यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 15
ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः
देवता - गृहपतिर्देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
75
समि॑न्द्र णो॒ मन॑सा नेषि॒ गोभिः॒ सꣳ सू॒रिभि॑र्मघव॒न्त्सꣳ स्व॒स्त्या। सं ब्रह्म॑णा दे॒वकृ॑तं॒ यदस्ति॒ सं दे॒वाना॑ सुम॒तौ य॒ज्ञिया॑ना॒ स्वाहा॑॥१५॥
स्वर सहित पद पाठसम्। इ॒न्द्र॒। नः॒। मन॑सा। ने॒षि॒। गोभिः॑। सम्। सू॒रिभि॒रिति॑ सू॒रिऽभिः॑। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। सम्। स्व॒स्त्या। सम्। ब्रह्म॑णा। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। यत्। अस्ति॑। सम्। दे॒वाना॑म्। सु॒म॒ताविति॑ सुऽम॒तौ। य॒ज्ञियाना॑म्। स्वाहा॑ ॥१५॥
स्वर रहित मन्त्र
समिन्द्र णो मनसा नेषि गोभिः सँ सूरिभिर्मघवन्त्सँ स्वस्त्या । सम्ब्रह्मणा देवकृतँयदस्ति सन्देवानाँ सुमतौ यज्ञियानाँ स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्। इन्द्र। नः। मनसा। नेषि। गोभिः। सम्। सूरिभिरिति सूरिऽभिः। मघवन्निति मघऽवन्। सम्। स्वस्त्या। सम्। ब्रह्मणा। देवकृतमिति देवऽकृतम्। यत्। अस्ति। सम्। देवानाम्। सुमताविति सुऽमतौ। यज्ञियानाम्। स्वाहा॥१५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनर्मित्रकृत्यमाह॥
अन्वयः
हे मघवन्निन्द्र विद्यादिपरमैश्वर्य्ययुक्त समध्यापकोपदेशक! यतस्त्वं संमनसा सन्मार्गं गोभिः संस्वस्त्या पुरुषार्थं सूरभिः सह ब्रह्मणा विद्यां यज्ञियानां देवानां स्वाहा सुमतौ देवकृतं यज्ञकृतं नोऽस्मान् सन्नेषि, तस्माद् भवानस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि॥१५॥
पदार्थः
(सम्) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त गृहपते! (नः) अस्मान् (मनसा) विज्ञानसहितेनान्तःकरणेन (नेषि) प्राप्नोषि। अत्र बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰२।४।७३) इति शबभावः। (गोभिः) धेनुभिः सुष्ठुवाग्युक्तैर्व्यवहारैर्वा (सम्) (सूरभिः) मेधाविभिर्विद्वद्भिरिव (मघवन्) परमपूजितधनयुक्त! (सम्) (स्वस्त्या) सुखेन (सम्) (ब्रह्मणा) बृहता वेदज्ञानेन धनेन वा, ब्रह्मेति धननामसु पठितम्। (निघं॰२।१०)। (देवकृतम्) इन्द्रियकृतं कर्म्म (यत्) (अस्ति) (देवानाम्) आप्तानां विपश्चिताम् (सुमतौ) शोभनायां बुद्धाविव (यज्ञियानाम्) यज्ञस्य पतिं विधातुमर्हाणाम् (स्वाहा) सत्यया वाचा। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ४। ४। ७) व्याख्यातः॥१५॥
भावार्थः
गृहस्थैर्विद्वांसोऽतः पूजनीया यतस्ते बालकान् स्वशिक्षया सुगुणयुक्तान् राजप्रजाजनांश्चैश्वर्य्य- सहितान् सम्पादयन्ति॥१५॥
विषयः
पुनर्मित्रकृत्यमाह ॥
सपदार्थान्वयः
हे मघवन् ! परमपूजितधनयुक्त इन्द्र=विद्यादिपरमैश्वर्ययुक्त समध्यापकोपदेशक ! यतस्त्वं संमनसा विज्ञानसहितेनान्तःकरणेन सन्मार्गं, गोभि: धेनुभिः सुष्ठुवाग्युक्तैर्व्यवहारैर्वा संस्वस्त्या सुखेन पुरुषार्थं, सूरिभिःमेधाविभिर्विद्वद्भिरिव सह ब्रह्मणा बृहता वेदज्ञानेन धनेन वा विद्यां, [यत्] यज्ञियानां यज्ञस्य पतिं विद्यातुमर्हाणांदेवानाम्आप्तानां विपश्चितां स्वाहा सत्यया वाचा सुमतौ शोभनायां बुद्धाविव देवकृतम्=यज्ञकृतं इन्द्रियकृतं कर्म्म [अस्ति तत्] नः=अस्मान् सम्-नेषि प्राप्नोषि तस्माद् भवानस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ८।१५॥ [हे मघवन्निन्द्र=विद्यादिपरमैश्वर्ययुक्त समध्यापकोपदेशक ! यतस्त्वं संमनसा सन्मार्गं, गोभिः संस्वस्त्या पुरुषार्थं.....नः=अस्मान् सम्+नेषि, तस्माद् भवानस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽस्ति]
पदार्थः
(सम्)(इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त गृहपते ! (नः) अस्मान् (मनसा) विज्ञानसहितेनान्तःकरणोन (नेषि) प्राप्नोषि । अत्र बहुलं छन्दसि ॥ अ० २ । ४ ।७३॥इति शबभावः(गोभिः) धेनुभिः सुष्ठुवाग्युक्तैर्व्यवहारैर्वा (सम्)(सूरिभिः) मेधाविभिर्विद्वद्भिरिव (मघवन्) परमपूजितधनयुक्त ! (सम् )(स्वस्त्या) सुखेन (सम्)(ब्रह्मणा) बृहता=वेदज्ञानेन धनेन वा । ब्रह्मेति धननामसु पठितम् ॥ निघं० २ । १० ॥(देवकृतम्) इन्द्रियकृतं कर्म्म (यत्)(अस्ति)(सम्)(देवानाम्) आप्तानां विपश्चिताम् (सुमतौ) शोभनायां बुद्धाविव (यज्ञियानाम्) यज्ञस्य पतिं विधातुमर्हाणाम् (स्वाहा) सत्यया वाचा ॥ अयं मन्त्र: शत० ४ । ४ । ४ । ७ व्याख्यातः ॥ १५॥
भावार्थः
गृहस्थैर्विद्वांसोऽतः पूजनीया यतस्ते बालकान् स्वशिक्षया सुगुणयुक्तान् राजा- प्रजाजनाँश्चैश्वर्यसहितान् सम्पादयन्ति ॥ ८ । १५॥
विशेषः
समिन्द्रेत्यस्यात्रिः। गृहपति:=गृहस्थः ॥ भुरिगार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मित्र का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (मघवन्) पूज्य धनयुक्त (इन्द्र) सत्यविद्यादि ऐश्वर्य्य सहित (सम्) सम्यक् पढ़ाने और उपदेश करनेहारे! आप जिससे (सम्) (मनसा) उत्तम अन्तःकरण से (सम्) अच्छे मार्ग (गोभिः) गोओं वा (सम्) (स्वस्त्या) अच्छे-अच्छे वचनयुक्त सुखरूप व्यवहारों से (सूरिभिः) विद्वानों के साथ (ब्रह्मणा) वेद के विज्ञान वा धन से विद्या और (यत्) जो (यज्ञियानाम्) यज्ञ के पालन करने वाले को करने योग्य (देवानाम्) विद्वानों की (स्वाहा) सत्य वाणीयुक्त (सुमतौ) श्रेष्ठ बुद्धि में (देवकृतम्) विद्वानों के किये कर्म्म हैं, उसको (स्वाहा) सत्य वाणी से (नः) हम लोगों को (संनेषि) सम्यक् प्रकार से प्राप्त करते हो, इसी से आप हमारे पूज्य हो॥१५॥
भावार्थ
