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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - आदित्यो गृहपतिर्देवताः छन्दः - निचृत् जगती स्वरः - निषादः
    95

    य॒ज्ञो दे॒वानां॒ प्रत्ये॑ति सु॒म्नमादि॑त्यासो॒ भव॑ता मृड॒यन्तः॑। आ वो॒ऽर्वाची॑ सुम॒तिर्व॑वृत्याद॒ꣳहोश्चि॒द्या व॑रिवो॒वित्त॒रास॑दादि॒त्येभ्य॑स्त्वा॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञः। दे॒वाना॑म्। प्रति॑। ए॒ति॒। सु॒म्नम्। आदि॑त्यासः। भव॑त। मृ॒ड॒यन्तः॑। आ। वः॒। अ॒र्वाची॑। सु॒म॒तिरिति॑ सुऽम॒तिः। व॒वृ॒त्या॒त्। अ॒होः। चि॒त्। या। व॒रि॒वो॒वित्त॒रेति॑ वरिवो॒वित्ऽत॑रा। अस॑त्। आ॒दि॒त्येभ्यः। त्वा॒ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञो देवानाम्प्रत्येति सुम्नमादित्यासो भवता मृडयन्तः । आ वोर्वाची सुमतिर्ववृत्यादँहोश्चिद्या वरिवोवित्तरासदादित्येभ्यस्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञः। देवानाम्। प्रति। एति। सुम्नम्। आदित्यासः। भवत। मृडयन्तः। आ। वः। अर्वाची। सुमतिरिति सुऽमतिः। ववृत्यात्। अहोः। चित्। या। वरिवोवित्तरेति वरिवोवित्ऽतरा। असत्। आदित्येभ्यः। त्वा॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनर्गृहाश्रमविषयमाह॥

    अन्वयः

    हे आदित्यासः! यूयं देवानां वो युष्माकं यो गृहाश्रमाख्यो यज्ञः सुम्नं प्रत्येति, यांहोऽर्वाची वरिवोवित्तरा सुमतिराववृत्यात्। या त्वादित्येभ्यः प्राप्तोत्तमविद्याशिक्षाऽसत्, तया चिद् युक्त्या वा वां सदा मृडयन्तो भवत॥४॥

    पदार्थः

    (यज्ञः) स्त्रीपुरुषाभ्यां सङ्गमनीयः (देवानाम्) विदुषाम् (प्रति) प्रतीतम् (एति) प्रापयति (सुम्नम्) सुखम्। सुम्नमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं॰३।६) (आदित्यासः) आदित्यवद्विद्यादिशुभगुणैः प्रकाशमानाः (भवत) (मृडयन्तः) सर्वान् सुखयन्तः (आ) (वः) युष्माकम् (अर्वाची) सुशिक्षाविद्याभ्यासात् पश्चाद् विज्ञानमञ्चति प्राप्नोत्यनया सा (सुमतिः) शोभना चाऽसौ मतिः (ववृत्यात्) वर्त्तताम्। अत्र बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰२।४।७६) इति शपः श्लुर्व्यत्ययेन परस्मैपदञ्च। (अंहोः) सुखप्रापकस्य गृहाश्रमस्याऽनुष्ठानस्य (चित्) अपि (या) (वरिवोवित्तरा) वरिवः सत्यं व्यवहारं वेत्यनया साऽतिशयिता (असत्) भवेत्, लेट् प्रयोगोऽयम्। (आदित्येभ्यः) सर्वेभ्यो मासेभ्यः (त्वा) त्वाम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ३। ५। १५) व्याख्यातः॥४॥

    भावार्थः

    विवाहं कृत्वा स्त्रीपुरुषाभ्यामाप्तानां विदुषां सङ्गाद्येन येन कर्मणा विद्यासुशिक्षाबुद्धिधनं सौहार्दं परोपकारश्च वर्द्धेत, तत्तदनुष्ठेयमिति॥४॥

