यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 56
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा गृहस्था देवताः
छन्दः - आर्षी बृहती
स्वरः - मध्यमः
204
प्रो॒ह्यमा॑णः॒ सोम॒ऽआग॑तो॒ वरु॑णऽआ॒स॒न्द्यामास॑न्नो॒ऽग्निराग्नी॑ध्र॒ऽइन्द्रो॑ हवि॒र्द्धानेऽथ॑र्वो- पावह्रि॒यमा॑णः॥५६॥
स्वर सहित पद पाठप्रो॒ह्यमा॑णः। प्रो॒ह्यमा॑न॒ इति॑ प्रऽउ॒ह्यमा॑नः। सोमः॑। आग॑त॒ इत्याऽग॑तः। वरु॑णः। आ॒स॒न्द्यामित्या॑ऽस॒न्द्याम्। आस॑न्न॒ इत्याऽस॑न्नः। अ॒ग्निः। आग्नी॑ध्रे। इन्द्रः॑। ह॒वि॒र्द्धान॒ इति॑ हविः॒ऽधाने॑। अथ॑र्वा। उ॒पा॒व॒ह्रि॒यमा॑ण॒ इत्युप॑ऽअवह्रि॒यमा॑णः ॥५६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रोह्यमाणः सोमऽ आगतो वरुणऽआसन्द्यामासन्नोग्निराग्नीध्रेऽइन्द्रो हविर्धानेथर्वापावह्रियमाणो विश्वे देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रोह्यमाणः। प्रोह्यमान इति प्रऽउह्यमानः। सोमः। आगत इत्याऽगतः। वरुणः। आसन्द्यामित्याऽसन्द्याम्। आसन्न इत्याऽसन्नः। अग्निः। आग्नीध्रे। इन्द्रः। हविर्द्धान इति हविःऽधाने। अथर्वा। उपावह्रियमाण इत्युपऽअवह्रियमाणः॥५६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तदेवाह॥
अन्वयः
हे गृहस्थाः! युष्माभिरस्यामीश्वरस्य सृष्टावासन्द्यामागत इव प्रोह्यमाणः सोमो वरुण आग्नीध्रेऽग्निरुपावह्रियमाणोऽथर्वा हविर्द्धान इन्द्रः सततमुपयोजनीयः॥५६॥
पदार्थः
(प्रोह्यमाणः) प्रकृष्टतर्केणाऽनुष्ठितः। प्रोह्यमाण इति पदं महीधरेण भ्रान्त्या पूर्वस्मिन् मन्त्रे पठितम्। (सोमः) ऐश्वर्य्यसमूहः (आगतः) समन्तात् प्राप्तः सहायकारी पुरुष इव (वरुणः) जलसमूहः (आसन्द्याम्) यानासनविशेषे (आसन्नः) समीपस्थः (अग्निः) (आग्नीध्रे) प्रदीपनसाधन इन्धनादौ (इन्द्रः) विद्युत् (हविर्द्धाने) हविषां ग्रहीतुं योग्यानां पदार्थानां धारणे (अथर्वा) अहिंसनीयः (उपावह्रियमाणः) क्रियाकौशलेनोपयुज्यमानः। अयं मन्त्रः (शत॰ १२। ६। १। १४-१८) व्याख्यातः॥५६॥
भावार्थः
नहि तर्केण विना काचिद् विद्या कस्यचिद् भवति, नहि विद्यया विना कश्चित् पदार्थेभ्य उपभोगं ग्रहीतुं शक्नोति॥५६॥
विषयः
पुनस्तदेवहा॥
सपदार्थान्वयः
हे गृहस्थाः! युष्माभिरस्यामीश्वरस्य सृष्टावासन्द्यां यानासनविशेषे आगत समन्तात् प्राप्तः सहायकारी पुरुष इव प्रोह्यमाणः प्रकृष्टतर्केणाऽनुष्ठितः सोमः ऐश्वर्यसमूह: वरुणः जलसमूह: आग्नीध्रे प्रदीपनसाधन इन्धनादौ [आसन्नः] समीपस्थः अग्निरुपाह्रियमाणः क्रियाकौशलेनोपयोज्यमानः अथर्वाअहिंसन्नीयः हविर्द्धाने हविषां-ग्रहीतुं योग्यानां पदार्थानां धारणे इन्द्रः विद्युत् सततमुपयोजनीयः ॥ ८ । ५६ ॥ [हे गृहस्थः! युष्माभिः......प्रोह्यमाणः सोमः सततमुपयोजनीयः]
पदार्थः
(प्रोह्यमाणः) प्रकृष्टतर्केणाऽनुष्ठितः। प्रोह्यमाण इति पदं महीधरेण भ्रान्त्या पूर्वस्मिन् मन्त्रे पठितम्(सोमः) ऐश्वर्यसमूह: (आगतः) समन्तात्प्राप्तः सहायकारी पुरुष इव (वरुणः) जलसमूहः (आसन्द्याम्) यानासनाविशेषे (आसन्नः) समीपस्थः (अग्निः)(आग्नीध्रे) प्रदीपनसाधन इन्धनादौ (इन्द्रः) विद्युत् (हविर्द्धाने) हविषां=ग्रहीतुं योग्यानां पदार्थानां धारणे (अथर्वा)अहिंसनीयः (उपावह्रियमाणः) क्रियाकौशलेनोपयोज्यमानः ॥ अयम्मन्त्रः शत० १२।६।१।१४-१८ व्याख्यातः ॥ ५६ ॥
भावार्थः
नहि तर्केण विना काचिद् विद्या कस्यचिद् भवति, नहि विद्यया विना कश्चित् पदार्थेभ्य उपयोगं ग्रहीतुं शक्नोति ॥८ । ५६ ॥
विशेषः
वसिष्ठः। विश्वेदेवा गृहस्था:=विद्वांसो गृहस्थाः। आर्षी बृहती । मध्यमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे गृहस्थो! तुम को इस ईश्वर की सृष्टि में (आसन्द्याम्) बैठने की एक अच्छी चौकी आदि स्थान पर (आगत) आया हुआ पुरुष जैसे विराजमान हो, वैसे (प्रोह्यमाणः) तर्क-वितर्क के साथ वादानुवाद से जाना हुआ (सोमः) ऐश्वर्य्य का समूह (वरुणः) सहायकारी पुरुष के समान जल का समूह (आग्नीध्रे) बहुत इन्धनों में (अग्निः) अग्नि (उपावह्रियमाणः) क्रिया की कुशलता से युक्त किये हुए (अथर्वा) प्रशंसा करने योग्य के समान पदार्थ और (हविर्द्धाने) ग्रहण करने योग्य पदार्थों में (इन्द्रः) बिजुली निरन्तर युक्त करनी चाहिये॥५६॥
भावार्थ
तर्क के विना कोई भी विद्या किसी मनुष्य को नहीं होती और विद्या के विना पदार्थों से उपयोग भी कोई नहीं ले सकता॥५६॥
विषय
प्रोह्यमाण-उपावह्रियमाण
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र के अन्तिम वाक्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ( प्रोह्यमाणः ) = [ वह् to carry ] प्रकर्षेण उह्यमान होता हुआ ( सोमः ) = सोम ( आगतः ) = आता है, उद्दिष्ट स्थल पर पहुँच जाता है, यह लक्ष्य स्थान से दूर नहीं होता।
२. यह लक्ष्य स्थान परमात्म-प्राप्ति ही तो है। यहाँ पहुँचा हुआ यह व्यक्ति मानो ( आसन्द्याम् ) = आरामकुर्सी पर ( आसन्नः ) = बैठा हुआ, परमात्मरूपी माता की गोद में बैठा हुआ ( वरुणः ) = आच्छादित [ वृ आच्छादने ] होता है, जैसे एक बच्चा माता की गोद में बैठा हुआ अत्यन्त सुरक्षित होता है, इसी प्रकार यह वसिष्ठ भी प्रभु की गोद में बैठा हुआ किसी भी प्रकार की वासनाओं के आक्रमण से आक्रान्त नहीं होता।
३. परन्तु क्या यह अकर्मण्य होता है? नहीं। ( आग्नीध्रे ) = [ अग्निमिन्धे इति अग्नीत् तस्य भावः आग्नीध्रम् ] अग्निसमिन्धनादि कार्यों में, अग्निहोत्रादि में यह ( अग्निः ) = प्रगतिशील होता है। यज्ञादि कार्यों में उत्साहवाला होता हुआ अपने जीवन को उन्नत करनेवाला होता है।
४. ( हविर्धाने ) = [ हु = दान ] दान के धारण में, अर्थात् दानादि करने पर ( इन्द्रः ) = परमैश्वर्यवाला होता है। दानादि से अपने ऐश्वर्य को बढ़ानेवाला होता है।
५. ( उप अवाह्रियमाणः ) = विषयों से इन्द्रियों को [ अव = away ] दूर करता हुआ और [ उप ] प्रभु की उपासना करता हुआ यह ( अथर्वा ) = डाँवाडोल नहीं होता, स्थितप्रज्ञ बनता है।
भावार्थ
भावार्थ — विषयव्यावृत्त होकर स्थितप्रज्ञ बनना हमारे जीवन का ध्येय हो।
विषय
प्रजापति के कर्तव्य भेद से भिन्न २ रूप । पक्षान्तर में सोमयाग का वर्णन ।
भावार्थ
(प्र ऊद्यमाणः आगतः ) अति आदर से सवारी आदि द्वारा लाया जाकर जब राजा प्राप्त होता है तब वह ( सोमः ) 'सोम', सर्वोपरि शासक और सबका आज्ञापक है । ( आसन्द्याम् आसन्नः ) आसन्दी राज्यसिंहासन पर स्थित हुआ वह राजा ( वरुणः ) सर्वश्रेष्ठ, सब से वरण करने योग्य, पापों से निवारक 'वरुण' है । ( आग्निघ्रे अग्निः ) तेजस्वी पद पर विराजमान, अग्नि के समान सन्तापकारी पद पर विराजमान वह ( अग्निः) अग्नि है | ( हविर्धाने ) वह अन्न द्वारा सब राष्ट्र के पालक 'हविर्धान' सब से मुख्य पद पर विराजता हुआ समस्त पृथिवी पर शासन करता हुआ राजा ( इन्द्र: ) 'इन्द्र है ( उपावहियमाण: अथर्वा ) प्रजा की रक्षा करने के लिये सदा उसके संनिकट स्थापित रहता हुआ वह (अथर्वा ) अहिंसक, प्रजापालक 'अथर्वा', प्रजापति है ॥
' अग्निध्रम् -- अन्तरिक्षम् आग्नीधम् । शत० ९ । २ । ३ । १५ । द्यावापृथिव्यौ वा एष यदाअग्निघ्रः शत् ०१।८ । १।४॥
हविर्धानम् । शिर एवास्य यज्ञस्य हविर्धानम् । श० ३।५।३।५ ॥ अयं वै लोको दक्षिणं हविर्धानम् कौ० ८ । ४ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः । आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
गृहस्थ विषय का फिर उपदेश किया है।।
भाषार्थ
हे गृहस्थो ! तुम लोग इस ईश्वर की सृष्टि में (आसन्द्याम्) यान के आसनविशेष में (आगतः) सब ओर से प्राप्त सहायक पुरुष के समान, (प्रोह्यमाणः) उत्तम तर्क से व्यवहार में लाया हुआ (सोमः) ऐश्वर्य का ढेर (वरुणः) जल तथा (आग्नीध्रे) प्रदीपन के साधन इन्धन आदि के [आसन्नः] समीपस्थ (अग्निः) अग्नि (उपावह्नियमाणः) क्रिया-कौशल से उपयोग में लाने योग्य है तथा (अथर्वा) हिंसा के अयोग्य तथा (हविर्द्धाने) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को धारण करने में समर्थ जो (इन्द्र) विद्युत् है वह सदा उपयोग के योग्य हैं ।। ८ । ५६ ।।
भावार्थ
तर्क के बिना कोई विद्या किसी को प्राप्त नहीं होती, और विद्या के बिना कोई व्यक्ति पदार्थों से उपयोग ग्रहण नहीं कर सकता ।। ८ । ५६ ।।
प्रमाणार्थ
(प्रोह्यमाणः) महीधर ने भ्रान्ति से इसको पूर्व मन्त्र में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (१२। ६ । १ । १४-१८) में की गई है ॥ ५ । ५६॥
भाष्यसार
गृहस्थ विषयक उपदेश--गृहस्थ जनों को उचित है कि वे ईश्वर की इस सृष्टि में, यान आदि की रचना में, सहायक पुरुष के समान तर्क से, ऐश्वर्य की राशि रूप जल का,इन्धन आदि में अग्नि का, क्रिया-कौशल के द्वारा उपयोग लेने योग्य, जो विद्युत् है उसका ग्राह्य पदार्थों के धारण करने में उपयोग लेवें। पदार्थों के उपयोग में तर्क मुख्य है । तर्क के बिना कोई विद्या प्राप्त नहीं हो सकती और विद्या के बिना कोई व्यक्ति पदार्थों से उपयोग नहीं ले सकता ॥ ८ । ५६ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
तर्काशिवाय माणसाला कोणतीही विद्या प्राप्त होऊ शकत नाही व विद्येशिवाय कोणीही पदार्थांचा उपयोग करू शकत नाही.