गृहस्थ जनों के द्वारा विद्वान् लोग इसलिये सत्कार करने योग्य हैं कि वे बालको को अपनी शिक्षा से गुणवान् और राजा तथा प्रजा के जनों को ऐश्वर्य्ययुक्त करते हैं॥१५॥
विषय
देवों की सुमति में [ ‘अत्रि’ बनना ]
पदार्थ
उसी प्रकरण में कहते हैं कि १. हे ( इन्द्र ) = सब शत्रुओं का विदारण करनेवाले प्रभो! आप ( नः ) = हमें ( मनसा ) = प्रशस्त मननशील मन से ( संनेषि ) = सम्यक्तया सङ्गत करते हैं। सात्त्विक आहार के द्वारा हमारा मन पवित्र होता है।
२. ( गोभिः ) = [ गावः इन्द्रियाणि ] उत्तम इन्द्रियों से आप हमें ( संनेषि ) = सङ्गत करते हो।
३. हे ( मघवन् ) = ऐश्वर्यवन्! अथवा इन ऐश्वर्यों से विविध यज्ञों [ मघ = मख ] को सिद्ध करनेवाले प्रभो! आप हमें ( सूरिभिः ) = विद्वानों के साथ ( सं ) = सङ्गत करते हो। इन विद्वानों के सम्पर्क से ही हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तमोत्तम ज्ञानों को प्राप्त कराके हमें उत्तम मननशील मनवाला बनाती है और इस प्रकार ४. ( स्वस्त्या संनेषि ) = आप हमें उत्तम— कल्याणमय जीवन से सङ्गत करते हैं।
५. इस उत्तम जीवन के लिए ( ब्रह्मणा ) = उस ज्ञान से हमें ( सम् ) = सङ्गत करते हैं ( यत् ) = जो ज्ञान ( देवकृतम् ) = महादेव आपसे सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि आदि ऋषियों के हृदय में ( अस्ति ) = प्रकाशित किया गया है। या जो ज्ञान विद्वान् ऋषि-मुनियों से दिया गया है।
६. हे प्रभो ! आप ऐसी कृपा करो, जिससे हम सात्त्विक आहार से सात्त्विक रुचिवाले बनें और आप हमें ( यज्ञियानाम् ) = [ यज्ञसम्पादिनाम् ] यज्ञों का सम्पादन करनेवाले ( देवानाम् ) = देवों की ( सुमतौ ) = कल्याणी मति में ( संनेषि ) = सङ्गत कीजिए।
७. हे प्रभो! इस सबके लिए हम ( स्वाहा ) = आपके प्रति अपना अर्पण करते हैं अथवा स्वादादि की स्वार्थवृत्तियों को छोड़ते हैं।
भावार्थ
भावार्थ — सात्त्विक आहार के द्वारा प्रभु हमारी रुचि को ही परिवर्तित कर देते हैं और हम विद्वानों—यज्ञिय देवों के सम्पर्क में रहकर अपने जीवनों को उत्तम बना पाते हैं। देवों की कल्याणी मति में रहते हुए हम ‘काम-क्रोध-लोभ’ से ऊपर उठते हैं। हमारा मन उत्तम होता है, कामादि तीनों से शून्य होने के कारण हम ‘अ-त्रि’ होते हैं।
विषय
उत्तम नेताओं का कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) इन्द्र ! ऐश्वर्यवन् हे ( मघवन् ) परम श्रेष्ठ ! धनवन् ! (नः) हमें ( मनसा ) मनसे ( गोभिः ) इन्द्रियों, वेदवाणियों गौ आदि पशु और ( सूरिभिः ) विद्वान् पुरुषों के साथ ( सं नेषि ) संगत कर या इन द्वारा हमें सत्मार्ग पर चलाओ और ( ब्रह्मणा ) ब्रह्म, वेद या धन से और ( देवकृतम् यत् अस्ति ) देव, विद्वानों या इन्द्रियाँ द्वारा जो उत्तम कार्य किया जाता है उससे भी हमें ( सं नेषि ) संगत कर । हमें उससे युक्त कर और ( यज्ञियानां ) सत्संग करने योग्य, आदरणीय ( देवानाम् ) श्रेष्ठ विद्वान् पुरुषों के ( सुमतौ ) शुभ मति के अधीन हमें ( स्वाहा ) उत्तम ज्ञानवाणी द्वारा ( स्वस्त्या ) सुखपूर्वक ( सं नेषि ) सब कुछ प्राप्त करा । ( स्वाहा ) यह तेरा उत्तम यशोजनक कर्त्तव्य है | ॥ शत० ४ । ४ । ४ । ७ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिऋषिः। विश्वेदेवा देवता । भुरिगार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
मित्र के कर्त्तव्य का फिर उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे (मघवन्) परम पूजित धन वाले (इन्द्र) विद्या आदि परम ऐश्वर्य से युक्त उत्तम अध्यापक और उपदेशक! क्योंकि आप--(संमनसा) विज्ञानयुक्त अन्तःकरण से सन्मार्ग को, (गोभिः) गायों वा उत्तम वाणी-व्यवहारों से एवं(संस्वस्त्या) सुख से पुरुषार्थ को, (सूरिभिः) मेधावी विद्वानों के साथ (ब्रह्मणा) महान् वेदज्ञान वा धन से विद्या को [यत्] और जो (यज्ञियानाम्) यज्ञ के पति बनने के योग्य (देवानाम्) आप्त विद्वानों की (स्वाहा) सत्य वाणी से (सुमतौ) उत्तम बुद्धि में (देवकृतम्) यज्ञ कर्म [अस्ति] है उसे (नः) हमें (सन्नेषि) प्राप्त कराते हो इसलिये आप हमारे पूज्य हो ॥ ८ । १५ ॥
भावार्थ
गृहस्थ लोग विद्वानों की इसलिये पूजा करें कि जिससे वे बालकों को अपनी शिक्षा के द्वारा श्रेष्ठ गुणों से, राजा और प्रजा जनों को ऐश्वर्य से युक्त करते हैं ।। ८ । १५ ।।
प्रमाणार्थ
(नेषि) प्राप्नोषि। यहाँ 'बहुलं छन्दसि' (अ० २।४ । ७३) इस सूत्र से 'शप्' का अभाव है । (ब्रह्मणा) 'ब्रह्म' शब्द निघं० (२ । १०) में धन-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ४।४ । ७) की गई है ॥ ८ । १५ ।।
भाष्यसार
मित्रों का कर्त्तव्य--विद्या आदि परम पूजित धन से युक्त श्रेष्ठ अध्यापक और उपदेशक लोग गृहस्थ जनों के मित्र हैं क्योंकि वे विज्ञान युक्त मन से सन्मार्ग का उपदेश करते हैं। गौ आदि पशुओं की रक्षा, सत्यभाषण आदि उत्तम वाग्व्यवहार तथा अन्य सुख के साधनों से पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) प्राप्ति का उपदेश करते हैं। मेधावी विद्वानों के द्वारा उत्तम शिक्षा से महान् वेदज्ञान वा धन सहित विद्या को प्राप्त करने का बालकों, राजा और प्रजा जनों को उपदेश करते हैं। यज्ञ के पति बनने के योग्य आप्त विद्वानों की सत्यभाषण युक्त वाणी से सुमति की प्राप्ति के लिये यज्ञकर्म का उपदेश करते हैं । इसलिये सबके सत्कार के योग्य होते हैं ।। ८ । १५ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
गृहस्थाश्रमी लोकांनी विद्वान लोकांचा यासाठी सत्कार करावा, की ते बालकांना उपदेश देऊन गुणवान करतात व राजा आणि प्रजा यांना ऐश्वर्यवान बनवितात.
