से अपने शरीर को उपमित करता हुआ कहता है कि (सूर्यः मे चक्षु:) = सूर्य ही मेरी आँख है-सूर्य ही तो चक्षु का रूप धारण करके मेरी आँखों में रह रहा है। (वातः प्राण:) = वायु ही प्राणरूप से मुझमें निवास करता है। (आत्मा) = मेरा मन (अन्तरिक्षम) = विराट शरीर का अन्तरिक्ष है-'अन्तरा क्षि' सदा मध्यमार्ग में चलने की वृत्तिवाला है। मेरा शरीरम् शरीर (पृथिवी) = पृथिवी के समान दृढ़ है। २. (अयम् अहम्) = यह मैं (अस्तृत: नाम अस्मि) = अहिंसित नामवाला हूँ। [स्तु-tokill] विनाश से मैं परे हैं। (स:) = वह मैं (आत्मानम) = अपने को (द्यावापृथिवीभ्याम् निदधे) = धुलोक व पृथिवीलोक के प्रति अर्पित करता हूँ-'द्यौष्पिता पृथिवी माता'-द्युलोक ही मेरा पिता है, पृथिवीलोक माता। ये दोनों मेरा रक्षण करते हैं। माता-पिता पुत्र का रक्षण करते ही हैं। इसप्रकार मैं (गोपीथाय) = इन्द्रियरूप सब गौओं के रक्षण के लिए समर्थ होता हैं।
भावार्थ
सूर्यादि सब देवों का मेरे शरीर में निवास है। मैं अमर हूँ। घुलोक व पृथिवी लोक मेरे पिता-माता हैं। ये मेरा रक्षण करते हैं और मैं इन्द्रियों के रक्षण में समर्थ होता हूँ।
भाषार्थ
(सूर्यः, मे, चक्षुः) सूर्य, मेरी चक्षु है, (वात:) वायु (प्राण:) प्राण है, श्वास-प्रश्वास है, (अन्तरिक्षम् आत्मा) अन्तरिक्ष आत्मा है, (पृथिवी शरीरम्) पृथिवी शरीर है। (अहम् अस्तृतः नाम ) मैं "अवध्य" नाम, (अयम्) यह (अस्मि ) हो गया हूँ, (सः) वह मैं (आत्मानम् ) निज आत्मा को (द्यावापृथिवीभ्याम् ) द्युलोक और पृथिवीलोक के लिए, (गोपीथाय) रक्षार्थ (निदधे) निधिरूप करता हूँ।
टिप्पणी
[मन्त्र में प्रत्यवरोह क्रम से "सूर्य, अन्तरिक्ष और पृथिवी" का वर्णन हुआ है। मन्त्र में वक्ता ने निज विश्ववायिकस्वरूप का कथन किया है। आरोहक्रम से निज को पृथिवी, अन्तरिक्ष और दिव में विलीन कर, वह विश्वरूप होकर विशुद्ध हो गया है । तदनन्तर वह पुनः निज अल्पकायिक शरीर में अवतीर्ण कर, निज को "आत्मा" के रूप में "अवध्य" जानकर, "आत्मा" को द्यावापृथिवी के प्रतिनिधिरूप में सुरक्षार्थ उपस्थित कर देता है। अस्तृतः =अ + "स्तृणाति वधकर्मा" (निघं० २।१९)।]
विषय
स्वास्थ्य लाभ का उपाय।
भावार्थ
मनुष्य अपने शरीर की प्रजापति के विराट् शरीर से तुलना करता है। (सूर्यः मे चक्षुः) जैसे प्रजापति के शरीर में विशाल तेज:-पुञ्ज सूर्य है उसी प्रकार यह मेरे शरीर में चक्षु भी तेजोविकार है, वह सब पदार्थों का प्रत्यक्ष कराती और सूर्य के अंश से जीवित है। (वातः प्राणः) जिस प्रकार विशाल ब्रह्माण्ड में यह वायु गति करता है उसी प्रकार मेरे देह में उसी का अंश यह प्राण है। (अन्तरिक्षम् आत्मा) जिस प्रकार विराट् शरीर में अन्तरिक्ष अर्थात् आकाश वा ज्ञान वाला परमात्मा वास करता है उसी प्रकार मेरे इस शरीर में मध्यभाग वा आत्मा वास करता है। (पृथिवी शरीरम्) जिस प्रकार विराट् शरीर में पृथिवी है उसी प्रकार यह मेरा अधः शरीर चरण भाग है। (अयम्) यह (अहम्) मैं जीवात्मा (अस्तृतः) कभी भी न मरने वाला, अमर हूं (सः) वह मैं (गोपीथाय) रक्षा के लिये (द्यावापृथिवीभ्यां) पिता तथा मातृरूप परमात्मा के प्रति (आत्मानं) अपने आप को सुपुर्द करता हूं, सौंपता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। वास्तोष्पतिर्देवता। १, ५ देवी बृहत्यौ। २, ६ देवीत्रिष्टुभौ। ३, ४ देवीजगत्यौ। ७ विराडुष्णिक् बृहती पञ्चपदा जगती। ८ पुराकृतित्रिष्टुप् बृहतीगर्भाचतुष्पदा। त्र्यवसाना जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Well Being of Body and Soul
Meaning
The sun is my eye, wind my prana, vast skies my spirit, earth my body and stability. Unfallen, undefeated, unsurpassed,, free am I, the soul, which I offer and surrender to heaven and earth as to my father and mother for the sake of protection and sustenance.
Translation
The sun is my vision, the wind my breath, the atmosphere my soul and the earth my body. Here, I am ever unconquered. As such, I place myself under the care of heaven and earth for protection.
Translation
The sun is my eye, i.e., the sun is the centre from which light proceeds and enable our eye-powers to see. The air is my breath i.e. the air outsides is the cause of our internal breathing and life in the form of vital airs. The atmosphere is my soul i.e. the source of life. The earth is my body, i.e. the earth forms greater part of our bodily construction I am surely the spirit which is never covered with with these physical elements. I for preserving my organs surrender myself to celestial and terrestrial bodies of the nature.
Translation
My eye is brilliant like the Sun. My breath is ever moving like the air. My soul resides in the body as sky in space. My body is full of endurance like the Earth. I am immortal. I hand over myself to my father and mother for safety.
Footnote
‘I’ means the soul.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(सूर्यः) सूर्यवत् प्रकाशनमस्ति (मे) मम (चक्षुः) नेत्रम् (वातः) वायुः। वायुसदृशप्रगमनः (प्राणः) (अन्तरिक्षम्) द्यावापृथिव्योर्मध्ये वर्तमानोऽवकाशतुल्यः (पृथिवी) भूमिवत् सहनशीलम् (शरीरम्) देहः (अस्तृतः) स्तृञ् आच्छादने-क्त। अनाच्छादितः (नाम) प्रसिद्धौ (अयम्) (अस्मि) (सः) सोऽहम् (आत्मानम्) आत्मसामर्थ्यम् (नि) नित्यम् (दधे) ददामि (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्यभूमिभ्याम्। तदुपलक्षितसर्वलोकाय (गोपीथाय) निशीथगोपीथावगथाः। उ० २।९। इति गुपू रक्षणे-थक् निपातनात् साधुः। रक्षणाय। यद्वा गो+पा रक्षणे-थक्, निपातनादीत्वम्। पृथिवीन्द्रियादीनां रक्षणाय-इति दयानदभाष्ये, ऋ० १।१९।१ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal