Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 49 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गार्ग्य देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - अग्निस्तवन सूक्त
    47

    सु॑प॒र्णा वाच॑मक्र॒तोप॒ द्यव्या॑ख॒रे कृष्णा॑ इषि॒रा अ॑नर्तिषुः। नि यन्नि॒यन्ति॒ उप॑रस्य॒ निष्कृ॑तिं पु॒रू रेतो॑ दधिरे सूर्यश्रितः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप॒र्णा: । वाच॑म् । अ॒क्र॒त॒ । उप॑ । द्यवि॑ । आ॒ऽख॒रे । कृष्णा॑: । इ॒षि॒रा: । अ॒न॒र्ति॒षु॒: । नि । यत् । नि॒ऽयन्ति॑ । उप॑रस्य । नि:ऽकृ॑तिम् । पु॒रु । रेत॑: । द॒धि॒रे॒ । सू॒र्य॒ऽश्रित॑: ॥४९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णा वाचमक्रतोप द्यव्याखरे कृष्णा इषिरा अनर्तिषुः। नि यन्नियन्ति उपरस्य निष्कृतिं पुरू रेतो दधिरे सूर्यश्रितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽपर्णा: । वाचम् । अक्रत । उप । द्यवि । आऽखरे । कृष्णा: । इषिरा: । अनर्तिषु: । नि । यत् । निऽयन्ति । उपरस्य । नि:ऽकृतिम् । पुरु । रेत: । दधिरे । सूर्यऽश्रित: ॥४९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रलय और सृष्टिविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्यश्रितः) सूर्य में ठहरी हुई (सुपर्णाः) अच्छे प्रकार पालन करनेवाली वा बड़ी शीघ्रगामी किरणों ने (आखरे) खननयोग्य (द्यवि) अन्तरिक्ष में (उप=उपेत्य) मिलकर (वाचम्) शब्द (अक्रत) किया, और (कृष्णाः) रस खैंचनेवाली (इषिराः) चलनेवाली [उन किरणों] ने (अनर्त्तिषुः) नृत्य किया। (यत्) जब वे (उपरस्य) मेघ की (निष्कृतिम्) रचना की ओर (नि) नियम से (नियन्ति) झुकती हैं, [तब] उन्होंने (पुरु) बहुत (रेतः) वृष्टि जल (दधिरे) धारण किया है ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की महिमा से सूर्य की किरणें विशाल आकाश में शब्द करके पार्थिव रस को खींचकर इधर-उधर चेष्टा करती हैं। उससे मेघ, मेघ से वृष्टि होकर संसार का उपकार करती हैं। इसी प्रकार प्रलय के पीछे सृष्टि और सृष्टि के पीछे प्रलय होती है ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १०। सू० ९४ म० ५ ॥

    टिप्पणी

    ३−(सुपर्णाः) अ० १।२४।१। सुपालकाः। शोभनपतनाः किरणाः (वाचम्) शब्दम् (अक्रत) करोतेर्लुङि। मन्त्रे घसह्वरणश०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। अकृषत। कृतवन्तः (उप) उपेत्य (द्यवि) गमेर्डोसिः। उ० २।६९। इति द्युत दीप्तौ−डोसि। द्योतते द्यौः। अन्तरिक्षे (आखरे) डरो वक्तव्यः। वा० पा० ३।३।१२५। इति आङ्+खनु अवदारणे−डर। समन्तात् खननीये (कृष्णाः) अ० ५।२३।५। रसानामाकर्षकाः (इषिराः) अ० ५।१।९। गमनशीलाः (अनर्तिषुः) नृती गात्रविनामे−लुङ्। नृत्यन्ति स्म। चेष्टां कृतवन्तः (नि) नियमेन (यत्) यदा (नियन्ति) नीचैः प्राप्नुवन्ति (उपरस्य) म० २। उपर उपलो मेघो भवत्युपरमन्तेऽस्मिन्नभ्राण्युपरता आप इति वा−निरु० २।२१। मेघस्य (निष्कृतिम्) अ० ४।२७।६। निर्माणम् (उरु) बहुलम् (रेतः) अ० २।–२८।५। जलम्−निघ० १।१२। (दधिरे) धृतवन्तः (सूर्यश्रितः) श्रिञ्−सेवायाम्−क्विप्। सूर्यं प्राप्ताः किरणाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सुपर्णा

