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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 30
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - दम्पती देवते छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - मध्यमः
    162

    पु॒रु॒द॒स्मो विषु॑रूप॒ऽइन्दु॑र॒न्तर्म॑हि॒मान॑मानञ्ज॒ धीरः॑। एक॑पदीं द्वि॒पदीं॑ त्रि॒पदीं॒ चतु॑ष्पदीम॒ष्टाप॑दीं॒ भुव॒नानु॑ प्रथन्ता॒ स्वाहा॑॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रु॒द॒स्म इति॑ पुरुऽद॒स्मः। वि॑षुरूप॒ इति॒ विषु॑ऽरूपः। इन्दुः॑। अ॒न्तः। म॒हि॒मान॑म्। आ॒न॒ञ्ज॒। धीरः॑। एक॑पदी॒मित्येक॑ऽपदीम्। द्वि॒पदी॒मिति॑ द्वि॒ऽपदीम्॑। त्रि॒पदी॒मिति॒ त्रि॒ऽपदी॑म्। चतु॑ष्पदीम्। चतुः॑पदी॒मिति॒ चतुः॑ऽपदीम्। अ॒ष्टाप॑दी॒मित्य॒ष्टाऽप॑दीम्। भुव॑ना। अनु॒। प्र॒थ॒न्ता॒म्। स्वाहा॑ ॥३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरुदस्मो विषुरूप ऽइन्दुरन्तर्महिमानमानञ्ज धीरः । एकपदीन्द्विपदीन्त्रिपदीञ्चतुष्पदीमष्टापदीम्भुवनानु प्रथन्ताँ स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुरुदस्म इति पुरुऽदस्मः। विषुरूप इति विषुऽरूपः। इन्दुः। अन्तः। महिमानम्। आनञ्ज। धीरः। एकपदीमित्येकऽपदीम्। द्विपदीमिति द्विऽपदीम्। त्रिपदीमिति त्रिऽपदीम्। चतुष्पदीम्। चतुःपदीमिति चतुःऽपदीम्। अष्टापदीमित्यष्टाऽपदीम्। भुवना। अनु। प्रथन्ताम्। स्वाहा॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 30
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनर्गर्भव्यवस्थामाह॥

    अन्वयः

    पुरुदस्मो विषुरूप इन्दुर्धीरो गृहस्थो धर्मेण विवाहितायाः स्त्रियाः अन्तर्महिमानमानञ्ज। हे गृहस्थाः! यूयं सृष्ट्युन्नतिं विधाय यामेकपदीं द्विपदीं त्रिपदीं चतुष्पदीमष्टापदीं स्वाहा समस्तविद्यान्वितां वाचं विदित्वा भुवनानि प्रथन्तां तया सर्वान् मनुष्याननुप्रथन्ताम्॥३०॥

    पदार्थः

    (पुरुदस्मः) पुरुर्बहुर्दस्म उपक्षयो दुःखानां यस्मात् सः (विषुरूपः) विषूणि व्याप्तानि रूपाणि येन सः (इन्दुः) परमैश्वर्य्यकारी (अन्तः) आभ्यन्तरे (महिमानम्) पूज्यं ब्रह्मचर्य्यजितेन्द्रियत्वादिशुभकर्म्मसंस्कारजन्यम् (आनञ्ज) अञ्जयेत कामयेत, अत्र लिङर्थे लिट् (धीरः) सर्वव्यवहारध्यानशीलः (एकपदीम्) एकमोमिति पदं प्राप्तव्यं यस्यां ताम् (द्विपदीम्) द्वे अभ्युदये निःश्रेयसे सुखे पदे यस्यां ताम् (त्रिपदीम्) त्रीणि वाङ्मनःशरीरस्थानि सुखानि यस्यास्ताम् (चतुष्पदीम्) चत्वारि धर्म्मार्थकाममोक्षाः पदानि यस्यास्ताम् (अष्टापदीम्) अष्टौ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राश्चत्वारो वर्णा ब्रह्मचर्य्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्चत्वार आश्रमाः पदानि प्राप्तव्यानि यस्यास्ताम् (भुवना) भवन्ति भूतानि येषु तानि गृहाणि। शेश्छन्दसि बहुलम्। (अष्टा॰६।१।७०) इति लुक् (अनु) (प्रथन्ताम्) प्रख्यान्तु (स्वाहा) सत्यां सकलविद्यायुक्तां वाचम्। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ५। २। १२-१६) व्याख्यातः॥३०॥

    भावार्थः

    दम्पतिभ्यां सर्वा गृहाश्रमविद्यामभिव्याप्य तदनुसारेण सन्तानानुत्पाद्य मनुष्यवृद्धिं विधाय ब्रह्मचर्य्येणाखिलविद्याः सर्वान् ग्राहयित्वा सुखानि प्राप्यानुमोदेताम्॥३०॥

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    विषयः

    पुनर्गर्भव्यवस्थामाह ॥

    सपदार्थान्वयः

    पुरुदस्मः पुरु=बहुर्दस्म=उपक्षयो दुःखानां यस्मात् सः विषुरूपः विषूणि=व्याप्तानि रूपाणि येन सः इन्दुः परमैश्वर्यकारी धीरः सर्वव्यवहारध्यानशीलः गृहस्थोधर्मेण विवाहितायाः स्त्रिया अन्तः आभ्यन्तरे महिमानं पूज्यं ब्रह्मचर्यजितेन्द्रियत्वादिशुभकर्म्मसंस्कारजन्यम् आनञ्जअञ्जयेत्=कामयेत्। हे गृहस्थाः ! यूयं सृष्टयुन्नतिं विधाय यामेकपदीम् एकमोमितिपदं=प्राप्तव्यं यस्यां तां द्विपदीं द्वे अभ्युदय-निःश्रेयसे सुखे पदे यस्यां तां त्रिपदीं त्रीणि वाङ्मनःशरीरस्थानि सुखानि यस्यास्तां चतुष्पदीं चत्वारि धर्म्मार्थकाममोक्षाः पदानि यस्यास्ताम् अष्टापदीम्अष्टौ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राश्चत्वारो वर्णा ब्रह्मचर्य्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्चत्वारआश्रमाः पदानि=प्राप्तव्यानि यस्यास्तां स्वाहा=समस्तविद्यान्वितां वाचं सत्यां सकलविद्यायुक्तां वाचंविदित्वा [भुवना]=भुवनानि भवन्ति भूतानि येषु तानि गृहाणि प्रथन्तां प्रख्यान्तु, तथा सर्वान्मनुष्यानुप्रथन्ताम् ॥ ८।३० ॥ [गृहस्थो धर्मेण विवाहितायाः स्त्रिया अन्तर्महिमानमानञ्ज, हे गृहस्थाः ! यूयं सृष्टयुन्नतिं विधाय.... स्वाहा=समस्तविद्यान्वितां वाचं विदित्वा [भुवना] भुवनानि प्रथन्तां तथा सर्वान् मनुष्याननुप्रथन्ताम्]

    पदार्थः

    (पुरुदस्मः) पुरुर्बहुर्दस्म=उपक्षयो दुःखानां यस्मात् सः (विषुरूपः) विषूणि=व्याप्तानि रूपाणि येन सः (इन्दुः) परमैश्वर्य्यकारी (अन्तः) आभ्यन्तरे (महिमानम्) पूज्यं ब्रह्मचर्य्यजिते- न्द्रियत्वादिशुभकर्म्मसंस्कारजन्यम् (आनञ्ज) अञ्जयेत्=कामयेत । अत्र लिङर्थे लिट्(धीरः) सर्वव्यवहार- ध्यानशील: (एकपदीम्) एकमोमिति पदं प्राप्तव्यं यस्यां ताम्(द्विपदीम्) द्वे अभ्युदय-निःश्रेयसे सुखे पदे यस्यां ताम्(त्रिपदीम्) त्रीणि वाङ्मनःशरीरस्थानी सुखानि यस्यास्ताम् (चतुष्पदीम्) चत्वारि धर्म्मार्थ- काममोक्षाः पदानि यस्यास्ताम् (अष्टापदीम्) अष्टौ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राश्चत्वारो वर्णा ब्रह्मचर्य्यगृहस्थवानप्रस्थसन्न्यासाश्चत्वार आश्रमाः पदानि=प्राप्तव्यानि यस्यास्ताम् (भुवना) भवन्ति भूतानि येषु तानि गृहाणि। शेश्छन्सि बहुलम्॥ अ० ६ ।१ । ७० ॥इति लुक्(अनु)(प्रथन्ताम्) प्रख्यान्तु (स्वाहा) सत्यां सकलविद्यायुक्तां वाचम् ॥ अयं मन्त्रः शत० ४ । ५ । २।१२-१६ व्याख्यातः ॥ ३० ॥

    भावार्थः

    दम्पतिभ्यां सर्वां गृहाश्रमविद्यायभिव्याप्य, तदनुसारेण सन्तानानुत्पाद्य, मनुष्यवृद्धिं विधाय, ब्रह्मचर्यणाखिलविद्याः सर्वान् ग्राहयित्वा सुखानि प्राप्यानुमोदेताम् ॥ ८।३० ॥

    विशेषः

    अत्रिः। दम्पती=स्त्रीपुरुषौ । आर्षी जगतीः । मध्यमः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी गर्भ की व्यवस्था अगले मन्त्र में कही हैं॥

    पदार्थ

    (पुरुदस्मः) जिसके गुणों से बहुत दुःखों का नाश होता है (विषुरूपः) जिसने जन्मक्रम से अनेक रूप-रूपान्तर विद्या-विषयों में प्रवेश किया है (इन्दुः) जो परमैश्वर्य्य को सिद्ध करने वाला (धीरः) समस्त व्यवहारो में ध्यान देने हारा पुरुष है, वह गृहस्थधर्म्म से विवाही हुई अपनी स्त्री के (अन्तः) भीतर (महिमानम्) प्रशंसनीय ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि शुभ कर्मों से संस्कार प्राप्त होने योग्य गर्भ को (आनञ्ज) कामना करे, गृहस्थ लोग ऐसे सृष्टि की उत्पत्ति का विधान करके जिस (एकपदीम्) जिस में एक यह ‘ओम्’ पद (द्विपदीम्) जिस में दो अर्थात् संसार सुख और मोक्षसुख (त्रिपदीम्) जिससे वाणी, मन और शरीर तीनों के आनन्द (चतुष्पदीम्) जिससे चारों धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष (अष्टापदीम्) और जिससे आठों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण तथा ब्रह्मचर्य्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये चारों आश्रम प्राप्त होते हैं, उस (स्वाहा) समस्त विद्यायुक्त वाणी को जान कर सब गृहस्थ जन (भुवना जिनमें प्राणीमात्र निवास किया करते हैं, उन घरों की (प्रथन्ताम्) प्रशंसा करें और उससे सब मनुष्यों को (अनु) अनुकूलता से बढ़ावें॥३०॥

    भावार्थ

    विवाह किये हुए स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि गृहाश्रम की विद्या को सब प्रकार जानकर उसके अनुसार सन्तानों को उत्पन्न कर मनुष्यों को बढ़ा और उन को ब्रह्मचर्य्य नियम से समस्त अङ्ग-उपाङ्ग सहित विद्या का ग्रहण करा के उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त होके आनन्दित करें॥३०॥

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    विषय

    सन्तान—इन्दु का उदय [ चन्द्रोदय ]

    पदार्थ

    गत मन्त्र के अनुसार यदि माता गर्भ में ही बालक का सुन्दरता से निर्माण करती है और उसकी योनि रोगरहित है तो चन्द्रतुल्य मुखवाले सुन्दर सन्तान का जन्म होता है। यह सन्तान १. ( पुरुदस्मः ) = [ पुरुः बहुः दस्म उपक्षयो दुःखानां यस्मात्—द० ] माता-पिता के सब कष्टों का निवारण करनेवाला होता है। वस्तुतः इसीलिए इसे ( पुत्र ) = ‘पुनाति त्रायते’ पवित्र बनाता है और त्राण करता है’ इस नाम से कहते हैं। 

    २. ( विषुरूपः ) = यह अत्यन्त सुन्दर रूपवाला होता है। वस्तुतः यदि गर्भ का धारण प्रसन्नतापूर्वक [ सुप्रीतम् मन्त्र २६ ] किया जाए और उसके सुभरण [ सुभृतं मन्त्र २६ ] का ध्यान किया जाए तो सन्तान सुन्दर रूपवाला क्यों न होगा? 

    ३. ( इन्दुः ) = यह सन्तान तो चन्द्रतुल्य होता है अथवा [ इन्द् to be powerful ] बड़ा शक्तिशाली होता है। 

    ४. ( अन्तः ) = यह गर्भ के अन्दर ही ( महिमानम् ) = महिमा को ( आनञ्ज ) = प्राप्त होता है [ अञ्ज् = गति ]। गर्भावस्था में ही माता ने इसे बड़ा सुन्दर बनाया है। 

    ५. ( धीरः ) = यह धीर है, ज्ञानी है। 

    ६. ऐसा सन्तान जब बड़ा होता है तब इसके कारण ( भुवना ) = [ भवन्ति भूतानि येषां तानि गृहाणि—द० ] प्राणियों के निवास-स्थानभूत घर, ( एकपदीम् ) =  ‘ओम्’ इस एक पद का व्याख्यान करनेवाली, ( द्विपदीम् ) = अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त करानेवाली, ( त्रिपदीम् ) = वाणी, मन व शरीर के सुखों को प्राप्त करानेवाली, ( चतुष्पदीम् ) = ‘धर्मार्थ- काममोक्ष’ इन चारों पुरुषार्थों की प्रतिपादिका तथा ( अष्टापदीम् ) = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चारों वर्णों व ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वनस्थ व संन्यास इन चारों आश्रमों का वर्णन करनेवाली वेदवाणी के ( अनु ) = अनुसार ( प्रथन्ताम् ) = विस्तार को प्राप्त हों, अर्थात् ऐसे सन्तानों के कारण घरों की उन्नति-ही-उन्नति हो। 

    ८. ( स्वाहा ) = इसके लिए—ऐसी सन्तानों के निर्माण के लिए हम स्वार्थत्याग करें। स्वार्थत्याग से ही उत्तम सन्तान प्राप्त होगी।

    भावार्थ

    भावार्थ — घर में सन्तान आये तो ऐसा अनुभव हो कि चन्द्रोदय हो गया है। वेदवाणी के अनुसार जीवन बनाने की हमारी प्रवृत्ति बढ़े।

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    विषय

    नाना पदों से युक्त वशा नाम राज्यशक्ति का वर्णन । पक्षान्तर में नाना पदों वाली वेदवाणी ।

    भावार्थ

     ( पुरुदस्मः ) अति अधिक दानशील, अथवा बहुतसे प्रजाजनों के बीच दर्शनीय, अथवा बहुत से दुखों का नाशक (विषुरूपः ) राष्ट्र में व्यापक बहुत से रूपों में प्रकट होनेवाला ( इन्दुः ) ऐश्वर्यवान् ( धीरः )धीर, बुद्धिमान् सर्व व्यवहारों में कुशल होकर ( अन्तः ) प्रजाओं के बीच ( महिमानम् ) अपने महान् सामर्थ्य को आनञ्ज ) प्रकट करता है । है विद्वान् पुरुषो ! आप लोग एकपदीम् ) राजा रूप एकमात्र चरण अर्थात् आश्रयवाली ( द्विपदीम् ) राजा और राजाङ्गरूप से चरणचाली, ( त्रिपदीम् । राजा, राज्याङ्ग और राजसभा इम तीन से तीन चरणवाली, चतुष्पदी चारों वर्णों से चतुष्पदी, चार चरणोंवाली अथवा सेना के चार अंगों द्वारा चतुष्पदी और ( अष्टापदीम् ) चार वर्ण और चार आश्रम द्वारा अष्टापदी अथवा राज्य के सात अङ्ग और पुरोहित इनसे अष्टापदी, 'वशा' अर्थात् राज्य की वशकारिणी शक्ति को ( भुवना अनु ) समस्त भुवनों में ( स्वाहा उत्तम रीति से ( प्रथन्ताम् ) विस्तृत करो ॥ शत० ४ । ५। २ । १२ ।। 

    गृहस्थ पक्ष में – दुःखों का नाशक ऐश्वर्यवान् धीर, गृहस्थ पुरुष अपने सामर्थरूप वीर्य को स्त्री के भीतर स्थापित करें | सब लोग एकपदी, द्विपदी आदि विशेषण युक्त वेदवाणी को सर्वत्र विस्तृत करें। 'ओम्' यह एक पद । अभ्युदय और निःश्रेयस दो पद । वाचिक, मानस, शरीर-सुख ये तीन पद । धर्म, अर्थ, काम मोक्ष चार पद । ४ व ४ आश्रम येआठ् पद । अर्थात् इनको प्राप्त करानेवाली । 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्भो देवता आर्षी जगती । मध्यमः ॥ 

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    विषय

    गर्भ-व्यवस्था का फिर उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    (पुरुदस्मः) नाना दुःखों का क्षय करने वाला (विषुरूपः) रूपों को व्याप्त करने वाला (इन्दुः) परम ऐश्वर्य को उत्पन्न करने वाला (धीरः) सब व्यवहारों की ओर ध्यान देने वाला गृहस्थ पुरुष धर्म से विवाहित स्त्री (अन्तः) में (महिमानम्) पूज्य, ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियता आदि शुभ कर्मों के संस्कार से उत्पन्न होने वाले गर्भ की (आनञ्ज) कामना करे । हे गृहस्थो ! तुम लोग सृष्टि की उन्नति करके जैसे (एकपदीम्) एक--प्राप्त करने योग्य 'ओम्' पद वाली (द्विपदीम्) दो--अभ्युदय और निःश्रेयस् सुख को देने वाली (त्रिपदीम्) तीन--वाणी, मन और शरीर के सुखों को प्राप्त कराने वाली (चतुष्पदीम्) चार--धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पदों को प्रदान करने वाली (अष्टापदीम्) आठ अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र--ये चार वर्ण और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास चार आश्रमों को प्राप्त कराने वाली (स्वाहा) समस्त विद्याओं से युक्त वेदवाणी को जानकर [भुवना] प्राणियों को निवास-स्थान घरों को (प्रथन्ताम्) प्रथित करो, विस्तृत बनाओ। वैसे ही मनुष्यों की वृद्धि करो ॥ ८ । ३० ॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुष सब गृहाश्रम विद्या को प्राप्त करके, उसके अनुसार सन्तानों को उत्पन्न कर, मनुष्यों की वृद्धि कर, ब्रह्मचर्य से समस्त विद्याओं को सबको ग्रहण कराकर सुखों को प्राप्त करके स्वयं प्रसन्न रहें तथा सबको प्रसन्न रखें ।। ८ । ३० ।।

    प्रमाणार्थ

    (आनञ्ज) अञ्जयेत् । यहाँ लिङ् अर्थ में लिट् लकार है। (भुवना) यहाँ'शेश्छन्दसि बहुलम्' (अ० ६ । १ । ७०) इस सूत्र से ‘शि’ का लुक् है। इस मन्त्र की व्याख्या शत०(४ । ५। २ । १२-१६ ) में की गई है॥८ । ३० ॥

    भाष्यसार

    गृहस्थ धर्म में गर्भव्यवस्था--गृहस्थ पुरुष नाना प्रकार से दुःखों का क्षय करने वाला, रूपों को व्याप्त करने वाला (रूपवान्), परम ऐश्वर्य को उत्पन्न करने वाला और सब व्यवहारों में ध्यान देने वाला हो। वह धर्म से विवाहित स्त्री में ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियता आदि शुभ कर्मों के संस्कार से उत्पन्न होने वाले महिमाशाली सन्तान की कामना करे। सन्तानोत्पत्ति से सृष्टि की उन्नति करके समस्त विद्या से युक्त वेदवाणी को जाने । जो वाणी एकपदी, द्विपदी, त्रिपदी, चतुष्पदी और अष्टापदी भेद से भाष्य में पाँच प्रकार की व्याख्यात है । उस वाणी को जान कर प्रथम गृहों का विस्तार करे, तत्पश्चात् मनुष्यों का विस्तार करे ॥ ८ । ३० ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    विवाहित स्त्री-पुरुषांनी गृहस्थाश्रमाचे ज्ञान प्राप्त करूनच संतती निर्माण करावी व त्यांना ब्रह्मचर्य नियमाचे पालन व अंगउपांगासह विद्या शिकवून मनुष्यमात्राची उन्नती करावी. याप्रमाणे सुख प्राप्त करून सर्वांना आनंदित करावे.