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    विषयः

    पुनर्गृहाश्रमविषयमाह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे आदित्यासः। आदित्यवद्विद्यादिशुभगुणैः प्रकाशमाना: यूयं देवानां विदुषां वः=युष्माकं यो गृहाश्रमाख्यो यज्ञ: स्त्रीपुरुषाभ्यां संगमनीयः सुम्नं सुखं प्रति-एति प्रतीतं प्रापयति, या-अंहो: सुखप्रापकस्य गृहाश्रमस्यानुष्ठानस्य वरिवोवित्तरा वरिवः=सत्यं व्यवहारं वेत्त्यनया साऽतिशयिता सुमतिः शोभना चासौ मतिः आववृत्यात् वर्त्तताम् । या त्वा त्वाम् आदित्येभ्यः सर्वेभ्यो मासेभ्यः प्राप्तोत्तमविद्याशिक्षाऽसत् भवेत् तया चित् अपि युक्त्या वा वां सदा मृडयन्तः सर्वान् सुखयन्तः भवत ॥ ८ । ४॥ [हे आदित्यासः ! यूयं देवानां वः=युष्माकं यो गृहाश्रमाख्यो यज्ञः सुम्नं प्रत्येति, या......सुमति- राववृत्यात्, या त्वादित्येभ्यः प्राप्तोत्तमविद्यासुशिक्षाऽसत् तया सदा मृडयन्तो भवत]

    पदार्थः

    (यज्ञः) स्त्रीपुरुषाभ्यां सङ्गमनीय: (देवानाम्) विदुषाम् (प्रति) प्रतीतम् (एति) प्रापयति (सुम्नम्) सुखम् । सुम्नमिति सुखनामसु पठितम् ॥ निघं० ३ । ६ ॥(आदित्यासः) आदित्यवद्विद्या- दिशुभगुणैः प्रकाशमाना: (भवत)(मृडयन्तः) सर्वान् सुखयन्तः (आ)(वः) युष्माकम् (अर्वाची) सुशिक्षाविद्याभ्यासात्पश्चाद्विज्ञानमञ्चति=प्राप्नोत्यनया सा (सुमतिः) शोभना चाऽसौ मतिः (ववृत्यात्) वर्त्तताम् । अत्र बहुलं छन्दसि ॥ अ० २ । ४ । ७६ ॥ इति शपः श्लुर्व्यत्ययेन परस्मैपदञ्च(अंहोः) सुखप्रापकस्य गृहाश्रमस्याऽनुष्ठानस्य (चित्) अपि (या)(वरिवोवित्तरा) वरिवः=सत्यं व्यवहारं वेत्यनया साऽतिशयिता (असत्) भवेत् । लेट्प्रयोगोऽयम्(आदित्येभ्यः) सर्वेभ्यो मासेभ्यः (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मन्त्र: शत० ४ । ३ । ५ । १५ व्याख्यातः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    विवाहं कृत्वा स्त्रीपुरुषाभ्यामाप्तानां विदुषां संगाद्येन येन कर्मणा विद्यासुशिक्षाबुद्धिवर्द्धनं सौहार्दं परोपकारश्च वर्द्धेत, तत्तदनुष्ठेयमिति ॥ ८ । ४॥

    विशेषः

    कुत्सः । आदित्यो गृहपति:=विद्यावान् गृहस्थः ॥ निचृज्जगती। निषादः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी गृहाश्रम का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (आदित्यासः) सूर्य्यलोकों के समान विद्या आदि शुभ गुणों से प्रकाशमान! आप जो (देवानाम्) विद्वान् (वः) आप लोगों का यह (यज्ञः) स्त्रीपुरुषों के वर्त्तने योग्य गृहाश्रम व्यवहार (सुम्नम्) सुख को (प्रति) (एति) निश्चय करके प्राप्त करता है और (या) जो (अंहोः) गृहाश्रम के सुख को सिद्ध करने वाली (अर्वाची) अच्छी शिक्षा और विद्याभ्यास के पीछे विज्ञानप्राप्ति का हेतु (वरिवोवित्तरा) सत्यव्यवहार का निरन्तर विज्ञान देने वाली आप लोगों की (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ मार्ग में (आ) निरन्तर (ववृत्यात्) प्रवृत्त होवे, जो (आदित्येभ्यः) आप्त विद्वानों से उत्तम विद्या और शिक्षा जो (त्वा) तुझ को (असत्) प्राप्त हो, (चित्) उस बुद्धि से ही युक्त हम दोनों स्त्री-पुरुष को (मृडयन्तः) सदा सुख देते (भवत) रहिये॥४॥

    भावार्थ

    विवाह करके स्त्रीपुरुषों को चाहिये कि जिस-जिस काम से विद्या, अच्छी शिक्षा, बुद्धि, धन, सुहृद्भाव और परोपकार बढ़े, उस कर्म का सेवन अवश्य किया करें॥४॥

