अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 138/ मन्त्र 5
ऋषिः - अथर्वा
देवता - नितत्नीवनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - क्लीबत्व सूक्त
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यथा॑ न॒डं क॒शिपु॑ने॒ स्त्रियो॑ भि॒न्दन्त्यश्म॑ना। ए॒वा भि॑नद्मि ते॒ शेपो॒ऽमुष्या॒ अधि॑ मु॒ष्कयोः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । न॒डम् । क॒शिपु॑ने । स्रिय॑: । भि॒न्दन्ति॑ । अश्म॑ना । ए॒व । भि॒न॒द्मि॒ । ते॒ । शेप॑: । अ॒मुष्या॑: । अधि॑ । मु॒ष्कयो॑: ॥१३८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा नडं कशिपुने स्त्रियो भिन्दन्त्यश्मना। एवा भिनद्मि ते शेपोऽमुष्या अधि मुष्कयोः ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । नडम् । कशिपुने । स्रिय: । भिन्दन्ति । अश्मना । एव । भिनद्मि । ते । शेप: । अमुष्या: । अधि । मुष्कयो: ॥१३८.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
निर्बलता हटाने का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (स्त्रियः) स्त्रियाँ (नडम्) नरकट घास आदि को (कशिपुने) अन्न वा वस्त्र के लिये (अश्मना) पत्थर से (भिन्दन्ति) तोड़ती हैं। (एव) वैसे ही (ते) तेरे लिये (अमुष्याः) उस [नीरोग नाडी] से अलग (मुष्कयोः) दोनों अण्डकोशों के (शेपः) रोग बल को (अधि) अधिकार के साथ (भिनद्मि) मैं तोड़ता हूँ ॥५॥
भावार्थ
जैसे किसी तृण में से अन्न वा वस्त्र की सार वस्तु बचाकर अभीष्ट भाग को तोड़ डालते हैं, वैसे ही चिकित्सक लोग मर्म स्थल को छोड़कर रोगकारक नाड़ी को छेदकर स्वस्थ करें ॥५॥
टिप्पणी
५−(यथा) येन प्रकारेण (नडम्) तृणम् (कशिपुने) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। इति कश गतिशासनयोः−कु, निपातनात् साधुः। अन्नाय वस्त्राय वा−अमर० २३।१३०। (स्त्रियः) (भिन्दन्ति) आघ्नन्ति (अश्मना) पाषाणेन (एव) एवम् (भिनद्मि) (ते) तुभ्यम् (शेपः) रोगबलम् (अमुष्याः) तस्या नीरोगाया नाड्याः (अधि) अधिकृत्य (मुष्कयोः) अण्डकोशयोः ॥
विषय
विषय-उन्माद निरास
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (स्त्रिय:) = स्त्रियाँ (कशिपुने) = [कटं निर्मातुम्] चटाई बनाने के लिए (नडम्) = नरकट घास को-तृणविशेष को (अश्मना भिन्दन्ति) = पत्थर से विदीर्ण करती [कुटती] है, (एव) = इसीप्रकार (अधिमष्कयो:) = अण्डकोशों के ऊपर (ते शेप:) = तेरी जननेन्द्रिय को (अमुष्याः भिनधि) = उस स्वस्थ नाड़ी से अलग विदीर्ण करता हूँ। इसप्रकार विषयोन्माद को समाप्त करके वैद्य रुग्ण पुरुष को स्वस्थ व सबल बनाने का यत्न करे।
भाषार्थ
(स्त्रियः) स्त्रियां (यथा) जैसे (कपिशुने) चटाई के लिये (अश्मना) पत्थर द्वारा (नडम्) नड़ का (भिन्दन्ति) भेदन करती हैं, (एव) इसी प्रकार (अमुष्याः अधि) उस शिला पर स्थापित (मुष्कयोः) दो अण्डों में संलग्न (ते शेपः) तेरी प्रजननेन्द्रिय का (भिनद्मि) मैं भेदन करता हूं [अश्मना]।
टिप्पणी
[मन्त्र २ में ग्रावभ्याम् द्वारा दो पत्थर कहे हैं, एक पत्थर है शिला, और दूसरा है अश्मा।]
विषय
व्यभिचारी को नपुंसक करने के उपाय।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (स्त्रियः) स्त्रियां (कशिपुने) चटाई बनाने के लिये (अष्मना) पत्थर से (नडं) नरकुल के नड़े को (भिन्दन्ति) कूट कर नर्म कर लेती हैं (एवा) उसी प्रकार (अमुष्य ते) अमुक पशु रूप (ते) तेरे (मुष्कयोः अधि) अण्डकोशों के ऊपर के (शेपः) प्रजनन इन्द्रिय को (भिनद्मि) कुचल डालूं। व्यभिचारी तथा अतिकामी मनुष्य राष्ट्र की वर्तमान तथा आगामी सन्तति पर बुरा प्रभाव न डाल सकें इसलिये वेद ने ऐसे पुरुषों के लिये उपचार इन मंत्रों में दर्शाये हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
क्लीवकर्तुकामोऽथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-२ अनुष्टुभौ। ३ पथ्यापंक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure for Impotency
Meaning
Just as women beat the ‘nada’ grass with stone for cover, so do I open the seminal passage of your organ above the seminal glands beside the sexual nerve.
Translation
Just as women-folk crash a reed with a stone for making a mat, even so I crush your male organ (Sepah), placed just above the two testicles (muskayoh) on this stone with this stick.
Translation
O patient! As the women make tender the stalk of separate and Nad, a grass with the stones for the Purposed mat-maker in the same way I, the expert of surgery Operate upon your organ which is above your testicles beside this nerve of vital part.
Translation
Just as women split the reeds with stone for making a mat, so do I, leaving aside the healthy vein, remove the ferocity of disease in the penis above the testicles.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(यथा) येन प्रकारेण (नडम्) तृणम् (कशिपुने) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। इति कश गतिशासनयोः−कु, निपातनात् साधुः। अन्नाय वस्त्राय वा−अमर० २३।१३०। (स्त्रियः) (भिन्दन्ति) आघ्नन्ति (अश्मना) पाषाणेन (एव) एवम् (भिनद्मि) (ते) तुभ्यम् (शेपः) रोगबलम् (अमुष्याः) तस्या नीरोगाया नाड्याः (अधि) अधिकृत्य (मुष्कयोः) अण्डकोशयोः ॥
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