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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 50
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतयो देवताः छन्दः - भूरिक् आर्षी जगती, स्वरः - निषादः
    92

    उ॒शिक् त्वं दे॑व सोमा॒ग्नेः प्रि॒यं पाथोऽपी॑हि व॒शी त्वं दे॑व सो॒मेन्द्र॑स्य प्रि॒यं पाथोऽपी॑ह्य॒स्मत्स॑खा॒ त्वं दे॑व सोम॒ विश्वे॑षां दे॒वानां॑ प्रि॒यं पाथोऽपी॑हि॥५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒शिक्। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। अ॒ग्नेः। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒। व॒शी। त्वम्। दे॒व। सो॒म॒। इन्द्र॑स्य। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒। अ॒स्मत्स॒खेत्य॒स्मत्ऽसखा॑। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒ ॥५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उशिक्त्वन्देव सोमाग्नेः प्रियम्पाथो पीहि वशी त्वन्देव सोमेन्द्रस्य प्रियम्पाथो पीह्यस्मत्सखा त्वन्देव सोम विश्वेषान्देवानाम्प्रियम्पाथो पीहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उशिक्। त्वम्। देव। सोम। अग्नेः। प्रियम्। पाथः। अपि। इहि। वशी। त्वम्। देव। सोम। इन्द्रस्य। प्रियम्। पाथः। अपि। इहि। अस्मत्सखेत्यस्मत्ऽसखा। त्वम्। देव। सोम। विश्वेषाम्। देवानाम्। प्रियम्। पाथः। अपि। इहि॥५०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 50
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः प्रकारान्तरेण राजविषयमाह॥

    अन्वयः

    हे देव सोम राजन्! त्वमुशिग्भवन्नग्नेः प्रियम्पाथोऽपीहि। हे देव सोम! त्वं वशी भूत्वेन्द्रस्य प्रियम्पाथोऽपीहि। हे देव सोम! त्वमस्मत्सखा विश्वेषां देवानां प्रियं पाथोऽपीहि॥५०॥

    पदार्थः

    (उशिक्) कामयमानः (त्वम्) (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (सोम) सकलैश्वर्य्याढ्य (अग्नेः) सद्विदुषः (प्रियम्) प्रीतिजनकम् (पाथः) रक्षणीयमाचरणम्, पाथ इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰४।३) (अपि) निश्चयार्थे (इहि) प्राप्नुहि जानीहि वा (वशी) जितेन्द्रियः (त्वम्) (देव) दातः (सोम) ऐश्वर्य्योन्नतौ प्रेरक (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्तस्य धार्म्मिकस्य राज्ञः (प्रियम्) सुखैस्तर्प्पकम् (पाथः) ज्ञातव्यं कर्म्म (अपि) (इहि) (अस्मत्सखा) वयं सखायो यस्य सः (त्वम्) (देव) विद्यासु द्योतमान (सोम) विद्यैश्वर्य्यसहित (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (देवानाम्) धार्म्मिकाणामाप्तानां विदुषाम् (प्रियम्) कमनीयम् (पाथः) विज्ञानाचरणम् (अपि) (इहि)। अयं मन्त्रः (शत॰ ११। ५। ९। १२) व्याख्यातः॥५०॥

    भावार्थः

    राज्ञो राजपुरुषाणां सभ्यानां चोचितमस्ति पुरुषार्थेन संयमेन मित्रतया धार्म्मिकाणां वेदपारगानां मार्गे गच्छेयुर्नहि सत्पुरुषसङ्गानुकरणाभ्यां विना कश्चिद्विद्यां धर्म्मं सार्वजनिकप्रियातामैश्वर्य्यं च प्राप्तुं शक्नोति॥५०॥

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    विषयः

    पुनः प्रकारान्तरेण राजविषयमाह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे देव दिव्यगुणसम्पन्न सोम सकलैश्वर्याढ्य राजन् ! त्वम् उशिक् कामयमान: भवन्, अग्ने: सद्विदुषः प्रियं प्रीतिजनकंपाथः रक्षणीयमाचरणम् अपि+इहि निश्चयेन प्राप्नुहि जानीहि वा । हे देव दातः सोम ! ऐश्वर्य्योन्नतौ प्रेरक त्वं वशी जितेन्द्रियः भूत्वेन्द्रस्य परमैश्वर्य्ययुक्तस्य धार्मिकस्य राज्ञ: प्रियं सुखैस्तर्प्पकं पाथः ज्ञातव्यं कर्म अपि+इहि निश्चयेन प्राप्नुहि जानीहि वा। हे देव विद्यासु द्योतमान सोम ! विद्यैश्वर्य्यसहित त्वमस्मत्सखावयं सखायो यस्य सः विश्वेषां सर्वेषां देवानां धार्म्मिकाणामाप्तानां विदुषां प्रियं कमनीयं पाथ: विज्ञानाचरणम् अपि+इहि निश्चयेन प्राप्नुहि जानीहि वा ॥ ८ । ५० ॥ [हे देव सोम! त्वमस्मत्सखा विश्वेषां देवानां प्रियं पाथोऽपीहि]

    पदार्थः

    (उशिक्) कामयमानः (त्वम्)(देव) दिव्यगुणसम्पन्न (सोम) सकलैश्वर्य्याढ्य (अग्नेः) सद्विदुषः (प्रियम्) प्रीतिजनकम् (पाथः) रक्षणीयमाचरणम् । पाथ इति पदनामसु पठितम् ॥ निघं० ४ । ३ ॥(अपि) निश्चयार्थे(इहि) प्राप्नुहि जानीहि वा (वशी) जितेन्द्रियः (त्वम्)(देव) दातः (सोम) ऐश्वर्य्योन्नतौ प्रेरक (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्तस्य धार्म्मिकस्य राज्ञः (प्रियम्) सुखैस्तर्प्पकम् (पाथः) ज्ञातव्यं कर्म्म (अपि)(इहि)(अस्मत्सखा)वयं सखायो यस्य सः (त्वम्)(देव) विद्यासु द्योतमान (सोम) विद्यैश्वर्य्यसहित (विश्वेषाम्) सर्वेषाम्(देवानाम्) धार्म्मिकाणामाप्तानां विदुषाम् (प्रियम्) कमनीयम् (पाथः) विज्ञानाचरणम् (अपि)(इहि) ॥ अयम्मन्त्र: शत० ११। ५।९ । १२ व्याख्यातः ॥ ५० ॥

    भावार्थः

    राज्ञो राजपुरुषाणां सभ्यानांचोचितमस्ति--पुरुषार्थेन, संयमेन, मित्रतया, धार्मिकाणां वेदपारगाणां मार्गे गच्छेयुर्नहि सत्पुरुषसंगानुकरणाभ्यां विना कश्चिद् विद्यां, धर्म्मं, सार्वजनिकप्रियतामैश्वर्य्यं च प्राप्तुं शक्नोति ॥ ८।५०॥