विषय
पुढील मंत्रात देखील त्याच विषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे गृहस्थजन हो, (आसन्धाम्) ज्याप्रमाणे बसायच्या सुंदर चौरंगावर (आगत) घरी आलेला माणूस (पाहुणा) विराजित होतो, त्याप्रमाणे ईश्वराच्या या सृष्टीत (जल, अग्नी, विद्युत आदी पदार्थ जे तुमच्याकडे पाहुण्याप्रमाणे असे आहेत) त्यांचा (प्रहियमाण:) तर्क-वितर्क, चर्चा, वादानुवादाद्वारे (निश्चिय करा)(सोम:) ऐश्वर्यादायी (वरूण:) सहाय्यकारी पुरुषाप्रमाणे जे सहाय्यक जल आहे (त्याचा उपयोग घ्या) तसेच (आग्नीध्रे) ज्वलनासाठी (अग्नि:) अग्नीचा (उपयोग करा) (उपवहिृयमाण:) व क्रिया-कौशल्य आणि प्रयोगादीद्वारे (अथर्वा) उपयोगी व प्रशंसनीय पदार्थांमध्ये (हृविर्द्धाने) ग्रहणीय व उपयुक्त पदार्थांमधे (इन्द्र:) विद्युतेचा नेहमी निरंत वापर करा. ॥56॥
भावार्थ
भावार्थ - तर्काशिवाय कोणाही मनुष्यास विद्या प्राप्त होत नाही (विज्ञानासाठी शोध, परीक्षण, तत्त्वचर्चा आदी करावे लागतात) आणि विद्येशिवाय कोणी भौतिक पदार्थांचा उपयोग करू शकत आणि (उपभोग घेऊ शकत नाही) ॥56॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O’ married people in this world, just as ye honour and seat on A dais a learned person who visits your house, so should ye use electricity in well thought out sources of wealth, collection of waters, in fires to be burnt, in skilfully manufacturing all useful and serviceable articles.
Meaning
Conducted by scientific logic, carried through special experiments, and seated in special cars, Soma, wealth of energy, power and prosperity, has arrived. Varuna, mighty water power, is here. Agni, heat energy, is come in special fuels. Indra, electricity, is here potent in yajna materials. Atharva, special energy, has arrived.
Translation
When being carried in a cart, you are soma (the bliss) when arrived. (1) You are varuna (the venerable) when seated on the stool. (2) You are agni (the adorable) when in the sacrificial fireplace. (3) You are indra (the resplendent) when in the store-house of oblations. (4) You are atharvan (vital breath) when being brought near. (5)
Notes
Ksirasrih, mixed with milk.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তদেবাহ ॥
পুনরায় উক্ত বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে গৃহস্থগণ ! তোমাদেরকে এই ঈশ্বরের সৃষ্টিতে (আসন্দ্যাম্) বসিবার একটা ভাল আসনাদির উপর (আগত) আগত পুরুষ যেমন বিরাজমান হয়, সেইরূপ (প্রোহ্যমাণঃ) তর্ক-বিতর্ক সহ বাদানুবাদ দ্বারা জ্ঞাত (সোমঃ) ঐশ্বর্য্যের সমূহ (বরুণঃ) সহায়কারী পুরুষের সমান জলের সমূহ (আগ্নীধ্রে) বহু ইন্ধনে (অগ্নিঃ) অগ্নি (উপাবহ্রিয়মানঃ) ক্রিয়ার কুশলতা পূর্বক যুক্ত কৃত (অথর্বা) প্রশংসা করিবার যোগ্যের সমান পদার্থ এবং (হবিদর্ধানে) গ্রহণীয় পদার্থে (ইন্দ্রঃ) বিদ্যুৎ নিরন্তর যুক্ত করা উচিত ॥ ৫৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- তর্ক বিনা কোন বিদ্যা কোন মনুষ্যের হয় না এবং বিদ্যা বিনা পদার্থ দ্বারা উপযোগও কেউ নিতে পারে না ।
मन्त्र (बांग्ला)
প্রো॒হ্যমা॑ণঃ॒ সোম॒ऽআগ॑তো॒ বরু॑ণऽআ॒স॒ন্দ্যামাস॑ন্নো॒ऽগ্নিরাগ্নী॑ধ্র॒ऽইন্দ্রো॑ হবি॒র্দ্ধানেऽথ॑র্বো- পাবহ্রি॒য়মা॑ণঃ ॥ ৫৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
প্রোহ্যমাণ ইত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা গৃহস্থা দেবতাঃ । আর্ষী বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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