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    विषय

    पुनश्च, पुढील मंत्रात गर्भाविषयीच सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पुरुदस्म:) ज्या मनुष्याच्या गुणांमुळे अनेक दु:खांचा नाश होतो (विषुरूप:) ज्यानें अनेक जन्मात क्रमाने अनेक रुपे धारण करीत अनेक विद्या-विषयात नैपुण्य मिळविले आहे. (इन्दु:) जो परमऐश्वर्याची सिद्धी करणारा आहे (धीर:) समस्त कार्यात लक्ष देणारा आहे, व अशाच पुरुषाने आपल्या विवाहिता पत्नीच्या (अन्त:) गर्भामधे (महिमानम्) ब्रह्मचर्य आणि जितेंद्रियता आदी शुभकर्मांनी प्राप्त होणार्‍या शुभ गर्भाची (संतानाची) (आनज्ज) कामना करावी. (अशाच गुणवंत पुरुषास श्रेष्ठ संतान होते) गृहस्थजनांनी अशाप्रकारच्या श्रेष्ठ गृहाश्रमाची निर्मिती करून विद्यायुक्त वेदवाणीचे ज्ञान मिळवावे. (ती विद्यायुक्त वाणी अशी आहे की) त्यामध्ये (एकपदीम्) एक ओम् पद आहे (द्विपदीम्) ज्यात दोन पद म्हणजे संसारसुख आणि मोक्षसुख आहे (त्रिपदीम्) ज्यामध्ये तीन म्हणजे वाणी, मन आणि शरीर यांचे आनंद वर्णित आहे (चतुष्पदीम्) ज्यात धर्म, अर्थ काम आणि मोक्ष या चार साधनांचा समावेश आहे (अष्टापदीम्) ज्यामध्ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र हे चार वर्ण आणि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आणि सन्यास हे चार आश्रय, असे एकूण आठ व्यवस्था वर्णित आहेत, अशा वेदवाणीचा उपयोग करीत. (गृहस्थजनांनी भुकननि) निवासयोग्य घरांमध्ये राहून त्या घरांना (प्रथन्ताम्) प्रशंसित करावे आणि त्या वेदवाणी व श्रेष्ठगृहांनी सर्व मनुष्यांना (अनु) आपलेसे करावे ॥30॥

    भावार्थ

    भावार्थ - विवाहित स्त्री-पुरुषांकरिता आवश्यक आहे की त्यांनी गृहस्थाश्रम-विद्या चांगल्याप्रकारे जाणून घ्यावी आणि त्याप्रमाणे संतानोत्पत्ती करून त्या संतानांस ब्रह्मचर्यादी नियमांबरोबरच सर्व विद्या सांगोपांगसहित शिकवावी आणि संतानास व स्वत:स सुखी व आनंदित करावे. ॥30॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    A husband, the dispeller of miseries, handsome in appearance full of dignity, and strong in mind should wish for successful, pregnancy in his wife. He should preach to mankind the one footed, two-footed, three-footed; four-footed and eight-footed knowledge of the Vedas.

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    Meaning

    The man of mighty deeds, who eliminates suffering and creates joy, of versatile attainments, bright and honourable, constant and resolute, should wait for the great new arrival. Men of the household, cultivate the vaidic culture of one, two, three, four and eight steps of attainment: one: Aum; two: worldly fulfilment and the freedom of moksha; three: the joy of the truth of word and the health of body and mind; four: the attainment of Dharma, wealth, fulfilment of desire, and moksha; eight: the joy of all the four classes and all the four stages of life (Brahmana, Kshatriya, Vaishya and Shudra, Brahmacharya, Grihastha, Vanaprastha and Sanyasa). Build homes for the people and advance in life.

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    Translation

    Rich in wonderful operation, having many forms, the shining and steady embryo acquires grandeur, inside the womb. May the worlds glorify her the one-footed, two-footed, three-footed, four-footed and eight-footed. Svaha. (1)

    Notes

    Ekapadim, dsipadim etc. , according to Dayananda, refer to Vedic speech; according to Mahidhara to Vasa cow. Thus, one ‘am’ syllable is obtained whereby, that is ekapadi, prosperity in this world and bliss in the yonder world is obtained whereby, that is dvipadr, delight of speech, mind and body 15 ob tained whereby, that is tripadi. dharma, artha, kama, moksa, these four achievements are obtained whereby, that is chatuspadr, four varnas (Brühmana, Ksattriya, Vaiiya, Stidra) and four asramas (brahamacarya, grhastha, vanaprastha, sannyása) are obtained whereby that is astapadi. (Daya. ).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্গর্ভব্যবস্থামাহ ॥
    পুনরায় গর্ভের ব্যবস্থা পরবর্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- (পুরুদস্মঃ) যাহার গুণ দ্বারা বহু দুঃখের নাশ হয়, (বিষুরূপঃ) যিনি জন্মক্রম হইতে বহু রূপ-রূপান্তর বিদ্যা বিষয়ে প্রবেশ করিয়াছেন, (ইন্দুঃ) যিনি পরমেশ্বর সিদ্ধ কারী (ধীরঃ) সমস্ত ব্যবহারে ধ্যান প্রদাতা পুরুষ, তিনি গৃহস্থ ধর্ম্ম দ্বারা বিবাহিত স্বীয় স্ত্রীর (অন্তঃ) মধ্যে (মহিমানম্) প্রশংসনীয় ব্রহ্মচর্য্য ও জিতেন্দ্রিয়তাদি শুভ কর্ম্ম দ্বারা সংস্কার প্রাপ্ত হইবার যোগ্য গর্ভকে (আনঞ্জ) কামনা করিবেন, গৃহস্থগণ এমন সৃষ্টির উৎপত্তির বিধান করিয়া যাহার মধ্যে (একপদীম্) এক এই ওম্ পদ (দ্বিপদীম্) যাহাতে দুই অর্থাৎ সংসার সুখ ও মোক্ষসুখ (ত্রিপদীম্) যদ্দ্বারা বাণী, মন ও শরীর তিনের আনন্দ (চতুষ্পদীম্) যদ্দ্বারা চারি ধর্ম্ম, অর্থ, কাম, মোক্ষ (অষ্টাপদীম্) এবং যদ্দ্বারা আট অর্থাৎ ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয়, বৈশ্য ও শূদ্র এই চতুর্বর্ণ তথা ব্রহ্মচর্য্য, গৃহস্থ, বানপ্রস্থ ও সন্ন্যাস এই চারি আশ্রম প্রাপ্ত হয় সেই (স্বাহা) সমস্ত বিদ্যাযুক্ত বাণীকে জানিয়া সকল গৃহস্থ গণ (ভুবনা) যন্মধ্যে প্রাণীমাত্র নিবাস করিয়া থাকে সেই সব ঘরের প্রশংসা করিবেন এবং তাহা দ্বারা সকল মনুষ্যকে (অনু) অনুকূলতা দ্বারা বৃদ্ধি করিবেন ॥ ৩০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- বিবাহিত স্ত্রী-পুরুষদিগের উচিত যে, গৃহাশ্রমের বিদ্যাকে সকল প্রকার জানিয়া তদনুসারে সন্তান উৎপন্ন করিয়া মনুষ্য বৃদ্ধি করিবে এবং তাহাদিগকে ব্রহ্মচর্য্য নিয়ম দ্বারা সমস্ত অঙ্গ-উপাঙ্গসহিত বিদ্যার গ্রহণ করাইয়া উত্তম উত্তম সুখ প্রাপ্ত হইয়া আনন্দিত করিবে ॥ ৩০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    পু॒রু॒দ॒স্মো বিষু॑রূপ॒ऽইন্দু॑র॒ন্তর্ম॑হি॒মান॑মানঞ্জ॒ ধীরঃ॑ । এক॑পদীং দ্বি॒পদীং॑ ত্রি॒পদীং॒ চতু॑ষ্পদীম॒ষ্টাপ॑দীং॒ ভুব॒নাऽনু॑ প্রথন্তা॒ᳬं স্বাহা॑ ॥ ৩০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পুরুদস্ম ইত্যস্যাত্রির্ঋষিঃ । দম্পতী দেবতে । আর্ষী জগতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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