यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - गृहपतयो देवताः
छन्दः - विराट ब्राह्मी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
135
अग्ना३इ पत्नी॑वन्त्स॒जूर्दे॒वेन॒ त्वष्ट्रा॒ सोमं॑ पिब॒ स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒र्वृषा॑सि रेतो॒धा रेतो॒ मयि॑ धेहि प्र॒जाप॑तेस्ते॒ वृष्णो॑ रेतो॒धसो॑ रेतो॒धाम॑शीय॥१०॥
स्वर सहित पद पाठअग्नाऽ२इ। पत्नी॑व॒न्निति॒ पत्नी॑ऽवन्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। त्वष्ट्रा॑। सोम॑म्। पि॒ब॒। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। वृषा॑। अ॒सि॒। रे॒तो॒धा इति॑ रेतःऽधः। रेतः॑। मयि॑। धे॒हि॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। ते॒। वृष्णः॑। रे॒तो॒धस॒ इति॑ रेतः॒ऽधसः॑। रे॒तो॒धामिति॑ रे॒तःऽधाम्। अ॒शी॒य॒ ॥१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ना३इ पत्नीवन्त्सजूर्देवेन त्वष्ट्रा सोमम्पिब स्वाहा । प्रजापतिर्वृषासि रेतोधा रेतो मयि धेहि प्रजापतेस्त वृष्णो रेतोधसो रेतोधामशीय ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्नाऽ२इ। पत्नीवन्निति पत्नीऽवन्। सजूरिति सऽजूः। देवेन। त्वष्ट्रा। सोमम्। पिब। स्वाहा। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। वृषा। असि। रेतोधा इति रेतःऽधः। रेतः। मयि। धेहि। प्रजापतेरिति प्रजाऽपतेः। ते। वृष्णः। रेतोधस इति रेतःऽधसः। रेतोधामिति रेतःऽधाम्। अशीय॥१०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पत्नी स्वपुरुषस्य कथं प्रशंसां प्रार्थनाञ्च कुर्य्यादित्युपदिश्यते
अन्वयः
हे अग्ने स्वामिन्! मया सजूस्त्वं देवेन त्वष्ट्रा स्वाहा सोमं पिब। हे पत्नीवन्! त्वं वृषा रेतोधाः प्रजापतिरसि, मयि रेतो धेहि। हे स्वामिन्! अहं वृष्णो रेतोधसः प्रजापतेस्ते तव सकाशाद् रेतोधां पुत्रमशीय॥१०॥
पदार्थः
(अग्न३इ) सर्वसुखप्रापक! (पत्नीवन्) प्रशस्ता यज्ञसम्बन्धिनी पत्नी यस्य तत्सम्बुद्धौ (सजूः) यः समानं जुषते सः (देवेन) दिव्यसुखप्रदेन (त्वष्ट्रा) सर्वदुःखविच्छेदकेन गुणेन (सोमम्) सोमम् सोमवल्ल्यादि-निष्पन्नमाह्लादकमासवविशेषम् (पिब) (स्वाहा) सत्यवाग्विशिष्टया क्रियया (प्रजापतिः) सन्तानादिपालकः (वृषा) वीर्य्यसेचकः (असि) (रेतोधाः) रेतो वीर्य्यं दधातीति (रेतः) वीर्य्यम् (मयि) विवाहितायां स्त्रियाम् (धेहि) धर (प्रजापतेः) सन्तानादिरक्षकस्य (ते) तव (वृष्णः) वीर्य्यवतः (रेतोधसः) पराक्रमधारकस्य (रेतोधाम्) वीर्य्यधारकमिति पराक्रमवन्तं पुत्रम् (अशीय) प्राप्नुयाम्। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ४। २। १५-१८) व्याख्यातः॥१०॥
भावार्थः
इह जगाति मनुष्यजन्म प्राप्य स्त्रीपुरुषौ ब्रह्मचर्य्योत्तमविद्यासद्गुणपराक्रमिणौ भूत्वा विवाहं कुर्य्याताम्, विवाहमर्य्यादयैव सन्तानोत्पत्तिरतिक्रीडाजन्यसुखसम्भोगं प्राप्य नित्यं प्रमुदेताम्। विना विवाहेन पुरुषः स्त्रियम्, स्त्री पुरुषं वा मनसापि नेच्छेद्, यतः स्त्रीपुरुषसम्बन्धेनैव मनुष्यवृद्धिर्भवति, तस्माद् गृहाश्रमं कुर्य्याताम्॥१०॥
