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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 132 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 132/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - त्रिपदा विराण्महाबृहती सूक्तम् - स्मर सूक्त
    43

    यमि॑न्द्रा॒ग्नी स्म॒रमसि॑ञ्चताम॒प्स्वन्तः शोशु॑चानं स॒हाध्या। तं ते॑ तपामि॒ वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । स्म॒रम् । असि॑ञ्चताम् । अ॒पऽसु । अ॒न्त: । शोशु॑चानम् । स॒ह । आ॒ध्या । तम् । ते॒ । त॒पा॒मि॒ । वरु॑णस्य । धर्म॑णा ॥१३२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमिन्द्राग्नी स्मरमसिञ्चतामप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या। तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । इन्द्राग्नी इति । स्मरम् । असिञ्चताम् । अपऽसु । अन्त: । शोशुचानम् । सह । आध्या । तम् । ते । तपामि । वरुणस्य । धर्मणा ॥१३२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 132; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्राग्नी) बिजुली और भौतिक अग्नि ने (अप्सु अन्तः) प्रजाओं के बीच (आध्या सह) ध्यान शक्ति के साथ (शोशुचानम्) अत्यन्त प्रकाशमान (यम् स्मरम्) जिस स्मरण सामर्थ्य को (असिञ्चताम्) सींचा है, (तम्) उस [स्मरण सामर्थ्य] को... म० १ ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे बिजुली और अग्नि के नित्य सम्बन्ध से वृष्टि प्रकाशादि द्वारा, संसार में होती है, वैसे ही मनुष्य विद्या द्वारा परस्पर उपकार करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(इन्द्राग्नी) विद्युत्पावकौ (असिञ्चताम्) अवर्धयताम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    देवा, विश्वेदेवाः, इन्द्राणी, इन्द्राग्नी, मित्रावरुणौ

    पदार्थ

    १. (यं स्मरम) = जिस काम को (देवा:) = वासनाओं को जीतने की कामनावाले ज्ञानी लोग (असिञ्चन्) = अपने हृदय में सिक्त करते हैं, (ते) = तेरे लिए भी (तम्) = उस काम को वरुणस्य (धर्मणा) = पापों से निवृत्त करनेवाले प्रभु के धारण के द्वारा (तपामि) = उज्ज्वल बनाता हूँ। सामान्यत: 'काम' वासना का रूप ले-लेता है और यह वासनात्मक काम (आध्या सह) = [कामो गन्धर्वः, तस्याधयोऽप्सरस:-तै० ३.४.७.३] मानस पीड़ारूप अपनी पत्नी के साथ (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं में (शोशचानम्) = अतिशयेन विरहाग्नि से गात्रों को सन्तप्त करनेवाला होता है। यही काम वरुण के धारण से-प्रभु-स्मरण से पवित्र व उज्ज्वल होकर सन्तान को जन्म देनेवाला होता है। [धर्माविरुद्धा कामोऽस्मि भूतेषु भरतर्षभ, प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः]। देवलोग इसी काम को अपने हृदय में सिक्त करते हैं। २. इसीप्रकार (यं स्मरम्) = जिस काम को (विश्वेदेवाः) = देववृत्ति के सब पुरुष अपने में (असिञ्चत्) = सिक्त करते हैं, (यं स्मरम्) = जिस काम को (इन्द्राणी) = इन्द्रपत्नी जितेन्द्रिय पुरुष की आत्मशक्ति (असञ्चत्) = अपने में सिक्त करती हैं और (यं स्मरम्) = जिस काम को (इन्द्राग्नी) = शत्रुविद्रावक व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले पुरुष (असिञ्चताम्) = अपने में सिक्त करते हैं और (यं स्मरम्) = जिस काम को (मित्रावरुणौ) = प्राण-अपान की साधना करनेवाले पुरुष (असिञ्चताम्) = अपने में सिक्त करते हैं, तेरे लिए भी उस काम को प्रभु-स्मरण द्वारा उज्ज्वल बनाता है।

    भावार्थ

    सामान्य: 'काम' वासना का रूप धारण करके मानस पीड़ा से मनुष्य को विरहाग्नि में सन्तप्त करनेवाला बनता है, परन्तु यदि हम 'देव, विश्वेदेवा, इन्द्राणी, इन्द्राग्नी व मित्रावरुणौ' के समान काम को अपने हृदयों में सिक्त करेंगे तो यह काम प्रभु-स्मरण के द्वारा पवित्र बना रहेगा और सन्तति को जन्म देनेवाला होगा। कामवासना को जीतने का उपाय यही है कि हम ज्ञानी बनें [देवाः], देववृत्ति के बनने का यत्न करें [विश्वेदेवाः], आत्मिक शक्ति का वर्धन करें [इन्द्राणी], जितेन्द्रिय व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले हों [इन्द्राग्नी] और प्राणायाम द्वारा प्राणापान की साधना करें [मित्रावरुणी]।

     

    विशेष

    'काम'-बासना को जीतनेवाला यह व्यक्ति सब अविद्याओं व पापों का विध्वंस करनेवाला 'अग-स्त्य' बनता है। यह पाप को पराजित करने के लिए ही मेखला धारण करता है-कटिबद्ध होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।

     

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    भाषार्थ

    (इन्द्राग्नी) इन्द्र अर्थात् जीवात्मा पर उसकी अग्नि अर्थात् ज्ञानाग्नि। जीवात्मा की राजस और तामस ज्ञानाग्नियां शरीर में स्मर का सञ्चार करती हैं। शेष पूर्ववत् मन्त्र (१)

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    विषय

    प्रेम के दृढ़ करने का उपदेश।

    भावार्थ

    (इन्द्राग्नी यम् स्मरम्० इत्यादि) इन्द्र = परमेश्वर और अग्नि आचार्य जिस परस्पराभिलाषा को मानस पीड़ा के सहित प्रजाओं के हृदयों में उत्पन्न करते हैं और उसको दृढ़ करते हैं उसको मैं वरुण अर्थात् राजा के कानून से और भी दृढ करूँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। १ त्रिपदानुष्टुप्। ३ भुरिग्। २, ४, ५ त्रिपदा महा बृहत्यः। १, ४ विराजौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Love and Memory

    Meaning

    That smara, divine love and intimations of universal knowledge and wisdom, enlightening, purifying and elevating, which Indragni, powers of law, governance and national defence, and the leading lights of knowledge, education and culture, poured into the mind and faculties of the nation’s perception, thought and action with reflection, analysis and judgement of situations, that same love and universal wisdom I develop and refine with the discipline and Dharma of Varuna, lord of universal watch, judgement and dispensation.

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    Translation

    The passionate love, which the Lord resplendent and adorable, has poured into waters (i.e. semen), burning fiercely and accompanied by pains of longing - that I heat up for you, according to the law of the venerable Lord (Law-maker).

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    Translation

    O wife or husband! I, the either of married dual heat up with the restrain of Varuns, the All-protecting Divinity your that philter which is burning and yearning and is poured down into the waters or the worldly subjects with its consequent troubles by the mighty vigor and heat of the body.

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    Translation

    I develop in thee through God's law, the brilliant power of recollection, which electricity and fire have developed in the people through their proper application.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(इन्द्राग्नी) विद्युत्पावकौ (असिञ्चताम्) अवर्धयताम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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