    भावार्थ पदार्थः

    देवानाम्=धार्मिकाणां वेदपारगाणाम् ॥

    विशेषः

    देवाः । प्रजापतय:=राजानः। स्वराडार्षी जगती। निषादः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर प्रकारान्तर से राजविषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (सोम) समस्त ऐश्वर्य्ययुक्त राजन्! आप (उशिक्) अति मनोहर होके (अग्नेः) उत्तम विद्वान् के (प्रियम्) प्रेम उत्पन्न कराने वाले (पाथः) रक्षायोग्य व्यवहार को (अपि) निश्चय से (इहि) प्राप्त करो और जानो। हे (देव) दानशील (सोम) हर एक प्रकार से ऐश्वर्य्य की उन्नति कराने वाले! आप (वशी) जितेन्द्रिय होकर (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्य वाले धार्म्मिक जन के (प्रियम्) प्रेम उत्पन्न कराने वाले (पाथः) जानने योग्य कर्म को (अपि) निश्चय से (इहि) जानो। हे (देव) समस्त विद्याओं में प्रकाशमान (सोम) ऐश्वर्य्ययुक्त! आप (अस्मत्सखा) हम लोग जिनके मित्र हैं, ऐसे आप होकर (विश्वेषाम्) समस्त (देवानाम्) विद्वानों के प्रेम उत्पन्न करानेहारे (पाथः) विज्ञान के आचरण को (अपि) निश्चय से (इहि) प्राप्त हो तथा जानो॥५०॥

    भावार्थ

    राजा, राजपुरुष, सभासद् तथा अन्य सब सज्जनों को उचित है कि पुरुषार्थ अच्छे-अच्छे नियम और मित्रभाव से धार्म्मिक वेद के पारगन्ता विद्वानों के मार्ग को चलें, क्योंकि उनके तुल्य आचरण किये विना कोई विद्या, धर्म्म, सब से एक प्रीतिभाव और ऐश्वर्य्य को नहीं पा सकता है॥५०॥

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    विषय

    प्रकाश, शक्ति व दिव्यता

    पदार्थ

    १. ( उशिक् ) = [ कामयमानः ] प्रजा के हित की कामना करता हुआ ( त्वम् ) = तू ( देव ) = दिव्य गुणयुक्त तथा ज्ञान के प्रकाशवाला है। हे ( सोम ) = शक्ति व शान्ति के पुञ्ज! तू ( अग्नेः ) = अग्नि के ( प्रियं पाथः ) = प्रिय मार्ग को ( अपीहि ) = निश्चय से प्राप्त हो [ अपि = निश्चयार्थे ]। अग्नि का मार्ग प्रकाश व दोषदहन है। तूने भी प्रकाशमय जीवनवाला तथा दोषों को भस्म करनेवाला बनना है। 

    २. ( वशी ) = सब इन्द्रियों को वश में करनेवाला ( त्वम् ) = तू ( देव ) = दिव्य गुणमय ( सोम ) =  शान्ति व शक्ति के पुञ्ज! ( इन्द्रस्य ) = इन्द्र के ( प्रियं पाथः ) = प्रिय मार्ग को ( अपीहि ) = निश्चय से प्राप्त हो। इन्द्र का मार्ग असुरों का संहार करना है। तूने भी आसुरवृत्तियों को समाप्त करके सचमुच ही ( इन्द्र ) = वशी बनना है। अपने को वश में करके ही तू प्रजाओं को भी वश में कर सकेगा। 

    ३. ( अस्मत् सखा ) = हम प्रजाओं का मित्र ( त्वम् ) = तू ( देव सोम ) = हे प्रकाशमय शान्त व शक्तिसम्पन्न राजन्! ( विश्वेषां देवानाम् ) = सब देवों के ( प्रियं पाथः ) = प्रिय मार्ग को ( अपीहि ) = निश्चय से प्राप्त हो। राजा प्रजा का हित चाहता हुआ स्वयं दिव्य गुणों को अपनाकर प्रजा में उन दिव्य गुणों का प्रसार करे।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रजा का हितेच्छु राजा अग्नि बने, इन्द्र बने, देव बने। प्रजाओं में प्रकाश, शक्ति व दिव्यता का प्रसार करे।