विषयः
पत्नी स्वपुरुषस्य कथं प्रशंसां प्रार्थनाञ्च कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे [अग्ना३इ]=अग्ने सर्वसुखप्रापक स्वामिन् ! मया सजूः यः समानं जुषते सः त्वं देवेन दिव्यसुखप्रदेनत्वष्ट्रा सर्वदुःखविच्छेदकेन गुणेन स्वाहा सत्यवाग्विशिष्ट्या क्रियया सोमं सोमवल्ल्यादिनिष्पन्नमाह्लादकमासवविशेषंपिब। हे पत्नीवन् ! प्रशस्ता यज्ञसम्बन्धिनी पत्नी यस्य तत्सम्बुद्धौ त्वं वृषा वीर्य्यसेचकः रेतोधा: रेतः=वीर्य्यं दधातीति प्रजापतिः सन्तानादिपालक: असि, मयि विवाहितायां स्त्रियां रेतः वीर्य्यं धेहि धर । हे स्वामिन् ! अहं वृष्णः वीर्य्यवतः रेतोधसः पराक्रमधारकस्य प्रजापतेः सन्तानादिरक्षकस्य ते=तव सकाशाद् रेतोधां=पुत्रं वीर्य्यधारकमिति पराक्रमवन्तं पुत्रम् अशीय प्राप्नुयाम् ॥८ ।१०॥ [हे [अग्ना३]=अग्ने स्वामिन् ! मया सजूस्त्वं देवेन त्वष्ट्रा स्वाहा सोमं पिब]
पदार्थः
(अग्ना३इ) सर्वसुखप्रापक ! (पत्नीवन्) प्रशस्ता यज्ञसम्बन्धिनी पत्नी यस्य तत्सम्बुद्धौ (सजूः) यः समानं जुषते सः (देवेन) दिव्यसुखप्रदेन(त्वष्ट्रा) सर्वदुःखविच्छेदकेन गुणेन (सोमम्) सोमवल्ल्यादिनिष्पन्नमाह्लादकमासवविशेषम् (पिब)(स्वाहा)सत्यवाग्विशिष्ट्या क्रियया (प्रजापतिः) सन्तानादिपालक: (वृषा) वीर्य्यसेचक: (असि)(रेतोधाः) रेतोवीर्य्यदधातीति (रेतः) वीर्य्यम् (मयि) विवाहितायां स्त्रियाम् (धेहि)धर (प्रजापतेः) सन्तानादिरक्षकस्य (ते) तव (वृष्णः) वीर्य्यवतः (रेतोधसः) पराक्रमधारकस्य (रेतोधाम्) वीर्य्यधारकमिति पराक्रमवन्तं पुत्रम् (अशीय) प्राप्नुयाम् ॥ अयं मन्त्र: शत० ४।४।२।१५-१८ व्याख्यातः ॥ १०॥
भावार्थः
इह जगति मनुष्यजन्म प्राप्य स्त्रीपुरुषौ ब्रह्मचर्योत्तमविद्यासद्गुणपराक्रमिणौ भूत्वा विवाहं कुर्याताम् । [हे स्वामिन् ! अहं वृष्ण......ते=तव सकाशाद् रेतोधां=पुत्रमशीय] विवाहमर्यादयैव सन्तानोत्पत्तिरतिक्रीडाजन्यसुखसम्भोगं प्राप्य नित्यं प्रमुदेताम् । विना विवाहेन पुरुषः स्त्रियं, वा--स्त्री पुरुषं मनसापि नेच्छेद् यतः स्त्रीपुरुषसम्बन्धेन मनुष्यवृद्धिर्भवति, तस्माद् गृहाश्रमं कुर्याताम् ॥ ८ । १०॥
विशेषः
भरद्वाजः । गृहपतय:=गृहस्थाः । विराड् ब्राह्मी बृहती। मध्यमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
स्त्री अपने पुरुष की किस प्रकार से प्रशंसा और प्रार्थना करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) समस्त सुख पहुंचाने वाले स्वामिन्! (सजूः) समान प्रीति करने वाले आप मेरे (देवेन) दिव्य सुख देने वाले (त्वष्ट्रा) समस्त दुःख विनाश करने वाले गुण के साथ (स्वाहा) सत्यवाणीयुक्त क्रिया से (सोमम्) सोमवल्ली आदि औषधियों के विशेष आसव को (पिब) पीओ। हे (पत्नीवन्) प्रशंसनीय यज्ञसम्बधिनी स्त्री को ग्रहण करने (वृषा) वीर्य्य सींचने (रेतोधाः) वीर्य्य धारण करने (प्रजापतिः) और सन्तानादि के पालने वाले! जो आप (असि) हैं, वह (मयि) मुझ विवाहित स्त्री में (रेतः) वीर्य्य को (धेहि) धारण कीजिये। हे स्वामिन्! मैं (वृष्णः) वीर्य्य सीचने (रेतोधसः) पराक्रम धारण करने (प्रजापतेः) सन्तान आदि की रक्षा करने वाले (ते) आपके संग से (रेतोधाम्) वीर्य्यवान् अति पराक्रमयुक्त पुत्र को (अशीय) प्राप्त होऊं॥१०॥