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    विषय

    दैनिक अग्निहोत्र

    पदार्थ

    गत मन्त्र का आङ्गिरस अप्रमाद से धर्म का पालन करता हुआ सब बुराइयों का संहार करने से ‘कुत्स’ हो जाता है। इस कुत्स के घर में १. ( देवानां यज्ञः ) = देवयज्ञ अर्थात् अग्निहोत्र ( प्रतिएति ) = प्रतिदिन आता है, अर्थात् इसके घर में अग्निहोत्र एक जरामर्य सत्र बना रहता है। मृत्यु तक इसमें विच्छेद नहीं आता। 

    २. इसी का परिणाम है कि घर में ( सुम्नम् ) = सुख-ही-सुख रहता है। 

    ३. ( आदित्यासः ) = हे सूर्यसम सन्तानो ! तुम ( मृडयन्तः ) = सुखी करनेवाले ( भवत ) = होवो। घर में यज्ञों के चलने पर सन्तानों के जीवन उत्तम होते हैं और उनकी वृत्ति क्लब्स [ Clubs ] आदि की ओर नहीं होती। 

    ४. ‘आदित्यास’ का अर्थ आदित्य ब्रह्मचारियों से भी है। ये अतिथिरूपेण हमारे घरों में आते रहें, हमपर इनकी कृपा बनी रहे। 

    ५. हे आदित्यो! ( वः ) = तुम्हारी ( सुमतिः ) = कल्याणी मति ( अर्वाची ) = ‘अर्वाङ् अञ्चति’ हृदय को प्राप्त होनेवाली, हृदयङ्गम होनेवाली, ( आववृत्यात् ) = सर्वथा हो। ( या ) = जो ( अंहोः चित् ) = ज्ञानी को भी ( वरिवोवित्तरा ) = उत्कृष्ट ज्ञानधन को प्राप्त करानेवाली ( असत् ) = हो। इस मन्त्रभाग का यह भी अर्थ हो सकता है कि ( अंहो चित् ) = पापवृत्तिवाले को भी यह आदित्यों से दी गई सुमति उत्तम सेवनीय धन या पूजा की वृत्ति को प्राप्त करानेवाली होती है। विद्वान् अतिथियों के सम्पर्क में इन गृहस्थों को सदा सुमति प्राप्त होती रहे और ये अपने ज्ञान को अधिकाधिक बढ़ानेवाले हों। 

    ६. ( आदित्येभ्यः त्वा ) = मैं तुझे उत्तम सन्तानों के लिए प्राप्त होती हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — १. घरों में अग्निहोत्र नियम से हो, जिससे वहाँ सुख का राज्य हो। २. विद्वान् अतिथियों का आना-जाना बना रहे, जिससे उनकी सुमति इन्हें सदा प्राप्त रहे। घरों में उत्तम सन्तान का निर्माण हो।

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    विषय

    विद्वान गृहस्थों का कर्तव्य।

    भावार्थ

     ( देवानां यज्ञः ) देव, विद्वान् पुरुषों का संग या गृहस्थायज्ञ सुम्नम् प्रति एति ) सुख प्राप्त कराता है। हे ( आदित्यासः ) आदित्य के समान तेजस्वी पुरुषों ! आप लोग ( मृडयन्तः भवत ) सबको सदा सुख देनेहारे बने रहो । ( वः ) आप लोगों की वह ( सुमतिः ) शुभमति ( अर्वाची ) हमारे प्रति ( आ ववृत्यात्) अनुकूल बनी रहे । ( या ) जो ( अहो : चित् ) पापी पुरुष को भी ( वरिवः वितत्या ) अति अधिक ऐश्वर्य या सुखलाभ करानेवाली (असत्) होती है। हे पत्र ! या हे सोम ! (त्वा आदित्येभ्यः ) तुझे मैं ऐसे आदित्य अर्थात् तेजस्वी पुरुषों की रक्षा के लिये नियुक्त करता हूं | या हे पते ! तुझे मैं १२ मासों के लिये वरती हूं ॥ शत० ४ । ३ । ५ । १५ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः । आदित्यो गृहपतिर्देवता । निचृत् जगती । निषादः ॥