    पदार्थ

    १.(सुपर्णा:) = गतमन्त्र में वर्णित उत्तमता से अपना पालन व पूरण करनेवाले लोग (उप द्यवि वाचम् अक्रत) = उस ज्योतिर्मय प्रभु के समीप आसीन हुए-हुए स्तुति-वाणियाँ बोलते हैं। (आखरे) = अपने निवास स्थान में (कृष्णा:) =  अच्छाइयों को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाले (इषिरा:) = ये गतिशील व्यक्ति (अनिर्तिषुः) = अपने कर्त्तव्यकों में नृत्य करते हैं-प्रभु की उपासना के द्वारा अपने जीवन को उत्तम बनाते हुए ये सदा गतिशील होते हैं। २. (यत्) = जब ये (नि) = निश्चय से यज्ञों के द्वारा (उपरस्य) = मेष की (निष्कृतिम्) = उत्पत्ति [सम्पादन] को (नियन्ति) = प्राप्त होते हैं, तब ये (सूर्यश्रित:) = ज्ञान के सूर्य का सेवन करनेवाले उपासक (पुरु) = पालन व पूरण करनेवाले (रेत:) = शक्तिकणों को (दधिरे) = धारण करते हैं। यज्ञों द्वारा ये मेघों की उत्पत्ति का कारण बनते हैं और ज्ञान-प्रधान जीवन बिताते हुए शक्ति-कणों को अपने अन्दर धारण करते हैं।

    भावार्थ

    हम उत्तमता से अपना पालन व पूरण करें-प्रभु की उपासना करें-कर्त्तव्यकर्मों में लगे रहें। यज्ञों के द्वारा मेघों के निर्माण में भागी बनें। ज्ञान-साधना में प्रवृत्त हुए-हुए शक्ति का रक्षण करें।

    विशेष

    इस सक्त का 'गाय:' चूहों आदि से यव-क्षेत्रों का रक्षण करता हुआ तथा यवादि सात्त्विक अन्नों का भोजन करता हुआ 'अथर्वा' बनता है और प्रार्थना करता है कि -

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (सुपर्णाः) सुपतनशील अथवा उत्तमपालक सूर्य की रश्मियां (वाचम्, अक्रत) ध्वनियों की उत्पन्न करती हैं (उप द्यवि) समीप के द्युलोक में; (कृष्णाः) कृष्णवर्ण वाली या आकर्षण गुण वाली रश्मियाँ (इषिराः) गतिशील हुई (आखरे) अन्तरिक्ष में (अनर्तिषुः) नाच करती हैं। सूर्य रश्मियां (यत् =यदा) जब (नियन्ति) नीचे भूमि तक नियम से पहुंचती हैं, तब (उपरस्य) मेघ के (निष्कृतिम्) निर्माण को करता हैं, (सूर्यश्रितः) सूर्य में आश्रय पाई हुई रश्मियां (पुरु रेत:) बहुत शक्ति को, या बहुत जल को (दधिरे) धारण करती हैं।

    टिप्पणी

    [सुपर्णा:= सुपतना आदित्यरश्मयः। निरुक्त ३।२।१२; तथा ४।१।२)। तथा सु+ पॄ पालने (जुहोत्यादिः)। वाचमक्रत= रश्मियां "अतिगति" शील होती हैं, ये ८ मिनिटों में लगभग १० करोड़ मील के वेग से गति करती है। द्युलोक के तथा अन्तरिक्ष के पदार्थों के साथ टकराकर ये शब्द करती हैं। दिव्यश्रोत्र सम्पन्न योगियों को ये शब्द सुनाई देते हैं। (श्रोत्राकाशयोः सम्बन्धसंयमाद् दिव्यं श्रोत्रम्, योग २।४१)। आखरे= आ+खनु अवदारणे (भ्वादिः, + डर: (डरो वक्तव्यः, वार्तिक, अष्टा० २।४।८०)। आखर है अन्तरिक्ष, आखर सब ओर खुदा हुआ सा स्थान है। अन्तरिक्ष का भी अर्थ बीच-खुदा हुआ। अन्तरि +क्षनु हिंसायाम् + डः। अनर्तिषुः = जैसे वेगवती नदी की, तथा समुद्र की तरङ्ग उछलती हुई ऊपर-नीचे होती हुई प्रवाहित होती हुई, बहती हुई नाचती सी प्रतीत होती है, वैसे अतिवेग से चलती हुई सूर्य रश्मियां भी तरङ्गों में तरङ्गत हुई नाचती सी हैं। ये रश्मियां मेघ का निर्माण करती हैं , समुद्रादि से जल का आकर्ष कर के। ये रश्मियां जब स्थूलपदार्थ के साथ टकराती है तब प्रकाशमयी हो जाती हैं रेतः उदकनाम (निघं० १।१२), तथा वीर्यं शक्ति, वीर्यवान् पुरुष ही शक्ति वाला होता है। उपर: मेघनाम (निघं० १।१०)]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कालाग्नि का वर्णन।