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    विषय

    सदा सावधान रहने योग्य राजपद ।

    भावार्थ

    हे ( देवसोम ) दानशील, राजन् ! सोम ! तू ( उशिक् ) कान्तिमान् एवं इच्छावान् होकर ( अग्नेः) उत्तम विद्वान्, अग्रणी पुरुष के ( प्रियम् पाथः ) प्रिय लगाने वाले पालनकारी कर्त्तव्य को ( अपीहि) प्राप्त हो। हे ( देव सोम ) देव ! सोम ! राजन् ! (त्वम् ) तू ( इन्द्रस्य प्रियम् पाथः अपीहि ) इन्द्र, ऐश्वर्यवान् सेनापति के प्रिय पालन व्यवहार को प्राप्त हो । हे (देव सोम ) देव राजन् ! सोम ! तू ( अस्मत् सखा ) हमारा मित्र होकर ( विश्वेषां देवानाम् ) समस्त देवों, विद्वानों, राज्याधिकारियों और प्रजाजनों के ( प्रियम् पाथः ) प्रिय अभिमत पालन कर्तव्य या पदाधिकार को प्राप्त हो ॥

    टिप्पणी

    ५०–अतः परं ( ७ । २७–२९ ), ( ७ । ४१-४८ ), ( ८ । १५-२२ ) ( ८ । २३-२७ ), ( ८।२८-३३ ), ( ८। १ ४२-४३ ) ( ८। ५२ ) क्रमश: पठ्यन्ते काण्व ० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवा ऋषयः प्रजापतिः सोमो देवता । स्वराडार्षी जगती । निषादः॥ 

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    विषय

    प्रकारान्तर से राजविषय का फिर उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे (देव) दिव्य गुणों से युक्त (सोम) सकल ऐश्वर्य से भरपूर राजन् ! आप (उशिक्) कामना करते हुये (अग्नेः) श्रेष्ठ विद्वान् के (प्रियम्) प्रीतिकारक (पाथः) रक्षा के योग्य आचरण को (अपि+इहि) निश्चय से प्राप्त करो वा जानो। हे (देव) दाता (सोम) ऐश्वर्य की उन्नति के लिये प्रेरणा करने वाले राजन् ! आप (वशी) जितेन्द्रिय होकर (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य से युक्त धार्मिक राजा के (प्रियम्) सुखों से तृप्त करने वाले (पाथः) ज्ञातव्य कर्म को (अपि+इहि) निश्चय से प्राप्त करो वा जानो । हे (देव) सब विद्याओं में प्रकाशमान (सोम) विद्या रूप ऐश्वर्य से युक्त राजन् ! आप (अस्मत्सखा) हमारे सखा बनकर (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) धार्मिक आप्त विद्वानों के (प्रियम्) कामना के योग्य (पाथः) विज्ञानमय आचरण को (अपि+इहि) निश्चय से प्राप्त करो वा जानो ॥ ८।५०॥

    भावार्थ

    राजा, राजपुरुष, और सभासदोंको उचित है कि वे पुरुषार्थ, संयम और मित्रता से धार्मिक वेदज्ञ विद्वानों के मार्ग पर चलें क्योंकि सत्पुरुषों के संग और अनुकरण के बिना कोई भी विद्या, धर्म, सब जनों के प्रेम और ऐश्वर्य को प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ८ । ५० ॥

    प्रमाणार्थ

    (पाथः) यह शब्द निघं० (४ । ३) में पद नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (११।५। ९। १२) में की गई है ॥ ८। ५० ॥

    भाष्यसार

    गृहस्थों को राजविषयक उपदेश--प्रजा जन राजा से कहते हैं कि हे राजन् ! आप दिव्य गुणों से सम्पन्न हो, सकल ऐश्वर्य से भरपूर हो, प्रजा की कामना करने वाले हो, इसलिये श्रेष्ठ विद्वानों के प्रीतिकारक आचरण का पुरुषार्थ से अनुकरण करो। आप दाता हो और हमें ऐश्वर्य की उन्नति के लिये प्रेरित करने वाले हो। आप संयम से जितेन्द्रिय होकर परम ऐश्वर्य से युक्त धार्मिक राजाओं के, सुखों से तृप्त करने वाले कर्मों का अनुकरण करो। आप सब विद्याओं में प्रकाशमान हो, विद्या रूप ऐश्वर्य से भूषित हो इसलिये मित्रता से हम सब जनों के सखा होकर धार्मिक, वेद के पारंगत, आप्त विद्वानों के प्रिय विज्ञान को प्राप्त करो क्योंकि सत्पुरुषों के संग और सत्पुरुषों के अनुकरण के बिना कोई भी व्यक्ति विद्या, धर्म और ऐश्वर्य को प्राप्त नहीं कर सकता और न ही सब जनों का प्रिय हो सकता है ॥ ८ । ५० ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजा, राजपुरुष, सभासद व इतर सर्व लोकांनी पुरुषार्थ करून चांगल्या नियमांचे पालन करावे. मैत्रीच्या भावनेने धार्मिक, वैदिक विद्वानांच्या मार्गाने चालावे. कारण त्यांच्यासारखे वागल्याशिवाय कोणीही विद्या, धर्म, सर्वांवर सारखी प्रीती, ऐश्वर्य प्राप्त करू शकत नाही.

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    विषय

    पुन्हा राजधर्माविषयी थोड्या वेगळ्या प्रकाराने कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (देव) दिव्यगुणयुक्त आणि (सोम) समस्त ऐश्वर्ययुक्त राजा, आपण (उशिक्) अति मनोहर (रुप व स्वभाव) धारण करून (अग्ने:) उत्तम विद्वानांना (प्रियम्) प्रिय अशा (पाथ:) रक्षणीय/अनुकरणीय व्यवहाराला (अपि) निश्चयाने (इहि) प्राप्त करा आणि तो मार्ग जाणून घ्या. (विद्वज्जनांकडून योग्य त्या मार्गाची, शासन-पद्धतीची माहिती वा मार्गदर्शन घ्या) हे (देव) दानशील राजा, (सोम) ऐश्वर्यवृद्धी करणारे आपण (वशी) जितेंद्रिय होऊन (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यशाली धार्मिक मनुष्याच्या (प्रियम्) प्रिय अशा (पाथ:) जाणण्यास योग्य कर्माला (आणि) निश्चयाने वा अवश्य (इहि) जाणून घ्या. (कार्याची रीती शिकून घ्या) हे (देव) सर्व विद्याविशारद आणि (सोम) ऐश्वर्यवान राजा, आपण (अस्मत्सखा) आमच्या मित्रांचे मित्र होऊन (विश्वेषाम्) सार्‍या (देवानाम्) विद्वानांना आनंदित करणार्‍या (पाथ:) विज्ञानपूर्ण आचरणाला (आणि) निश्चयाने वा अवश्य (इहि) प्राप्त करा आणि जाणून घ्या. (विद्वानांकडून आनंददायी व्यवहाररीती शिकून घ्या) ॥50॥

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा, राजपुरुष, सभासद तथैव अन्य सर्व सज्जनांकरिता हे उचित व आवश्यक आहे की त्यांनी पुरुषार्थ करीत, हितकर नियमांप्रमाणे वागत आणि मैत्रीपूर्ण व्यवहाराकरीता धार्मिक तसेच वेदपारंगत विद्वानांच्या मार्गाचे (त्यांनी सुचविलेल्या रितीचे) अनुसरूण करावे, कारणा की विद्वानांचे अनुकरण केल्याशिवाय, त्यांच्याप्रमाणे आचरण केल्याशिवाय कोणी विद्या आणि धर्माची प्राप्ती करू शकत नाही आणि सर्वांविषयी प्रीतीभाव ठेवल्याशिवाय ऐश्वर्यवान होऊ शकत नाही. ॥50॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O virtuous and prosperous King, eagerly know thou the lovable and protective conduct of a learned person. O f charitable King, our impeller towards progress and affluence, controlling thy passions, know thou the conduct of a religious person. O learned and wealthy King, being friend unto us, know thou, the beautiful conduct of all sages.