भावार्थ
इस संसार में मनुष्यजन्म को पाकर स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य्य, उत्तम विद्या, अच्छे गुण और पराक्रमयुक्त होकर विवाह करें। विवाह की मर्यादा ही से सन्तानों की उत्पत्ति और रतिक्रीड़ा से उत्पन्न हुए सुख को प्राप्त होकर नित्य आनन्द में रहें। विना विवाह के स्त्री-पुरुष वा पुरुष-स्त्री के समागम की इच्छा मन से भी न करें। जिससे मनुष्यशक्ति की बढ़ती होवे, इससे गृहाश्रम का आरम्भ स्त्री-पुरुष करें॥१०॥
विषय
प्रजापति
पदार्थ
पति के लिए कहते हैं— १. हे ( अग्ने ) = प्रगतिशील! ( पत्नीवन् ) = उत्कृष्ट पत्नीवाले! ( देवेन ) = दिव्य गुणों के पुञ्ज ( त्वष्ट्रा ) = सर्वदुःख विच्छेदक अथवा सर्वनिर्माता प्रभु के ( सजूः ) = साथ प्रीतिपूर्वक कार्यों का सेवन करनेवाला होकर तू ( सोमं पिब ) = सोम का पान कर। ( स्वाहा ) = इसके लिए तू स्वार्थों का, भोगवृत्ति का त्याग करनेवाला बन। भोगवृत्ति को छोड़कर सोम पान करने से तू भी छोटे रूप में ‘देव त्वष्टा’ बन सकेगा, अर्थात् सुन्दर दिव्य गुणोंवाली सन्तानों को जन्म दे सकेगा।
२. तू इस सोमपान के कारण ( प्रजापतिः ) = उत्तम प्रजा का रक्षक है, ( वृषा असि ) = शक्तिशाली है तथा [ वृष = धर्म ] धर्ममय जीवनवाला है। ( रेतोधाः ) = इस सोमपान के कारण ही तू उचित ऋतु में रेतस् का आधान करनेवाला होता है।
३. इस रेतोधा पति से पत्नी कहती है कि ( मयि रेतः धेहि ) = तू मुझमें रेतस् का आधान कर, जिससे मैं ( ते प्रजापतेः ) = प्रजा के रक्षक तुझ ( वृष्णः ) = शक्तिशाली तथा ( रेतोधसः ) = ऋतु में रेतस् का आधान करनेवाले के ( रेतोधाम् ) = वीर्यधारक, पराक्रमवाले पुत्र को ( अशीय ) = प्राप्त करूँ। वस्तुतः संयमी माता-पिता ही शक्तिशाली सन्तान को जन्म दे पाते हैं। माता-पिता भी शक्तिशाली, उनकी सन्तान भी शक्तिशाली। वे शक्ति को अपने में भरनेवाले सचमुच प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘भरद्वाज’ हैं।
भावार्थ
भावार्थ — पति-पत्नी ‘सोमपान’ करनेवाले और रेतस् का अपने में धारण करनेवाले हों, जिससे उनकी सन्तानें भी शक्तिशाली हों।
विषय
राजा प्रजा तथा पति पत्नी का परस्पर मिलकर ऐश्वर्य भोग करना ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्ने ! अग्रणी राजन् ! हे ( पत्नीवन ) राष्ट्र के पालन करने वाली अपनी शक्ति सहित ! तू ( देवेन ) देव, दानशील, ( त्वष्ट्रा ) स्वष्टा सेनापति कसाथ ( सजूः ) सहयोग करके ( सोमस पिब ) सोम नाम राज पद का उपभोग कर ( स्वाहा ) इससे तेरा उत्तम यश होगा । . हे राजन् ! ( प्रजापतिः ) तू प्रजा का पालक ( वृषा) राष्ट्र पर सुखों का वर्षक या राष्ट्र का व्यवस्थापक (असि) है। तू ( रेतोधाः ) वीर्य का धारण करने वाला है । ( मयि ) मुझ राष्ट्र वासी प्रजाजन में भी ( रेतः ) वीर्य को (धाः ) धारण करा । ( प्रजापतेः) प्रजा के पालक (वृष्णः ) सब सुखों के वर्धक ( रेतोधसः ) उत्पादक वीर्य के धारक (ते) तेरे ( रेतोधाम्) वीर्य धारण करने में समर्थ राष्ट्र का ( अशीय ) मैं प्रजाजन भी भोग करु॥ शत० ४ । ४ । २।१५ -१८॥