विषय
पुनश्च मित्राच्या कर्त्तव्याविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (गृहस्थजन विद्वानांस म्हणत आहेत) हे (मधवन्) श्रेष्ठधनयुक्त (इन्द्र) सत्य विद्या आदी ऐश्वर्याने समृद्ध (सम्) समन्यक रीतीने अध्यापन करणारे आणि उपदेश देणारे, हे विद्वज्जन, आपण (सम्) (मनसा) चांगल्या अंत:करणाने (सम्) आणि चांगल्यारीतीने (गोभि:) गौ वा पवित्र वाणीद्वारे तसेच (स्वस्त्या) चांगले वचन व सुखकारी आचरणाद्वारे (सूरिभि:) विद्वानांसह (ब्रह्मणा) वेद विज्ञान आणि धन, विद्यावी देऊन आम्हास उपकृत करता, तसेच (यत्) जे (यज्ञियानाम्) याज्ञिक जनांचे करणी व (देवानमान्) विद्वानांचे (स्वाहा) सत्यवाणीने (सुमती) श्रेष्ठ विचाराप्रमाणे (देवकृतम्) विद्वज्जनांनी केलेले कर्म आहेत, त्याकर्माने व (स्वाहा) सत्यवाणीने (न:) आम्हा गृहस्थजनांमा (सन्नोषि) योग्यप्रकारे उपदेश देत असता, त्यामुळे आपण आमच्यासाठी पूज्य व वंदनीय आहात. ॥15॥
भावार्थ
भावार्थ - गृहस्थजनांकरिता विद्वान लोक पूज्य व सत्करणीय असतात कारण की ते गृहस्थांच्या बालकांना शिक्षण देऊन गुणवान व विद्यावान करतात, तसेच राजा आणि प्रजेच्या समृद्धित वाढ करतात. ॥15॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O adorable and learned teacher and preacher, as thou leadest us on the right path with the nobility of thy mind, teachest us exertion, with thy sweet and joyful words, givest us knowledge through the learned and the teachings of the Vedas, layest before us for example, the noble acts performed by the sages through wisdom and truthful speech, hence thou art worthy of respect by us.
Meaning
Indra, Lord of power and honour, Maghavan, Lord of wealth and knowledge, take us forward in a healthy state of mind and sense at peace, comfortably, with men of wisdom and brilliant intelligence, with the vaidic voice of universal knowledge, and with our cows, into the way of whatever is nobly done in the vaidic tradition of universal values, and whatever is good according to the noble genius of the superior people of yajnic dedication and culture.
Translation
O resplendent Lord, you unite us with mind and with organs of senses. O Lord of bounty, you unite us with learned persons and with our weal. You unite us with the divine knowledge inspired by the enlightened ones. You lead us to the favour of the enlightened ones and to the good intentions of the sacrificers. Svaha. (1)
Notes
Gobhih, इंद्रियै: with sense-organs; also, with good manners of speech. Brahmani, with divine knowledge.
बंगाली (1)
विषय
অথোভয়েষাং গৃহস্থানামুপদেশমাহ ॥
এখন রাজা ও প্রজা গৃহস্থদিগের জন্য উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে সব বিদ্যা পাঠনকারী, (ত্বষ্টা) সকল ব্যবহারের বিস্তারকারক, (সুদত্রঃ) অত্যুত্তম জ্ঞানদাতা বিদ্বন্ । আপনি (সংশিবেন) সঠিক কল্যাণকারক (মনসা) বিজ্ঞানযুক্ত অন্তঃকরণ (সংবর্চসা) সুপঠন ও পাঠনের প্রকাশ (পয়সা) জল ও অন্ন দ্বারা (য়ৎ) (তন্বঃ) শরীরের (বিলিষ্টম্) বিশেষ নূ্যনতাকে (অনুভার্ষ্টু) অনুকূল শুদ্ধি দ্বারা পূর্ণ এবং (রায়ঃ) উত্তম ধনকে (বিদধাতু) বিধান করুন । সেই দেহ ও শরীরগুলিকে আমরা (তনূভিঃ) ব্রহ্মচর্য্য ব্রতাদি সুনিয়ম দ্বারা বলযুক্ত শরীর দ্বারা (সমগন্মহি) সম্যক্ প্রাপ্ত করি ॥ ২৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- অগ্নি ও জল সংসারের সব ব্যবহারের কারণ, এইজন্য গৃহস্থগণ বিশেষ করিয়া অগ্নি ও জলের গুণ জানুক এবং গৃহস্থের সকল কর্ম্ম সত্য ব্যবহার পূর্বক করুক ॥ ২৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒গ্নেরনী॑কম॒পऽআবি॑বেশা॒পাং নপা॑ৎ প্রতি॒রক্ষ॑ন্নসু॒র্য়᳖ম্ ।
দমে॑দমে স॒মি॑ধং য়ক্ষ্যগ্নে॒ প্রতি॑ তে জি॒হ্বা ঘৃ॒তমুচ্চ॑রণ্য॒ৎ স্বাহা॑ ॥ ২৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নেরনীকমিত্যস্যাত্রির্ঋষিঃ । গৃহপতির্দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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