अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 16
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
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यास्ति॒रश्चीः॑ उप॒र्षन्त्य॑र्ष॒णीर्व॒क्षणा॑सु ते। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया: । ति॒रश्ची॑: । उ॒प॒ऽऋ॒षन्ति॑ । अ॒र्ष॒णी: । व॒क्षणा॑सु । ते॒ । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
यास्तिरश्चीः उपर्षन्त्यर्षणीर्वक्षणासु ते। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥
स्वर रहित पद पाठया: । तिरश्ची: । उपऽऋषन्ति । अर्षणी: । वक्षणासु । ते । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।
पदार्थ
(याः) जो (अर्षणीः) महापीड़ाएँ (तिरश्चीः) तिरछी होकर (ते) तेरी (वक्षणासु) छाती के अवयवों में (उपर्षन्ति) घुस जाती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई... १३ ॥१६॥
भावार्थ
जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥
टिप्पणी
१६−(याः) (तिरश्चीः) वक्रगामिन्यः (अर्षणीः) म० १३। महापीडाः (वक्षणासु) अ० ७।११४।१। वक्षःस्थलेषु। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
बहिः बिलम् [निद्रवन्तु]
पदार्थ
१. (या:) = जो पौड़ाजनक रोग-मात्राएँ (मूर्धानं प्रति अर्षणी:) = मस्तक की ओर गतिवाली होती हैं और (सीमानं विरुजन्ति) = सिर के ऊपरी भाग [खोपड़ी] को नाना प्रकार से पीड़ित करती हैं, वे सब (अनामया:) = रोगशून्य होकर (अहिंसन्ती:) = हमें हिंसित न करती हुई (बिलं बहिः) = शरीर के छिद्रों से बाहर (निवन्तु) = निकल जाएँ। (या:) = जो रोग-मात्राएँ (हृदयम् उपर्षन्ति) = हृदय की ओर तीव्र वेग से बढ़ी चली आती हैं और (कीकसाः अनुतन्वन्ति) = हँसली की हडियों में फैल जाती है (याः पार्श्वे उपर्षन्ति) = जो पीड़ाएँ दोनों पाश्वों [कोखों] में तीव्र वेदना करती हुई प्राप्त होती हैं और (पृष्टी: अननिक्षन्ति) = पीठ के मोहरों का चुम्बन करने लगती हैं, वे सब रोगरहित व अहिंसक होती हुई शरीर-छिद्रों से बाहर निकल जाएँ। २. (याः अर्पणी:) = जो महापीड़ाएँ (तिरश्ची:) = तिरछी होकर आक्रमण करती हुई (ते वक्षणास उपर्षन्ति) = तेरी पसलियों में पहुँच जाती हैं, (या:) = जो पीड़ाएँ (गुदाः अनुसर्पन्ति) = गुदा की नाड़ियों में गतिवाली होती हैं (च) = और (आन्त्राणि मोहयन्ति) = आँतों को मूर्छित [काम न करनेवाला] कर देती हैं, (या:) = जो (मज्जा:) = मज्जाओं को (निर्धयन्ति) = चूस-सा लेती हैं और सुखा-सा डालती है, (च) = और (परूंषि विरूजन्ति) = जोड़ों में दर्द [फूटन] पैदा कर देती हैं, वे सब रोगशून्य व अहिंसक होकर शरीर-छिद्रों से बाहर चली जाएँ।
भावार्थ
जो भी पीड़ादायक तत्व शरीर में विकृतियों का कारण बनते हैं, वे पसीने आदि के रूप में शरीर से बाहर हो जाएँ।
भाषार्थ
(याः) जो (अर्षणीः) गति करने वाले [आपः] रक्त-जल (ते) तेरी (वक्षणासु) बखियों में, (तिरश्वीः) तिरछी रेखाओं में, (उप) समीप समीप (ऋषन्ति) गति करते हैं, वे (अहिंसन्तीः) न हिंसा करते हुए (अनामयाः) रोग रहित [आपः] रक्त-जल (बिलम्, बहिः) वस्ति के छिद्र से बाहर (निर्द्रवन्तु) द्रवरूप में निकल जांय।
टिप्पणी
[भावार्थ (मन्त्र १३)। वक्षणाः= शरीर के दो पार्श्वों में पेट के अन्दर की ओर के भाग। तिरश्चीः= Cross-wise]
विषय
शरीर के रोगों का निवारण।
भावार्थ
(याः) जो रोगमात्राएं (तिरश्चीः उप-ऋषन्ति) तिरछी वेदना उत्पन्न करतीं और (ते वक्षणासु) तेरी पसलियों में चली जाती हैं वे भी (अहिंसन्तीः अना०) रोग रहित तुझे कष्टकारी न होकर शरीर से बाहर हो जायें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिराः ऋषिः। सर्वशीर्षामयापाकरणं देवता। १, ११, १३, १४, १६, २० अनुष्टुभः। १२ अनुष्टुब्गर्भाककुमती चतुष्पादुष्णिक। १५ विराट् अनुष्टुप्, २१ विराट पथ्या बृहती। २२ पथ्यापंक्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Diseases
Meaning
Let those that run cross-wise on the sides in the blood vessels turn unafflictive and trouble-free and let them flow out through the excretory organs.
Translation
They, that pierce through crosswise, and pierce through to your stomach may those (diseases) flow out through the orifice without causing any harm or sickness.
Translation
Let the penetrating pains that pierce your stomach, O man ! as they shoots across, depart and pass away out of you without creating any disease and inflicting any hurt.
Translation
The penetrating pangs that pierce the parts of thy breast as they shoot across, let them depart and pass out of the body, free from disease and harming not.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(याः) (तिरश्चीः) वक्रगामिन्यः (अर्षणीः) म० १३। महापीडाः (वक्षणासु) अ० ७।११४।१। वक्षःस्थलेषु। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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