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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 3
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - आदित्यो गृहपतिर्देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः
    179

    क॒दा च॒न प्रयु॑च्छस्यु॒भे निपा॑सि॒ जन्म॑नी। तुरी॑यादित्य॒ सव॑नं तऽइन्द्रि॒यमात॑स्थाव॒मृतं॑ दि॒व्यादि॒त्येभ्य॑स्त्वा॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒दा। च॒न। प्र। यु॒च्छ॒सि॒। उ॒भेऽइत्यु॒भे। नि। पा॒सि॒। जन्म॑नि॒ऽइति॒ जन्म॑नी॒। तु॒री॑य। आ॒दि॒त्य॒। सव॑नम्। ते॒। इ॒न्द्रि॒यम्। आ। त॒स्थौ॒। अ॒मृत॑म्। दि॒वि। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒ ॥३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदा चन प्रयुच्छस्युभे निपासि जन्मनी । तुरीयादित्य सवनन्तऽइन्द्रियमातस्थावमृतन्दिव्या दित्येभ्यस्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कदा। चन। प्र। युच्छसि। उभेऽइत्युभे। नि। पासि। जन्मनिऽइति जन्मनी। तुरीय। आदित्य। सवनम्। ते। इन्द्रियम्। आ। तस्थौ। अमृतम्। दिवि। आदित्येभ्यः। त्वा॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनर्गृहस्थधर्ममाह॥

    अन्वयः

    अत्र नेत्यध्याहार्य्यम्। हे पते! त्वं यदि कदाचन न प्रयुच्छसि, तर्हि स्वकीये उभे जन्मनी निपासि। हे आदित्य! यदि ते तव सवनमिन्द्रियमातस्थौ, तर्हि दिव्यमृतं प्राप्नुयाः। हे तुरीय! आदित्येभ्यस्त्वा त्वामहमुपयच्छे॥३॥

    पदार्थः

    (कदा) (चन) (प्र) (युच्छसि) अत्यन्तं प्रमाद्यसि (उभे) द्वे (नि) नितराम् (पासि) (जन्मनी) वर्त्तमानं प्राप्स्यमानं च (तुरीय) चतुर्थवन्। अत्र अर्श आदित्वादच्। (आदित्य) विद्यया सूर्य्य इव प्रकाशमान! (सवनम्) सवति प्रसूयतेऽनेन तत् (ते) तव (इन्द्रियम्) मन आदिकार्य्यसाधकम् (आ) (तस्थौ) (अमृतम्) मरणधर्म्मरहितम् (दिवि) द्योतनात्मके व्यवहारे (आदित्येभ्यः) संवत्सरेभ्यः (त्वा) त्वां दृढेन्द्रियम्। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ३। ५। १२) व्याख्यातः॥३॥

    भावार्थः

    यः प्रमादी विवाहितां स्त्रियं त्यक्त्वा परस्त्रियं सेवते, स इहामुत्र च दुर्भगो भवति। यश्च संयमी स्वस्त्रीसेवी त्यक्तपरस्त्रीकः स उभयत्र परमं सुखं कथं न भुञ्जीत, अतः सर्वासां स्त्रीणां योग्यतास्ति जितेन्द्रियान् पतीन् सेवेरन्निति॥३॥