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    विषय

    गृहाश्रम विषय का फिर उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे (आदित्यासः) सूर्य के समान विद्यादि शुभ गुणों से प्रकाशमान विद्वानो ! आप लोग और (व:) आप (देवानाम्) विद्वानों का जो गृहाश्रम नामक (यज्ञः) स्त्री-पुरुष के द्वारा प्राप्त करने योग्य जो यज्ञ है वह (सुम्नम्) सुख को (प्रति+एति) प्राप्त कराता है। और जो (अंहो:) सुखदायक गृहाश्रम के व्यवहार की (वरिवोवित्तरा) सत्य व्यवहार को जानने का अत्युत्तम साधन रूप (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि है वह (आववृत्यात्) सदा वर्तमान रहे। और-- जो (त्वा) आपको (आदित्येभ्यः) सब महीनों से सम्बन्धित उत्तम विद्या और शिक्षा प्राप्त (असत्) है उससे (चित्) भी अथवा युक्ति से (वाम्) स्त्री-पुरुष को सदा (मृडयन्तः) सुखी रखो । ८।४॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि वेविवाह करके प्राप्त विद्वानों के संग से, जिस-जिस कर्म से विद्या, सुशिक्षा, बुद्धि, मित्रता और परोपकार की वृद्धि हो वैसा करें॥८।४ ॥

    प्रमाणार्थ

    (सुम्नम्) यह शब्द निघं० (३।६) में सुख-नामों में पढ़ा है। (ववृत्यात्) वर्त्तताम् । यहाँ'बहुलं छन्दसि' (अ० २ । ४ । ७६ ) इस सूत्र से 'शप्' को श्लु और व्यत्यय से परस्मैपद है। (असत्) भवेत् । यह लेट् लकार का प्रयोग है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।३।५ । १५ ) में की गई है ॥ ८ । ४ ॥

    भाष्यसार

    १. गृहाश्रम-- सूर्य के समान विद्या आदि गुणों से प्रकाशमान गृहस्थ लोग प्राप्त विद्वानों के संग से सुखदायक गृहाश्रम रूप यज्ञ का अनुष्ठान करें। सुख के प्रापक गृहाश्रम के सत्य व्यवहार को जनाने वाली सुमति=विद्या और सुशिक्षा हैं। और जो उत्तम विद्या और शिक्षा प्राप्त हो उससे तथा अपनी युक्ति से भी सबको सुखी करो। गृहाश्रम रूप यज्ञ से विद्या, सुशिक्षा, बुद्धि, मित्रता और परोपकार को बढ़ाओ । २. गृहपति लोग विद्या आदि शुभ गुणों से सूर्य के समान प्रकाशमान रहें (आदित्य) ।। ८ । ४ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    गृहस्थाश्रमी स्त्री-पुरुषांनी ज्या कर्मामुळे विद्या, चांगले शिक्षण, बुद्धी, धन, सुहृदभाव व परोपकार वाढेल, असे कर्म केले पाहिजे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात देखील गृहाश्रमाविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पति-पत्नी म्हणत आहेत) हे (आदिव्यास:) सूर्याप्रमाणे विद्या आदी शुभगुणांनी प्रकाशमान असलेले आपण सर्व (देवानाम्) विद्वज्जन, (व:) आपण करीत असलेला हा (यज्ञ:) गृहस्थाश्रमाच्या कर्तव्यांचे पालनरुप यज्ञ सर्व स्त्री-पुरुषांसाठी आदर्श व अनुकरणीय आहे आणि (सुम्नम्) सर्वांना निश्चयाने सुखाकडे (एति) नेतो. तसेच (अंहो:) ग्रहाश्रमाला सुखदायी करणारी (अर्वाची) उत्तम ज्ञान देणारी व विद्या, विज्ञान-प्राप्तीचे कारण असलेली आणि (वदिवोभित्तरा) सत्याचरण शिकविणारी व सन्मार्गावर नेणारी आपली (या) जी (सुमति:) श्रेष्ठबुद्धी आहे ती सदा निरंतर श्रेष्ठ मार्गावर (आ) (ववृत्यात्) चालत राहो. (अदित्यंभ्य:) आप्त विद्वानांकडून (त्वा) आपणांस (यापुढीही) विद्या-ज्ञान (असत्) मिळत राहो (त्यामुळे आपण ज्या श्रेष्ठ मार्गावर चालत आहात, गृहाश्रमात आम्ही देखील आपले अनुकरण करीत राहणार) (चित्) आपल्या त्या श्रेष्ठबुद्धीने आपण आम्हा पति-पत्नीला (मृडयन्त:) सदा सुख देत रहा. ॥4॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सर्व स्त्री-पुरुषांसाठी हे उचित आहे की विवाह केल्यानंतर ज्या ज्या कार्य-व्यवहारादीमुळे विद्या, उत्तम ज्ञान, बुद्धी, धन, सौहार्द्र आणि परोपकारवृत्ती वाढेल, ते ते कर्म अवश्य आचरावेत. ॥4॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Marriage of the learned couple is a source of pleasure. O noblepersons may your fine intellect, that understands the significance of married life, make you well versed in knowledge after the completion of student life; and teach you how to conduct truthful dealings, and tread on the path of virtue. May you conduce to the pleasure of the newly married couple, through the knowledge and teaching you receive from the learned.