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    Meaning

    (Ruler and president of the council), brilliant man of peace and honour, loving and lovable, be sure you follow the path of love and greatness shown by the learned and the wise leaders. Brilliant man of generosity and grandeur, self-controlled, be sure you follow the path of love and greatness shown by the leaders of power and prosperity. Brilliant man of knowledge and grace, friend of ours, be sure you follow the path of goodness and virtue loved by the noblest and the wisest men of the world.

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    Translation

    O bright devotional bliss, you are dear one; may you become the favourite food of the adorable Lord. (1) O bright devotional bliss, you are charming one; may you become favourite food of the resplendent Lord. (2) O bright devotional bliss, you are our friend; may you become favourite food of all the bounties of Nature. (3)

    Notes

    Usik, dear; वश् कांतौ, to be dear, or wished for. Pathah, food. Уай, charming. Sakha, friend.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ প্রকারান্তরেণ রাজবিষয়মাহ ॥
    পুনঃ প্রকারান্তরে রাজবিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (দেব) দিব্যগুণ সম্পন্ন (সোম) সমস্ত ঐশ্বর্য্যযুক্ত রাজন্ ! আপনি (উশিক্) অতি মনোহর হইয়া (অগ্নেঃ) উত্তম বিদ্বানের (প্রিয়ম্) প্রেম উৎপন্নকারী (পাথঃ) রক্ষা যোগ্য ব্যবহারকে (অপি) নিশ্চয়পূর্বক (ইহি) প্রাপ্ত করুন ও জানুন । হে (দেব) দানশীল (সোম) প্রত্যেক প্রকারে ঐশ্বর্য্যের উন্নতিকারী ! আপনি (বশী) জিতেন্দ্রিয় হইয়া (ইন্দ্রস্য) পরমৈশ্বর্য্যযুক্ত ধার্মিক লোকের (প্রিয়ম্) প্রেম উৎপন্নকারী (পাথঃ) জানিবার যোগ্য কর্ম্মকে (অপি) নিশ্চয়পূর্বক (ইহি) জানুন । হে (দেব) সমস্ত বিদ্যায় প্রকাশমান (সোম) ঐশ্বর্য্যযুক্ত ! (অস্মৎসখা) আমরা যাহার মিত্র এইরকম আপনি হইয়া (বিশ্বেষাম্) সমস্ত (দেবানাম্) বিদ্বান্দের প্রেম উৎপন্নকারী (পাথঃ) বিজ্ঞানের আচরণকে (অপি) নিশ্চয়পূর্বক (ইহি) প্রাপ্ত হউন তথা জানুন ॥ ৫০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- রাজা রাজপুরুষ সভাসদ্ তথা অন্যান্য সব সজ্জনদের উচিত যে, পুরুষকার, ভাল-ভাল নিয়ম এবং মিত্রভাব দ্বারা ধার্ম্মিক বেদের পারদর্শী বিদ্বান্দিগের মার্গে চলিবেন কেননা তাহার তুল্য আচরণ করা ব্যতীত কেহ বিদ্যা ধর্ম্ম, সকলের সহিত সম প্রীতিভাব এবং ঐশ্বর্য্য প্রাপ্তি করিতে পারে না ॥ ৫০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒শিক্ ত্বং দে॑ব সোমা॒গ্নেঃ প্রি॒য়ং পাথোऽপী॑হি ব॒শী ত্বং দে॑ব সো॒মেন্দ্র॑স্য প্রি॒য়ং পাথোऽপী॑হ্য॒স্মৎস॑খা॒ ত্বং দে॑ব সোম॒ বিশ্বে॑ষাং দে॒বানাং॑ প্রি॒য়ং পাথোऽপী॑হি ॥ ৫০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উশিক্ ত্বমিত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । প্রজাপতয়ো দেবতাঃ ।
    ভুরিগার্ষী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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