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    विषयः

    पुनर्गृहस्थधर्ममाह ॥

    सपदार्थान्वयः

    अत्र नेत्यध्याहार्य्यम्। हे पते ! त्वं यदि कदाचन न प्रयुच्छसि अत्यन्तं न प्रमाद्यसि तर्हि स्वकीये उभे द्वे जन्मनी वर्त्तमानं प्राप्स्यमानं च नि+पासि नितरां पासि । हे आदित्य ! विद्यया सूर्य्य इव प्रकाशमान, यदि ते=तव सवनं सवति=प्रसूयतेऽनेन तत् इन्द्रियं मन-आदिकार्यसाधकम् आतस्थौ, तर्हि दिवि द्योतनात्मके व्यवहारे अमृतं मरणधर्मरहितं प्राप्नुयाः । हे तुरीय ! चतुर्थवत् आदित्येभ्यः संवत्सरेभ्यः त्वा=त्वां त्वां दृढेन्द्रियम् अहमुपयच्छे ॥ ८ । ३॥ [हे पते ! त्वं यदि कदाचन न प्रयुच्छसितर्हि स्वकीये उभे द्वे जन्मनीनिपासि] यः प्रमादी विवाहितां स्त्रियं त्यक्त्वा परस्त्रियं सेवते स इहामुत्र च दुर्भगो भवति। [हे आदित्य ! यदि ते=तव सवनमिन्द्रियमातस्थौ तर्हि दिव्यमृतं प्राप्नुयाः] यश्च संयमी, स्वस्त्रीसेवी, त्यक्तपरस्त्रीः स उभयत्र परमं सुखं कथं न भुञ्जीत। [हे तुरीय ! आदित्येभ्यस्त्वा=त्वामहमुपयच्छे] अतः सर्वांसां स्त्रीणां योग्यतास्ति--जितेन्द्रियान् पतीन् सेवेरन्निति ॥ ८ । ३ ॥

    पदार्थः

    (कदा)(चन)(प्र)(युच्छसि) अत्यन्तं प्रमाद्यसि (उभे) द्वे (नि) नितराम्(पासि)(जन्मनी) वर्तमानं प्राप्स्यमानं च (तुरीय) चतुर्थवत्। अत्रअर्शआदित्वादच्(आदित्य) विद्यया सूर्य्य इव प्रकाशमान! (सवनम्) सवति=प्रसूयतेऽनेन तत् (ते) तव (इन्द्रियम्) मन-आदिकार्यसाधकम् (आ)(तस्थौ)(अमृतम्) मरणधर्म्मरहितम् (दिवि) द्योतनात्मके व्यवहारे (आदित्येभ्यः) संवत्सरेभ्यः (त्वा) त्वां दृढेन्द्रियम् ॥ अयं मन्त्रः शत० ४ । ३ । ५ । १२ व्याख्यातः ॥३॥

    विशेषः

    आङ्गिरसः । आदित्यो गृहपति:=विद्यावान् गृहस्थः । निचृदार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी गृहस्थ का धर्म अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    इस मन्त्र में नकार का अध्याहार आकांक्षा के होने से होता है। हे पते! आप जो (कदा) कभी (चन) भी (प्र) (युच्छसि) प्रमाद नहीं करते हो तो अपने (उभे) दोनों (जन्मनी) वर्त्तमान और परजन्म को निरन्तर (पासि) पालते हो। हे (आदित्य) विद्या गुणों में सूर्य के तुल्य प्रकाशमान! जो (ते) आपके (सवनम्) उत्पत्ति धर्मयुक्त कार्य्य सिद्ध करने हारे (इन्द्रियम्) मन आदि इन्द्रिय के (आ) (तस्थौ) वश में रहें तो आप (दिवि) प्रकाशित व्यवहारों में (अमृतम्) अविनाशी सुख को प्राप्त हो जावें। हे (तुरीय) चतुर्थाश्रम के पूर्ण करने वाले! (आदित्येभ्यः) प्रति मास के सुख के लिये (त्वा) दृढ़ेन्द्रिय आप को मैं स्त्री स्वीकार करती हूं॥३॥

    भावार्थ

    जो प्रमादी पुरुष विवाहित स्त्री को छाæææेड कर परस्त्री का सेवन करता है, वह इस लोक और परलोक में दुर्भागी होता है और जो संयमी अपनी ही स्त्री का चाहने वाला दूसरे की स्त्री को नहीं चाहता, वह दोनों लोक में परम सुख को क्यों न भोगे? इस से सब स्त्रियों को योग्य है कि जितेन्द्रिय पति का सेवन करें, अन्य का नहीं॥३॥

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    विषय

    इहलोक व परलोक

    पदार्थ

    पति के ही विषय में कहते हैं कि आप १. ( कदा च ) = कभी भी ( न प्रयुच्छसि ) = प्रमाद नहीं करते हो। ‘न प्रमदितव्यम्’ आचार्य के इस उपदेश को आप भूलते नहीं। 

