अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 74/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः
देवता - जातवेदाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
89
अ॑प॒चितां॒ लोहि॑नीनां कृ॒ष्णा मा॒तेति॑ शुश्रुम। मुने॑र्दे॒वस्य॒ मूले॑न॒ सर्वा॑ विध्यामि॒ ता अ॒हम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प॒ऽचिता॑म् । लोहि॑नीनाम् । कृ॒ष्णा । मा॒ता । इति॑ । शु॒श्रु॒म॒ । मुने॑: । दे॒वस्य॑ । मूले॑न । सर्वा॑: । वि॒ध्या॒मि॒ । ता: । अ॒हम् ॥७८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपचितां लोहिनीनां कृष्णा मातेति शुश्रुम। मुनेर्देवस्य मूलेन सर्वा विध्यामि ता अहम् ॥
स्वर रहित पद पाठअपऽचिताम् । लोहिनीनाम् । कृष्णा । माता । इति । शुश्रुम । मुने: । देवस्य । मूलेन । सर्वा: । विध्यामि । ता: । अहम् ॥७८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शारीरिक और मानसिक रोग हटाने का उपदेश।
पदार्थ
(लोहिनीनाम्) रक्तवर्ण (अपचिताम्) गण्डमाला आदि रोगों की (माता) माता (कृष्णा) काले रंगवाली है, (इति) यह (शुश्रुम) हमने सुना है। (अहम्) मैं (मुनेः) मननशील (देवस्य) विद्वान् वैद्य के (मूलेन) मूल ग्रन्थ से (ताः सर्वाः) उन सबको (विध्यामि) छेदता हूँ ॥१॥
भावार्थ
गण्डमाला आदि चर्म रोगों में पहिले काले धब्बे पड़ते, फिर रक्त वर्ण हो जाते हैं, सद्वैद्य बड़े-बड़े वैद्यों के मूल्य ग्रन्थों से कारण समझकर उनका छेदन आदि करे, इसी प्रकार मनुष्य आत्मदोषों को हटावे ॥१॥ (मूल) ओषधि विशेष भी है, जिसे पीपलामूल कहते हैं ॥ इस सूक्त का मिलान अ० सू० ६।८३। से करो ॥
टिप्पणी
१−(अपचिताम्) अ० ६।८३।१। गण्डमालादिरोगाणाम् (लोहिनीनाम्) वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः। पा० ४।१।३९। लोहित-ङीप्, तस्य च नः। रोहिणीनां रक्तवर्णानाम् (कृष्णा) कृष्णवर्णा (माता) जननी। उत्पादयित्री (इति) एवम् (शुश्रुम) लिटि रूपम्। वयं श्रुतवन्तः (मुनेः) मनेरुच्च। उ० ४।१२३। मनु अवबोधने-इन्। मननशीलस्य (देवस्य) विदुषो वैद्यस्य (मूलेन) मूलग्रन्थेन। निदानेन (सर्वाः) समस्ताः (विध्यामि) व्यध ताडने। विदारयामि (ताः) अपचितः (अहम्) वैद्यः ॥
विषय
गण्डमाला की चिकित्सा
पदार्थ
१. दोषवश [अपाकचीयमाना] गले से लेकर नीचे कक्षादि सन्धि-स्थानों में फैलनेवाली गण्डमाला 'अपचित्' है। (लोहिनीनाम्) = इन लाल वर्ण की (अपचिताम्) = गण्डमाला की ग्रन्थियों की (माता) = जननी (कृष्णा इति शश्रम) = काले वर्ण की नाड़ियाँ हैं, ऐसा सुना जाता है। जिन नाड़ियों में शुद्ध लाल वर्ण का रक्त बहता है, उनसे भिन्न अशुद्ध नील वर्ण के रक्त की नाडियों 'कृष्णा' हैं। इनके कारण ही गण्डमाला की ग्रन्थियों को जन्म मिलता है, अर्थात् अशुद्धरक्त के कारण ये ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। २. (ताः सर्वा:) = उन सब गण्डमाला की ग्रन्थियों को (अहम) = मैं (देवस्य) = रोग को जीतने की कामनावाले (मुने:) = 'वंगसेन' तरु के (मूलेन) = मूल से (विध्यामि) = विद्ध करता हूँ।
भावार्थ
वंगसेन [अथवा प्रियाल, अगस्ति व पलाश] वृक्ष के मूल से गण्डमाला की प्रन्थियों का वेधन किया जा सकता है। ये ग्रन्थियाँ अशुद्ध रक्त के कारण उद्भूत हो जाती हैं। 'मुनिः पुंसी वसिष्ठादौ वंगसेनतरौजिने' मेदिनी, [मुनिश्चन्मतेऽर्हति प्रियालागस्तिपालाशे]।
भाषार्थ
(लोहिनीनाम्) लोहित वर्ण वाली (अपचिताम्) गण्डमालाओं की (माता) माता (कृष्णा) काली गण्डमाला है, (इति शुथुम) यह हम ने सुना है। (ताः सर्वाः) उन सब को (अहम्) मैं (विध्यामि) वींधता हूं, विदारित करता हूं, (मुनेर्देवस्य१) "वेणुदाभूष" संज्ञक वृक्ष की (मूलेन) जड़ द्वारा।
टिप्पणी
[सायणाचार्य ने "वेणुदार्भूष" वृक्ष की जड़ का कथन किया है। "चक्रदत्त" में "हस्तिकर्णपलाश" की जड़ को गण्डमाला को शान्त करने वाली कहा है। सम्भवतः लोहित वर्ण वाली गण्डमालाओं में लाल रक्त की सूक्ष्म नाड़ियां अधिक सक्रिय हों, और कृष्ण वर्ण वाली गण्डमालाओं में कृष्ण रक्त की नाड़ियां अधिक सक्रिय हों, और कृष्ण गण्डमालाएं पहिले उभरती हों, और लोहिनी गण्ड मालाएं तत्पश्चात् पैदा होती हों। अतः कृष्णा को माता कहा है। गण्डमालाओं के वर्णन के लिये देखो अथर्व० (६।८३), इस सूक्त में गण्ड माला के ५ भेद कहे हैं, (१) एनी= ईषद्रक्तमिश्रित श्वेतवर्णा; (२) श्येनी = श्वेतवर्णा; (३) कृष्णा; (४-५) दो रोहिणी= दो लाल]। [१. देवस्य= देवदारु, यथा देवदत्तो देवः या दत्तः। (चक्रदत्त, गण्डमालाधिकार श्लोक १६, २९, ३५)। मुनेः= मूह, मूञ् बन्धने (भ्वादिः, क्र्यादिः) जोकि गण्डमाला को फैलने में बन्ध लगा देता है, उसे फैलने नहीं देता। मू + निः, किंतु (उणा० ४।१२४), दीर्घोकारस्य ह्रस्वोकारः।]
विषय
गण्डमाला की चिकित्सा।
भावार्थ
(लोहिनीनां) लाल वर्ण की (अप-चिताम्) गण्डमाला की फोड़ियों की (माता) उत्पादक जननी (कृष्णा) कृष्ण वा नीले रंग की नाड़ियां होती हैं (इति) इस प्रकार (शुश्रुम) हम अपने गुरुओं से सुनते हैं। (अहम्) मैं (ताः सर्वाः) उन सब को (देवस्य) प्रकाशमान (मुनेः) मुनि, तेजस्वी अग्नि के (मूलेन) प्रतिष्ठास्थान, आग्नेय-तत्व, तीव्र जलन पैदा करनेवाले पदार्थ से (विध्यामि) बेधता हूं।
टिप्पणी
कौशिक सूत्र में गण्डमाला के रोग की चिकित्सा के लिये कुछ प्रयोग इस प्रकार लिखे हैं १—तीखी शलाका (शर) से गण्डमाला की फोड़ियों को फोड़कर उनका रक्त निकालना। २—प्रातःकाल गरम जल से धोना। ३—काली ऊनको जलाकर उसको घी में मिलाकर मल्लम बनाकर लगाना, ४—कुत्ते से चटाना, ५—गले पर से गन्दा खून निकालने के लिये गोह या जोंक लगाना, ६—सेंधा नमक पीसकर उन पर छिड़क कर मिट्टी लगा कर मलना। ७—तांत से गण्डमाला के मस्सों को बांधना॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। १, २ अपचित-नाशनो देवता, ३ त्वष्टा देवता, ४ जातवेदा देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Excrescences
Meaning
The cause of red excrescences such as pustules and inflammations is black, some negativity in the system, this we have heard. All such I pierce and cure with the root of divine curative Muni’s root. (Satavalekara says that Muni is the name of herbs such as “Damanaka, Baka, Palasha, Priyala and Madana.)
Subject
As in verses (mantroktah)
Translation
Of the red glandular swellings (apachit), the black one is the mother, thus we have heard. With the root of the divine muni herb, I pierce all of them.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.78.1AS PER THE BOOK
Translation
I, the physician hear from my teacher that the black vein is the mother of the red-colored pustules. I pierce and penetrate all of them with bar heatened in Muni, the fire.
Translation
Black vein is the mother, we have heard of red hued pustules. I pierce and penetrate them, with the aid of an original masterpiece on medicine written by a learned physician.
Footnote
Pustules: Apachitas. Scrofulous or inflammatory swellings affecting the glands of the neck. Apachitas mean gandamalas or King’s evil. According to Damodar Satyavalekar, Muni मुनि is the name of an herb, the root of which is efficacious in curing the pustule.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अपचिताम्) अ० ६।८३।१। गण्डमालादिरोगाणाम् (लोहिनीनाम्) वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः। पा० ४।१।३९। लोहित-ङीप्, तस्य च नः। रोहिणीनां रक्तवर्णानाम् (कृष्णा) कृष्णवर्णा (माता) जननी। उत्पादयित्री (इति) एवम् (शुश्रुम) लिटि रूपम्। वयं श्रुतवन्तः (मुनेः) मनेरुच्च। उ० ४।१२३। मनु अवबोधने-इन्। मननशीलस्य (देवस्य) विदुषो वैद्यस्य (मूलेन) मूलग्रन्थेन। निदानेन (सर्वाः) समस्ताः (विध्यामि) व्यध ताडने। विदारयामि (ताः) अपचितः (अहम्) वैद्यः ॥
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