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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 3
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - आदित्यो गृहपतिर्देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः
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    क॒दा च॒न प्रयु॑च्छस्यु॒भे निपा॑सि॒ जन्म॑नी। तुरी॑यादित्य॒ सव॑नं तऽइन्द्रि॒यमात॑स्थाव॒मृतं॑ दि॒व्यादि॒त्येभ्य॑स्त्वा॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒दा। च॒न। प्र। यु॒च्छ॒सि॒। उ॒भेऽइत्यु॒भे। नि। पा॒सि॒। जन्म॑नि॒ऽइति॒ जन्म॑नी॒। तु॒री॑य। आ॒दि॒त्य॒। सव॑नम्। ते॒। इ॒न्द्रि॒यम्। आ। त॒स्थौ॒। अ॒मृत॑म्। दि॒वि। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒ ॥३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदा चन प्रयुच्छस्युभे निपासि जन्मनी । तुरीयादित्य सवनन्तऽइन्द्रियमातस्थावमृतन्दिव्या दित्येभ्यस्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कदा। चन। प्र। युच्छसि। उभेऽइत्युभे। नि। पासि। जन्मनिऽइति जन्मनी। तुरीय। आदित्य। सवनम्। ते। इन्द्रियम्। आ। तस्थौ। अमृतम्। दिवि। आदित्येभ्यः। त्वा॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    Translation -
    You are never negligent. You protect our both the lives (the present and the succeeding ones). O sun, this is your fourth (purest) impelling force, immortal, placed in heaven. (1) You to the suns. (2)

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