    २. सदा सतर्क और अप्रमत्त रहते हुए आप ( उभे ) = दोनों ( जन्मनी ) = जन्मों को ( निपासि ) = निश्चय से रक्षित करते हो। इहलोक व परलोक दोनों को सुधारने का प्रयत्न करते हो। आप अभ्युदय के साथ निःश्रेयस को जोड़कर चलते हो, यही तो धर्म है। 

    ३. ( तुरीय ) = आप तुरीय हो। तुरीय का अर्थ निम्न मन्त्र से स्पष्ट हो जाता है—सोमस्य जाया प्रथमं गन्धर्वस्तेऽपरः पतिः। तृतीयोऽग्निनष्टे पतिः तुरीयस्ते मनुष्यजाः [ अथर्व १४।२।३ ] प्रथम तू सोम की पत्नी है, तेरा दूसरा पति गन्धर्व है, अग्नि तेरा तीसरा पति है और चौथा मनुष्य से होनेवाला, अर्थात् माता-पिता कन्या के लिए वर खोजते समय पहला ध्यान तो यह करें कि वह ‘सोम’ हो, शक्ति का पुञ्ज हो। उसमें वीर्यशक्ति हो, वह नामर्द न हो, सन्तानोत्पत्ति के अयोग्य न हो। दूसरी बात यह कि वह ज्ञान की वाणी का पति हो [ गां धरति ] कुछ पढ़ा-लिखा हो, अनपढ़, गँवार न हो। तीसरा यह कि वह अग्नि हो—उन्नतिशील [ progressive ] हो और चौथे यह कि वह मनुष्यता—दयालुता को लिये हुए हो, क्रूर न हो, Humane हो। एवं, तुरीय का अर्थ है, आप दयालु हों, आपमें मानवता हो। 

    ४. ( आदित्य ) = गुणों के आप आदान करनेवाले हों, अच्छाई की आप कदर करते हों। 

    ५. ( ते इन्द्रियम् ) = आपका वीर्य ( सवनम् ) = उत्पादक है, सुन्दर सन्तान को जन्म देनेवाला है। 

    ६. ( आतस्थौ ) = आपका यह वीर्य शरीर में ही स्थित होता है, यह व्यर्थ में नष्ट नहीं किया जाता। 

    ७. ( अमृतम् ) = यह आपको अमृत—नीरोग बनानेवाला है। 

    ८. ( दिवि ) = यह ज्ञान के निमित्त है। अथवा मस्तिष्करूप द्युलोक में स्थित होता है। 

    ९. ऐसे ( त्वा ) = आपको मैं ( आदित्येभ्यः ) = उत्तम प्रजाओं के लिए वरती हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — १. आप प्रमादशून्य हो। २. इहलोक व परलोक दोनों का ध्यान करते हो। ३. आप मानवता को लिये हुए हो। ४. गुणों का आह्वान करनेवाले हो। ५. उत्पादक शक्ति से युक्त हो। ६. शक्ति को नष्ट नहीं होने देते हो। ७. नीरोग हो। ८. शक्ति को ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाते हो।

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    विषय

    राजा का मेघ के समान कर्तव्य चतुर्थाश्रमी का कर्तव्य तथा पक्षान्तर में गृहस्थ को उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( आदित्य ) आदित्य ! सूर्य ! जिस प्रकार भूमि से जल अपनी रश्मियों से ग्रहण करके पुनः मेघरूप से भूमि पर ही बरसा देता है उसी प्रकार प्रजाओं से करादि लेकर प्रजा के उपकार में लगानेहारे आदित्य ब्रह्मचारिन् ! तू ( कदाचन) भिक्षा आदि में भी कभी क्या (प्रयुच्छसि ) प्रमाद करे ? नहीं । तु कभी प्रमाद मत कर । तू (उभे) दोनों (जन्मनी) जन्मों को ( निवासि ) पालन कर । हे ( तुरीय ) तुरीय ! सबसे अधिक उच्च, सबसे तर्णितम ! चतुर्थ आश्रमवासिन् ! ( आदित्य ) आदित्य के समान तेजस्विन् ! विद्वन् ! (ते) तेरा ( सवनम् ) सबको प्रेरणा करने वाला या उत्पन्न करनेवाला या ऐश्वर्यवान् ( इन्द्रियम् ) इन्दिय या वीर्य ( दिवि ) प्रकाशमय ज्ञान, मनन में (अमृतं) अमृतं अविनाशी, अखण्डरूप में ( आ तस्थौ स्थिर हो। (त्वा) तुझको ।आदित्येभ्यः ) समस्त आदित्यों अर्थात् ज्ञानी पुरुषों के मुख्य पद पर अभिषिक्त करता हूं ॥ शतः ४।३।५।१२ ॥ 
    उभे जन्मनी - दोनों जम्म एक माता के गर्भ से दूसरा आचार्य के गर्भ से । आदित्य पद पर ऐसे पुरुष को अभिषिक्त करें जो द्विज हो, चतुर्थी- श्रमसेवी और अखण्ड ब्रह्मचारी हो ॥ शत० ४ । ३ । ५ । १२ ॥ 
    गृहाश्रम पक्ष में स्त्री कहती है- हे पते ! ( त्वं कदा चन प्रयुच्छसि ) तू कभी प्रसाद मत करे तो ( उमे जन्मनी निपासि । भूत और भविष्यत् दोनों जीवनों को बचा सकेगा। ( यदि ते सवनम् इन्द्रियन् आतस्थौ) यदि तेरा उत्पादक इन्द्रिय प्रजननाङ्ग वश में रहा तो ( आदित्येभ्यः त्वा ) आदित्य सम्मान पुत्रों या १२ मासों अर्थात् सदा के लिये तुझे वरती हूं ॥
     

    टिप्पणी

     ३ --" ० मातस्था अमृतं  इति काण्व ० ऋ ० वालखिल्ये ४ । ७ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आदित्यो गृहपतिर्देवता । निचृदार्षी पंक्तिः । पञ्चम: ।। 

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    विषय

    गृहस्थ धर्म का फिर उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    इस मन्त्र में 'न' पद का अध्याहार आकांक्षा से करना योग्य है। हे पते ! आप यदि ( कदाचन्) कभी भी (न प्रयुच्छसि) अत्यन्त प्रमाद नहीं करते हो तो अपने (उभे) दोनों (जन्मनी) वर्तमान और आगामी दोनों जन्मों की (नि+पासि) सर्वथा रक्षा करते हो । हे (आदित्य) विद्या से सूर्य के समान प्रकाशमान पते ! यदि (ते) आपकी (सवनम्) उत्पत्ति का साधन उपस्थेन्द्रिय एवं (इन्द्रियम्) मन आदि कार्य साधक इन्द्रियाँ (आतस्थौ) वश में हैं तो आप (दिवि) विद्या के प्रकाशात्मक व्यवहार में (अमृतम्) अविनाशी परम सुख को प्राप्त करो । हे (तुरीय) संन्यासी के समान संयमी पते ! मैं (आदित्येभ्यः) सदा के लिये (त्वा) दृढ़ इन्द्रिय वाले आपको पति स्वीकार करती हूँ ॥ ८ । ३॥

    भावार्थ

    जो प्रमादी पुरुष विवाहित स्त्री को छोड़ कर परस्त्री का सेवन करता है वह इस लोक और परलोक में दुर्भागी होता है। और-जो संयमी, अपनी स्त्री का सेवन करने वाली, परस्त्री-त्यागी होता है वह इस लोक और परलोक में परम सुख का भोगने वाला होता है। इसलिये सब स्त्रियों को योग्य है कि वे जितेन्द्रिय पतियों का सेवन करें ॥ ८ । ३ ॥