गृहस्थ पक्ष में- हे अग्ने पत्नीवन् ! स्वामिन् ! ( देवेन त्वष्ट्रा सजूः ) त्वष्टा, वीर्य को पुत्र रूप से परिणत करने वाले दिव्य सामर्थ्य से युक्त होकर तू ( स्वाहा सोमम् पिब ) उत्तम रीति से सोम, ओषधि का पान कर हे पुरुष ! पते ! तू प्रजा का पालक वीर्यसेचन में समर्थ रेतस वीर्य धारण कराने वाला है। तू ( मयि ) मुझ पत्नी में वीर्य धारण करे । तुझ प्रजापति के ( रेतोधाम् अशीय) वीर्यवान् पुत्र को मैं प्राप्त करूं । अथवा वीर्याधान के सुख को प्राप्त करूं ॥
टिप्पणी
१० – गृहपतयो देवताः । द० । अग्ने वाक् पत्नि सजू०' इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निः प्रजापतिश्च देवते । विराड् ब्राह्मी बृहती । मध्यमः ॥
विषय
पत्नी अपने पुरुष की किस प्रकार से प्रशंसा और प्रार्थना करे, इस विषय का उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे [अग्ना३] सब सुखों के प्रापक स्वामिन् ! मेरे (सजू:) साथ आप (देवेन) दिव्य सुखदायक (त्वष्ट्रा) सब दुःखों के छेदक गुण से और (स्वाहा) सत्यवाणी से युक्त क्रिया से (सोमम्) सोमलता आदि से तैयार, आनन्ददायक आसव का (पिब) पान करो । हे (पत्नीवन्) प्रशंसनी यज्ञसङ्गिनी देवी वाले पतिदेव ! आप (वृषा) वीर्य का सेचन करने वाले, (रेतोधाः) वीर्य को धारण करने वाले और (प्रजापतिः) सन्तान आदि के पालक (असि) हो, सो (मयि) मुझ विवाहित स्त्री में (रेतः) वीर्य का (धेहि ) आधान करो । हे स्वामिन् ! मैं (वृष्णः) वीर्यवान्, (रेतोधसः) पराक्रम को धारण करने वाले, (प्रजापतेः) सन्तान आदि के रक्षक (ते) आप से (रेतोधाम्) वीर्य को धारण करने वाले अर्थात् पराक्रमी पुत्र को (अशीय) प्राप्त करूँ ॥ ८ । १० ।।
भावार्थ
इस जगत् में मनुष्य-जन्म प्राप्त करके स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य से उत्तम-विद्या और सद्गुणों में समर्थ होकर विवाह करें। विवाह की मर्यादा से ही सन्तानोपत्ति तथा रति-क्रीड़ा के सुख का उपभोग प्राप्त करके नित्य आनन्द में रहें । विवाह के बिना पुरुष स्त्री को अथवा स्त्री पुरुष को मन से भी न चाहे क्योंकि स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से मनुष्यों की वृद्धि होती है। अतः गृहाश्रम किया करें ।। ८ । १० ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ४ । २ । २ ।१५-१८) में की गई है।।८।१०।।
भाष्यसार
