अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 18
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
45
या म॒ज्ज्ञो नि॒र्धय॑न्ति॒ परूं॑षि विरु॒जन्ति॑ च। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया: । म॒ज्ज्ञ: । नि॒:ऽधय॑न्ति । परूं॑षि । वि॒ऽरु॒जन्ति॑ । च॒ । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
या मज्ज्ञो निर्धयन्ति परूंषि विरुजन्ति च। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥
स्वर रहित पद पाठया: । मज्ज्ञ: । नि:ऽधयन्ति । परूंषि । विऽरुजन्ति । च । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।
पदार्थ
(याः) जो [महापीड़ाएँ] (मज्ज्ञः) मज्जाओं [हड्डी की मींगों] को (निर्धयन्ति) चूस लेती हैं (च) और (परूँषि) जोड़ों को (विरुजन्तिः) फोड़ डालती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई, (अनामयाः) रोगरहित होकर (बहिः) बाहिर (निः द्रवन्तु) निकल जावें, और (बिलम्) बिल [फूटन रोग भी निकल जावे] ॥१८॥
भावार्थ
जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥
टिप्पणी
१८−(याः) अर्षण्यः (मज्ज्ञः) अ० १।११।४। अस्थिमध्यस्थस्नेहान् (निर्धयन्ति) धेट् पाने। नितरां पिबन्ति (परूँषि) ग्रन्थीन्। अन्यत् पूर्ववत्-म० १३ ॥
विषय
बहिः बिलम् [निद्रवन्तु]
पदार्थ
१. (या:) = जो पौड़ाजनक रोग-मात्राएँ (मूर्धानं प्रति अर्षणी:) = मस्तक की ओर गतिवाली होती हैं और (सीमानं विरुजन्ति) = सिर के ऊपरी भाग [खोपड़ी] को नाना प्रकार से पीड़ित करती हैं, वे सब (अनामया:) = रोगशून्य होकर (अहिंसन्ती:) = हमें हिंसित न करती हुई (बिलं बहिः) = शरीर के छिद्रों से बाहर (निवन्तु) = निकल जाएँ। (या:) = जो रोग-मात्राएँ (हृदयम् उपर्षन्ति) = हृदय की ओर तीव्र वेग से बढ़ी चली आती हैं और (कीकसाः अनुतन्वन्ति) = हँसली की हडियों में फैल जाती है (याः पार्श्वे उपर्षन्ति) = जो पीड़ाएँ दोनों पाश्वों [कोखों] में तीव्र वेदना करती हुई प्राप्त होती हैं और (पृष्टी: अननिक्षन्ति) = पीठ के मोहरों का चुम्बन करने लगती हैं, वे सब रोगरहित व अहिंसक होती हुई शरीर-छिद्रों से बाहर निकल जाएँ। २. (याः अर्पणी:) = जो महापीड़ाएँ (तिरश्ची:) = तिरछी होकर आक्रमण करती हुई (ते वक्षणास उपर्षन्ति) = तेरी पसलियों में पहुँच जाती हैं, (या:) = जो पीड़ाएँ (गुदाः अनुसर्पन्ति) = गुदा की नाड़ियों में गतिवाली होती हैं (च) = और (आन्त्राणि मोहयन्ति) = आँतों को मूर्छित [काम न करनेवाला] कर देती हैं, (या:) = जो (मज्जा:) = मज्जाओं को (निर्धयन्ति) = चूस-सा लेती हैं और सुखा-सा डालती है, (च) = और (परूंषि विरूजन्ति) = जोड़ों में दर्द [फूटन] पैदा कर देती हैं, वे सब रोगशून्य व अहिंसक होकर शरीर-छिद्रों से बाहर चली जाएँ।
भावार्थ
जो भी पीड़ादायक तत्व शरीर में विकृतियों का कारण बनते हैं, वे पसीने आदि के रूप में शरीर से बाहर हो जाएँ।
भाषार्थ
(याः) जो [आपः] यक्ष्मान्वित रक्त-जल (मज्जः) मज्जा को (निर्धयन्ति) पी जाते हैं (च) और (परुंषि) जोड़ों को (विरुजन्ति) तोड़ देते हैं वे [उपचार या चिकित्सा द्वारा] (अहिंसन्तीः) न हिंसा करते हुए (अनाशयाः) और रोग रहित हुए [मूत्ररूप में] (विलम् बहिः) वस्ति के छिद्र से बाहर (निर्द्रवन्तु) द्रवरूप में निकल जांय।
टिप्पणी
[मन्त्र में पृष्ठवंश का वर्णन प्रतीत होता है। पृष्ठवंश सच्छिद्र-अस्थिम-णकों के, जोड़ों द्वारा मालारूप में बना हुआ है, जिन में सुषुम्णा नाड़ी सूत्र में निवास करती है। जोड़ों के जोड़ पर एक-एक गद्दी होती है, और मणकों में मज्जा होती है। मज्जा= Marrow]
विषय
शरीर के रोगों का निवारण।
भावार्थ
(याः) जो रोग मात्राएं (मज्ज्ञः निर्धयन्ति) मज्जाओं को सर्वथा चूस जाएं. सुखाडालें, उनमें भी संताप उत्पन्न कर दें। और (परूंषि विरुजन्ति च) पोरू पोरू, जोड़ जोड़ में तीव्र वेदना, फूटन पैदा करदें वे भी (अहिंसन्तीः) बिना कष्ट दिये शरीर से बाहर हो जायें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिराः ऋषिः। सर्वशीर्षामयापाकरणं देवता। १, ११, १३, १४, १६, २० अनुष्टुभः। १२ अनुष्टुब्गर्भाककुमती चतुष्पादुष्णिक। १५ विराट् अनुष्टुप्, २१ विराट पथ्या बृहती। २२ पथ्यापंक्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Diseases
Meaning
Let those that drain the marrow and afflict the vertebrae turn unafflictive and trouble free and flow out through the excretory system.
Translation
They, that suck the marrows out and cause severe pain in the joints may those (diseases) flow out through the orifice without causing any harm or sickness.
Translation
Let the pains that suck the marrow and tear the inward parts depart and pass away out of you without creating any disease and inflicting any hurt.
Translation
The pains that suck the marrow out, and rend and tear the bones apart, may they speed forth and pass out of the body, free from disease and harming not.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(याः) अर्षण्यः (मज्ज्ञः) अ० १।११।४। अस्थिमध्यस्थस्नेहान् (निर्धयन्ति) धेट् पाने। नितरां पिबन्ति (परूँषि) ग्रन्थीन्। अन्यत् पूर्ववत्-म० १३ ॥
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