    भाष्यसार

    १. गृहस्थ-धर्म-- जो पुरुष प्रमादी होकर अपनी विवाहित स्त्री को छोड़कर परस्त्री का सङ्ग करता है उसके दोनों जन्म बिगड़ जाते हैं अर्थात् वह इस लोक और परलोक में भी दुरवस्था को प्राप्त होता है। और जो विद्या से सूर्य के समान प्रकाशमान होकर जननेन्द्रिय तथा कार्यसाधक मन आदि इन्द्रियों को स्थिर करके अर्थात् संयमी, स्वस्त्री का सेवन करने वाला, परस्त्री त्यागी होकर गृहाश्रम के व्यवहार में प्रवृत्त होता है वह दोनों लोकों में अमृत अर्थात् परम सुख का उपभोग करता है। इसलिये सब स्त्रियों को योग्य है कि वे तुरीयाश्रमी संन्यासी के समान संयमी, जितेन्द्रिय, दृढ़ेन्द्रिय पुरुषों को ही पति रूप में स्वीकार करके उनका सेवन करें ।। २. पति--अप्रमादी, संयमी, स्वस्त्रीसेवी, परस्त्री त्यागी हो । विद्या से सूर्य के समान प्रकाशमान हो (आदित्य) । तुरीयाश्रमी संन्यासी के समान जितेन्द्रिय हो (तुरीय)=दृढ़-इन्द्रिय वाला हो ॥ ८ । ३ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो विवाहित पुरुष आपल्या स्त्रीला सोडून प्रमादी बनतो व परस्त्रीचे सेवन करतो तो इहलोकी व परलोकी दुर्दैवी असतो. जो संयमी, आपल्या स्त्रीवर प्रेम करणारा व दुसऱ्या स्त्रीची कामना न करणारा असतो, तो दोन्ही लोकांत सुख भोगतो. यासाठी सर्व स्त्रियांनी जितेन्द्रिय पतीचा स्वीकार करावा, इतरांचा नव्हे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात देखील गृहस्थधर्माविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - या मंत्रात आकांक्षा असल्यामुळे नकाराचा अध्याहार केला आहे. (विशेष वक्तव्य-अध्याहार म्हणजे वाक्यात एखादा शब्द वा काही शब्द सुटलेले आहेत, पण वाक्यात त्यांची आकांक्षा म्हणजे गरज आहे, अशा उल्लेख राहून गेलेल्या शब्दाला अर्थपूर्तीसाठी समाविष्ट करणे म्हणजे अध्याहार. या मंत्रात निशेधार्थक न अक्षर नसल्यामुळे अर्थपूर्तीसाठी त्याचा अध्याहार केला आहे) (पत्नी म्हणत आहे) हे परिराज, आपण (कदा) (चन) कधीही (प्र) (युच्छसि) प्रमाद करीत नाहींत (सतत उद्योगशील आहात) अशा रीतीने आपण स्वत:च्या (जन्मनी) हा जन्म व परजन्म (उभे) दोन्ही जन्मांचे (पासि) पालन ना रक्षण केले आहे/करीत आहात. (आदित्य) हे विद्या व गुणांमधे यूर्याप्रमाणे ते जोमय असलेले आपण (ते) आपल्या (सवजम्) उत्पत्ती आणि धर्मकार्य यांमध्ये (इन्द्रियम्) मन आदी इंद्रियांना वश करू शकला, तर आपण (आ) (तस्थौ) (दिवि) सर्व स्पष्ट व प्रकाशित कार्यांमध्ये (अमृतम्) अविनाशी सुख प्राप्त करू शकाल. हे (तुरीय) चतुर्थाश्रमास पूर्ण करण्याचा निश्चय केलेल्या आपणास (वृद्धत्व वा सन्यासाश्रमापर्यंत दीर्घजीवी होण्यासाठी निर्धार केलेले) (आदिव्यभ्य:) प्रतिमास सुखप्राप्तीसाठी मी (त्वा) आपला स्वीकार करीत आहे. ॥3॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जो प्रमादी पुरुष आपल्या पत्नीला सोडून (आपल्या विवाहिता पत्नीशी प्रामाणिक न राहून) परस्त्रीशी संबंध ठेवतो, तो या लोकात व परलोकात (परजन्मीं) अभागी होतो. याउलट जो पुरुष संयमी व पत्नीरत असून कधीही परस्त्रीच्या कामना करीत नाही, तो दोन्ही लोकात परमसुखी होतो. असे का होऊ नये? (ते साहजिकच आहे) याचप्रकारे सर्व स्त्रियांकरिता देखी, उचित आहे की त्यांनी जितेंद्रिय पतीशी संबंध ठेवावा, अन्यांशी मुळीच नको ॥3॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O husband, thou art never neglectful, thou guardest both the present life, and the life to come. Thou shining like the sun, in knowledge, if thou controllest thy organ of procreation, wilt derive perpetual pleasure in thy affairs. O finisher of the fourth Ashrama (stage of life). I select thee as my husband for my perpetual happiness.