१. पत्नी द्वारा अपने पुरुष की प्रशंसा-- हे स्वामिन् ! आप सब सुखों को प्राप्त कराने वाले हो, दिव्य सुखों के दायक तथा सब दुःखों के विच्छेदक गुणों से भूषित हो, प्रशंसनीय यज्ञ से सम्बन्धित पत्नी वाले हो, वीर्य के सेचक, धारक और प्रजा के पालक हो । २. पत्नी द्वारा अपने पुरुष से प्रार्थना--हे स्वामिन् ! आप मेरे साथ सत्य-क्रिया के द्वारा सोमलता आदि से निष्पन्न चित्त को आह्लादित करने वाले आसव का पान कीजिये।आप पत्नीमान्, वीर्यसेचक, वीर्यधारक और प्रजापति होकर मुझ विवाहित स्त्री में वीर्य का आधान कीजिये। मैं उक्त गुणों से सुशोभित आपके पास से पराक्रमी पुत्र को प्राप्त करूँ ।। ८ । १० ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या संसारात मनुष्य जन्म प्राप्त झाल्यामुळे स्त्री व पुरुष यांनी ब्रह्मचर्य, उत्तम विद्या व उत्तम गुण यांनी युक्त होऊन पराक्रमी बनावे आणि विवाह करावा. विवाहाच्या मर्यादेनेच संतानांची निर्मिती करावी व रतिक्रीडेमुळे होणारे सुख प्राप्त करून आनंद भोगावा. विवाहबाह्य संबंधाची इच्छाही स्त्री-पुरुषांनी मनात आणू नये. मानवी (शक्ती) मूल्ये वाढतील अशा तऱ्हेने गृहस्थाश्रमाचा आरंभ करावा.
विषय
पत्नीने आपल्या पतीची कशाप्रकारे प्रशंसा आणि काय प्रार्थना करावी, पुढील मंत्रात याविषयी उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (पत्नी म्हणजे) हे समस्त सुखदाता स्वामिन्, (सजू:) मी आपल्यावर करीत असलेल्या प्रेमाप्रमाणे आपण माझ्यावर प्रेम करता. (देवेन) दिव्य सुख देणारे आणि (त्वष्ट्रा) समस्त दु:खविनाश तसेच (स्वाहा) सत्यवचन आणि सत्य-व्यवहार करणारे आहात. या (सोमम्) सोमवल्ली आदी औषधींपासून तयार केलेले हे विशेष आसव आपण (पिब) प्या. हे (पत्नीवत्) आपल्या प्रिय स्त्रीला पत्नी म्हणून ग्रहण करणारे (वृषा) वीर्यसिंचन करणारे (रेतोधा:) वीर्यवान आणि (प्रजापति:) सन्तानांचे पालन करणारे, (असि) आहात (मयि) माझ्यात म्हणजे विवाहिता पत्नीमध्ये (रेत:) वीर्याचे (धेहि) आधान करा. हे स्वमिन्, (वृष्ण:) वीर्यसिंचन करण्यास समर्थ असलेल्या (प्रजापते:) संतानांचे रक्षण करणार्या (ते) अशा आपल्या पतीशी समागम करून (रेतोधाम्) मी वीर्यवान अतिपराक्रमी पुत्रास (अशीय) प्राप्त करावे, अशी माझी कामना आहे. ॥10॥
भावार्थ
भावार्थ - या संसारात मनुष्य जन्म स्त्री-पुरुषांनी मिळाल्यानंतर ब्रह्मचर्य धारण करीत उत्तम विद्या, सद्गुण आणि शक्ती मिळविल्यानंतरच विवाह करावा. विवाहाच्या वेळी किंवा गृहाश्रमात घातलेल्या मर्यादा, नियम आदींचे पालन करीत संतानेत्पत्ती करावी आणि रतिक्रीडेद्वारे मिळणारे आनंद प्राप्त करीत सुखी असावे. विवाह केल्याशिवाय स्त्रीने पुरुषाशी तसेच पुरूषाने स्त्रीशी समागमाची इच्छा देखील करूं नये. ज्या योगे मनुष्य-समाजाची शक्ती वाढत राहील, स्त्री-पुरुषांनी अशाच प्रकारचे गृहाश्रम धर्म आचरावे. ॥10॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O’ husband, full of affection for me, the supplier of excellent comforts for me, the dispeller of all of my miseries, truthful in speech, drink the juice of medicinal herbs. O master of a devoted wife, full of prowess and semen, thou art the progenitor of offspring. Impregnate semen in me. May I give birth to a valorous son, in connection with thee, the impregnator, the lord of vigour, and the guardian of the children.