    भावार्थ

    हे* अग्ने ! कालाग्ने ! (सुपर्णाः) सूर्य की ऊपर उठने वाली वे ज्वालाएं ही (वाचम् अक्रत) यह वाणी उपदेश कराती हैं, इस बात की सूचना देती हैं कि (आखरे) उनके आवासस्थान सूर्य में (कृष्णाः) कृष्ण-समस्त अपने ग्रह उपग्रहों को खींचने में समर्थ और (इषिराः) गतिमान् चिह्न धब्बे (अनर्त्तिषुः) नाचते हैं। (यत्) तब (उपरस्य) उपर आये हुए मेघावरण की (निष्कृतिम्) रचना को वे सुपर्ण अर्थात् शीघ्रगामी पतनशील किरणें (नि नियन्ति) सर्वथा तोड़ डालती हैं, तब ही वे ज्वालाएं (सूर्य-श्रितः) सूर्य में आश्रय लेती हुई (पुरु रेतः दधिरे) बड़ा भारी तेज, वीर्य, प्रचण्ड ताप उत्पन्न करती हैं। इस मन्त्र के गूढ़ाशय को समझने के लिए सूर्यमण्डल में उठनेवाले ज्वालोद्रेक (Perterbation या Prominencos) ज्वालापटलों की और सूर्य में दिखाई पड़नेवाले काले धब्बों की वैज्ञानिक तत्वमीमांसा का स्वाध्याय करना चाहिए। देखो एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (Art. Sun)

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘न्यान्नियन्ति’, ‘निष्कृतम्’ सूर्याश्रितः इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गार्ग्य ऋषिः। अग्निर्देवता। १ अनुष्टुप, २ जगती, ३ निचृज्जगती। तृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Dynamics of Divine Nature

    Meaning

    The centrifugal radiations of dynamic nature create articulate vibrations in the ethereal regions of the heaven’s space. Vigorous centripetal forces enact their dance of joyous creation of forms. These forces carry on the formal evolution and devolution of the Supercreator’s purposeful dynamics of nature, all the time dependent on the creative Sun at the centre.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The birds of beautiful wings have sent their cry in the sky. The dark ones, moving fast, have danced in their abodes. Your flames bursting out, go for formation of clouds, Having reached the sun, they hold up plenty of seed (water or retah)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The rays having their central station in the sun spreading in the deep space create ethereal sound. The black and white spots have their place in the rolling Sun. When these rays of sun splinter the cover of cloud assume the strongest power in them.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Rays, the dwellers with the Sun, send forth their voice in the empty ether. They dance, as it were drawing water and moving fast. They are filled with huge water, when they determine to come down as rain from the cloud.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सुपर्णाः) अ० १।२४।१। सुपालकाः। शोभनपतनाः किरणाः (वाचम्) शब्दम् (अक्रत) करोतेर्लुङि। मन्त्रे घसह्वरणश०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। अकृषत। कृतवन्तः (उप) उपेत्य (द्यवि) गमेर्डोसिः। उ० २।६९। इति द्युत दीप्तौ−डोसि। द्योतते द्यौः। अन्तरिक्षे (आखरे) डरो वक्तव्यः। वा० पा० ३।३।१२५। इति आङ्+खनु अवदारणे−डर। समन्तात् खननीये (कृष्णाः) अ० ५।२३।५। रसानामाकर्षकाः (इषिराः) अ० ५।१।९। गमनशीलाः (अनर्तिषुः) नृती गात्रविनामे−लुङ्। नृत्यन्ति स्म। चेष्टां कृतवन्तः (नि) नियमेन (यत्) यदा (नियन्ति) नीचैः प्राप्नुवन्ति (उपरस्य) म० २। उपर उपलो मेघो भवत्युपरमन्तेऽस्मिन्नभ्राण्युपरता आप इति वा−निरु० २।२१। मेघस्य (निष्कृतिम्) अ० ४।२७।६। निर्माणम् (उरु) बहुलम् (रेतः) अ० २।–२८।५। जलम्−निघ० १।१२। (दधिरे) धृतवन्तः (सूर्यश्रितः) श्रिञ्−सेवायाम्−क्विप्। सूर्यं प्राप्ताः किरणाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top