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    Meaning

    Aditya, man of brilliance and discipline, you are never funny or neglectful. Bright, generous and holy, superior in wisdom and character, you are doing full and fair justice to your life both present and future, just as you would do to the transcendent state of your mind and consciousness. If your sex-life and your mind and senses are stable under control, free from indulgence, you will enjoy the supreme bliss of happiness in a state of enlightenment. Man of light and virtue, I accept you and dedicate myself to you for a lifetime.

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    Translation

    You are never negligent. You protect our both the lives (the present and the succeeding ones). O sun, this is your fourth (purest) impelling force, immortal, placed in heaven. (1) You to the suns. (2)

    Notes

    Kadacana prayacchasi, when are you negligent ? Ubhe janmani, both the lives: this and the vonder one. Savanam, impelling force.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনগৃর্হস্থধর্মমাহ ॥
    পুনরায় গৃহস্থের ধর্ম্ম পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- এই মন্ত্রে নকারের অধ্যাহার আকাঙ্ক্ষা হওয়ার জন্য হয় । হে পতে ! আপনি (কদা) কখন (চন)(প্র) (য়ুচ্ছসি) প্রমাদ করেন না, স্বীয় (উভে) উভয় (জন্মনী) বর্ত্তমান ও পরজন্মকে (পাসি) নিরন্তর পালন করেন । হে (আদিত্য) বিদ্যায় গুণে সূর্য্য তুল্য প্রকাশমান ! (তে) আপনার (সবনম্) উৎপত্তি ধর্ম্মযুক্ত কার্য্য সিদ্ধকারী (ইন্দ্রিয়ম্) মনাদি ইন্দ্রিয়ের (আ) (তস্থৌ) বশে থাকুক, আপনি (দিবি) প্রকাশিত ব্যবহারে (অমৃতম্) অবিনাশী সুখ প্রাপ্ত হউন । হে (তুরীয়) চতুর্থাশ্রম পূর্ণকারী! আদিতেভ্যঃ) প্রতি মাসের সুখের জন্য (ত্বা) দৃঢ়েন্দ্রিয় আপনাকে আমি স্ত্রী স্বীকার করিতেছি ॥ ৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে প্রমাদী পুরুষ বিবাহিত স্ত্রীকে ত্যাগ করিয়া পরস্ত্রীর সেবন করে, সে ইহলোক পরলোকে দুর্ভাগা হয় এবং যে সংযমী স্বীয় স্ত্রীর ইচ্ছুক, অন্য কোন স্ত্রীর কামনা করে না, সে উভয় লোক পরম সুখে কেন ভোগ করিবে না? সুতরাং সকল স্ত্রীদের উচিত যে, জিতেন্দ্রিয় পতির সেবন করিবে অন্যের নহে ॥ ৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ক॒দা চ॒ন প্র য়ু॑চ্ছস্যু॒ভে নি পা॑সি॒ জন্ম॑নী । তুরী॑য়াদিত্য॒ সব॑নং তऽইন্দ্রি॒য়মা ত॑স্থাব॒মৃতং॑ দি॒ব্যা᳖দি॒ত্যেভ্য॑স্ত্বা ॥ ৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    কদা চন প্রয়ুচ্ছসীত্যস্যাঙ্গিরস ঋষিঃ । আদিত্যো গৃহপতির্দেবতা । নিচৃদার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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