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    Meaning

    The home-yajna of a noble husband and noble wife brings joy and grace of the gods to the family. Noble and brilliant people of wisdom and virtue, be kind and bless the home with peace and happiness. May your wisdom, auspicious and blissful, which gives the knowledge of right conduct and behaviour, come hither and always abide with us to guide us and protect us from sin and evil. I accept you for dedication to the noble and the brilliant people for a life-time.

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    Translation

    The sacrifice is pleasing to the enlightened ones. O suns, be bestowers of joy to us. Towards us, may your favour be inclined. Be our best deliverer from the sin. (1) You to the suns. (2)

    Notes

    Sumati, favourable inclination. Amhah, sin.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনগৃর্হাশ্রমবিষয়মাহ ॥
    পুনরায় গৃহাশ্রমের বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (আদিত্যাসঃ) সূর্য্যলোক সম বিদ্যাদি শুভ গুণ দ্বারা প্রকাশমান ! আপনি যে (দেবানাম্) বিদ্বান্ (বঃ) আপনাদের এই (য়জ্ঞঃ) স্ত্রী-পুরুষের বর্ত্তনীয় গৃহাশ্রম ব্যবহার (সুম্নম্) সুখকে (প্রতি) (এতি) নিশ্চয় করিয়া প্রাপ্ত করেন এবং (য়া) যাহা (অংহো) গৃহাশ্রমের সুখকে প্রতিপন্নকারিণী (অর্বাচী) ভাল শিক্ষা ও বিদ্যাভ্যাসের পিছনে বিজ্ঞান প্রাপ্তির হেতু (বরিবোবিত্তরা) সত্যব্যবহারের নিরন্তর বিজ্ঞান দাত্রী আপনাদেরকে (সুমতিঃ) শ্রেষ্ঠ বুদ্ধি, শ্রেষ্ঠ মার্গে (আ) নিরন্তর (ববৃত্যাদ্) প্রবৃত্ত হউক, যাহা (আদিতেভ্যঃ) আপ্ত বিদ্বান্দিগের হইতে উত্তম বিদ্যা ও শিক্ষা (ত্বা) আপনাকে (অসৎ) প্রাপ্ত হউক (চিৎ) সেই বুদ্ধি দ্বারা যুক্ত আমরা উভয় স্ত্রী-পুরুষকে (মৃডযন্তঃ) সর্বদা সুখ দিতে (ভবত) থাকুন ॥ ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- বিবাহ করিয়া স্ত্রী পুরুষদিগের উচিত–যে-যে কর্ম্ম দ্বারা বিদ্যা, ভাল শিক্ষা, বুদ্ধি, ধন, সুহৃদ্ভাব ও পরোপকার বৃদ্ধি পায় সেই কর্ম্মের সেবন অবশ্যই করিতে থাকিবে ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়॒জ্ঞো দে॒বানাং॒ প্রত্যে॑তি সু॒ম্নমাদি॑ত্যাসো॒ ভব॑তা মৃড॒য়ন্তঃ॑ । আ বো॒ऽর্বাচী॑ সুম॒তির্ব॑বৃত্যাদ॒ꣳহোশ্চি॒দ্যা ব॑রিবো॒বিত্ত॒রাস॑দাদি॒ত্যেভ্য॑স্ত্বা ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়জ্ঞো দেবানামিত্যস্য কুৎস ঋষিঃ । আদিত্যো গৃহপতির্দেবতা । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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