Meaning
Manly man of a darling wife, lord of brilliance and joy, come and, with the inspiring poetry of Veda in honour and praise of the Creator, and eliminator of suffering, Twashta, drink the elixir of life with me. Husband of an admirable wife, virile and generous like the rain-god cloud, lover and guardian of people and children, rain the shower of life and joy on me. Replete with the seeds of life, sow the seed in me. Would-be father of your child, virile and lustrous, I shall receive and hold the seed and bear your son and spirit — the Lord bless him — as brave and lustrous as you.
Translation
О adorable Lord, possessor of protective power, accept our devotion in consonance with the supreme architect, Svaha. (1) O Lord of progeny, you are the impregnator, and the possessor of virility; may you bestow virility on me. O Lord of progeny, may I obtain from you, the impregnator, and the possessor of virility, a potent son. (2)
Notes
Tvastr& with the supreme architect. Retodha, one who has good semen: possessor of virility. Retedhim, a potent (son). Vrezah, from the impregnator.
बंगाली (1)
विषय
পত্নী স্বপুরুষস্য কথং প্রশংসাং প্রার্থনাঞ্চ কুর্য়্যাদিত্যুপদিশ্যতে ॥
স্ত্রী স্বীয় পুরুষের কী ভাবে প্রশংসা ও প্রার্থনা করিবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) সমস্ত সুখ দাতা স্বামিন ! (সজুঃ) সমান প্রীতি সম্পন্ন আপনি আমার (দেবেন) দিব্য সুখ দাতা (ত্বষ্ট্রা) সমস্ত দুঃখ বিনাশকারী গুণ সহ (স্বাহা) সত্যবাণীযুক্ত ক্রিয়া দ্বারা (সোমম্) সোমবল্লী ইত্যাদি ঔষধিগুলির বিশেষ আসবকে (পিব) পান করুন । হে (পত্নীবন্) প্রশংসনীয় যজ্ঞসম্বন্ধিনী স্ত্রীকে গ্রহণকারী (বৃষা) বীর্য্য সিঞ্চনকারী (রেতোধাঃ) বীর্য্য ধারণকারী (প্রজাপতিঃ) এবং সন্তানাদির পালক ! আপনি যে (অসি) আছেন (ময়ি) আমা বিবাহিত স্ত্রীতে (রেতঃ) বীর্য্য (ধেহি) ধারণ করুন । হে স্বামিন্ । আমি (বৃষ্ণঃ) বীর্য্য সিঞ্চনকারী (রেতোষসঃ) পরাক্রম ধারণকারী (প্রজাপতেঃ) সন্তানাদির বক্ষাকর্ত্তা (তে) আপনার সঙ্গ দ্বারা (রেতোধাম্) বীর্য্যবান্ অতি পরাক্রমযুক্ত পুত্রকে (অশীয়) প্রাপ্ত করি ॥ ১০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই সংসারে মনুষ্য জন্ম লাভ করিয়া স্ত্রীও পুরুষ ব্রহ্মচর্য্য উত্তম বিদ্যা ভাল গুণ ও পরাক্রম যুক্ত হইয়া বিবাহ করিবে । বিবাহের মর্যাদা দ্বারাই সন্তানদিগের উৎপত্তি এবং রতিক্রিয়া দ্বারা উৎপন্ন সুখ প্রাপ্ত হইয়া নিত্য আনন্দে থাকিবে । বিবাহ ব্যতীত স্ত্রী-পুরুষ বা পুরুষ-স্ত্রীর সমাগমের ইচ্ছা মন দিয়াও করিবে না যাহাতে মনুষ্য শক্তি বৃদ্ধি পায় । এইভাবে গৃহাশ্রমের আরম্ভ স্ত্রী-পুরুষ করিবে ॥ ১০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অগ্না৩ই পত্নী॑বন্ৎস॒জূর্দে॒বেন॒ ত্বষ্ট্রা॒ সোমং॑ পিব॒ স্বাহা॑ । প্র॒জাপ॑তি॒বৃর্ষা॑সি রেতো॒ধা রেতো॒ ময়ি॑ ধেহি প্র॒জাপ॑তেস্তে॒ বৃষ্ণো॑ রেতো॒ধসো॑ রেতো॒ধাম॑শীয় ॥ ১০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্না৩ই পত্নীবন্নিত্যস্য ভরদ্বাজ ঋষিঃ । গৃহপতয়ো দেবতাঃ ।
বিরাড্ ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal