यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 16
ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः
देवता - गृहपतिर्देवता
छन्दः - विराट आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
102
सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सꣳशि॒वेन॑। त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ विद॑धातु॒ रायोऽनु॑मार्ष्टु त॒न्वो यद्विलि॑ष्टम्॥१६॥
स्वर सहित पद पाठसम्। वर्च॑सा। पय॑सा। सम्। त॒नूभिः॑। अग॑न्महि। मन॑सा। सम्। शि॒वेन॑। त्वष्टा॑। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑। वि। द॒धा॒तु॒। रायः॑। अनु॑। मा॒र्ष्टु॒। त॒न्वः᳖। यत्। विलि॑ष्ट॒मिति॒ विऽलि॑ष्टम् ॥१६॥
स्वर रहित मन्त्र
सँवर्चसा पयसा सन्तनूभिरगन्महि मनसा सँ शिवेन । त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायोनु मार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्। वर्चसा। पयसा। सम्। तनूभिः। अगन्महि। मनसा। सम्। शिवेन। त्वष्टा। सुदत्र इति सुऽदत्रः। वि। दधातु। रायः। अनु। मार्ष्टु। तन्वः। यत्। विलिष्टमिति विऽलिष्टम्॥१६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तदेवाह
अन्वयः
हे आप्ता विद्वांसः! युष्माकं सुमतौ प्रवृत्ता वयं यो युष्माकं मध्ये श्रेष्ठः सुदत्रस्त्वष्टा विद्वानस्मभ्यं संवर्चसा पयसा संशिवेन मनसा यान् रायो विदधातु यत् तन्वो विलिष्टमनुमार्ष्टु तैस्तांस्तच्चागन्महि॥१६॥
पदार्थः
(सम्) एकीभावे (वर्चसा) तेजसा (पयसा) रात्र्या, पय इति रात्रिनामसु पठितम्। (निघं॰१.७) (सम्) (तनूभिः) बलविशिष्टशरीरैर्विद्वद्भिः। (अगन्महि) प्राप्नुयाम (मनसा) मननेन (सम्) (शिवेन) सुखप्रदेन (त्वष्टा) अविद्याविच्छेदकः (सुदत्रः) सुष्ठु ज्ञानकर्त्ता (विदधातु) (रायः) विद्यादिधनानि (अनु) (मार्ष्टु) (तन्वः) शरीरस्य (यत्) (विलिष्टम्) रोमादिमललेशम्। अयं मन्त्रः (शत॰४। ४। ४। ८) व्याख्यातः॥१६॥
भावार्थः
मनुष्यैरहर्निशमाप्तसङ्गेन धर्म्मार्थकाममोक्षाः सम्यक् साधनीयाः॥१६॥
विषयः
पुनस्तदेवाह ॥
सपदार्थान्वयः
हे आप्ता विद्वांस:! युष्माकं सुमतौ प्रवृत्ता वयं--यो युष्माकं मध्ये श्रेष्ठःसुदत्रः सुष्ठुज्ञानकर्ता त्वष्टाअविद्याविच्छेदक: विद्वानस्मभ्यं संवर्चसा तेजसा पयसा रात्र्या संतनूभि: बलविशिष्टशरीरैर्विद्वद्भिःसं शिवेन सुखप्रदेनमनसा मननेन यान् राय: विद्यादिधनानि विदधातु, यत्तन्वः शरीरस्य विलिष्टं रोमादिमललेशम् अनुमार्ष्टु, तैस्ताँस्तच्चागन्महि प्राप्नुयाम ॥ ८ । १६ ॥ [हे आप्ता विद्वांसः ! युष्माकं सुमतौ प्रवृत्ता वयं--यो युष्माकं मध्ये विद्वानस्मभ्यं संवर्चसा पयसा...... यान् रायो विदधातु यत्तन्वो विलिष्टमनुमार्ष्टु, तैस्ताँस्तच्चागन्महि]
पदार्थः
(सम्) एकीभावे (वर्चसा) तेजसा (पयसा) रात्र्या । पय इति रात्रिनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । ७ ॥(सम्)(तनुभिः) बलविशिष्टशरीरैर्विद्वद्भिः । (अगन्महि) प्राप्नुयाम (मनसा) मननेन (सम्)(शिवेन) सुखप्रदेन(त्वष्टा) अविद्याविच्छेदक: (सुदत्रः) सुष्ठुज्ञानकर्ता (विदधातु)(रायः) विद्यादिधनानि (अनु)(मार्ष्टु)(तन्वः) शरीरस्य (यत्)(विलिष्टम्) रोमादिमललेशम् ॥ अयं मन्त्रः शतः ४ । ४ । ४ । ८ व्याख्यातः ॥ १६ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरहर्निशमाप्तसंगेन धर्मार्थकाममोक्षाः सम्यक् साधनीयाः ॥ ८ । १६ ॥
भावार्थ पदार्थः
संवर्चसा=अह्ना। रायः=धर्मार्थकाममोक्षान् ॥
विशेषः
संवर्चसा इत्यस्यात्रिः । गृहपति:=गृहस्थः ॥ विराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे आप्त अत्युत्तम विद्वानो! आप लोगों की सुमति में प्रवृत्त हुए हम लोग जो आप लोगों के मध्य (सुदत्रः) विद्या के दान से विज्ञान को देने और (त्वष्टा) अविद्यादि दोषों का नष्ट करने वाला विद्वान् हम को (संवर्च्चसा) उत्तम दिन और (पयसा) रात्रि से (संशिवेन) अति कल्याणकारक (मनसा) विज्ञान से (यत्) जिस (तन्वः) शरीर से हानिकारक कर्म्म को (अनुमार्ष्टु) दूर करे और (रायः) पुष्टिकारक द्रव्यों को (विदधातु) प्राप्त करावें, उस और उन पदार्थों को (समगन्महि) प्राप्त हों॥१६॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि दिन रात उत्तम सज्जनों के संग से धर्म्मार्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि करते रहें॥१६॥
विषय
‘सु-द-त्रः’
पदार्थ
गत मन्त्र का अत्रि कहता है कि ( सुदत्रः ) = उत्तम ज्ञानों के दान से त्राण करनेवाले ( त्वष्टा ) = अविद्यादि दोषों को नष्ट करनेवाले प्रभु की कृपा से ( वर्चसा ) = ब्रह्मवर्चस् से ( पयसा ) = आप्यायन [ वर्धन ] से ( तनूभिः ) = बलयुक्त शरीरों से ( शिवेन मनसा ) = शिवसंकल्पवाले मन से ( समगन्महि ) = हम सङ्गत हों। वह प्रभु ( रायः विदधातु ) = दान देने योग्य धनों को हममें धारण करें और ( तन्वः ) = शरीर का जो ( विलिष्टम् ) = न्यूनीभाव है, उसे ( अनुमार्ष्टु ) = ठीक कर डालें, शोध डालें, न्यूनता को दूर करके हमारी पूर्णता करें। हमारे शरीर, मन व मस्तिष्क में कहीं भी त्रुटि न रह जाए। हम ‘अ-त्रि’ बनें—हमारे शरीर भी त्रुटिशून्य हों, मन और मस्तिष्क भी।
भावार्थ
भावार्थ — वे प्रभु हमें उत्तम ज्ञान का दान करके अल्पीभाव से शून्य करें। हम न्यूनताओं को दूर करके शरीर, मन व मस्तिष्क में पूर्णता का स्थापन करें।
विषय
नाना अधिकारियों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हम लोग ( वर्चसा ) तेन ( पयसा ) पुष्टि, ( तनुभिः ) दृढशरीरों और ( शिवेन मनसा ) कल्याणकारी शुद्ध चित्त या मनन शक्ति से ( सम् ३ अगन्महि ) भली प्रकार संयुक्त रहें । ( सुदत्रः ) उत्तन २ पदार्थों का दाता (त्वष्टा) सर्वोत्पादक परमेश्वर हमें (रायः ) समस्त ऐश्वर्य ( विदधातु ) प्रदान करे और ( तन्वः ) हमारे शरीर में ( यत् ) जो कुछ (विलिष्टम् ) विपरीत, अनिष्टजनक, प्राणोपघातक पदार्थ हों उसको (अनुमार्ष्टु ) शुद्ध करे, दूर करे॥ शत० १ । ९ । ३ । ६ ॥
टिप्पणी
१६ – विलीष्टन्' इति शत० । इतः आरभ्य आ अध्यायपरिसमाप्ते ऋषिः सु एवेति दयानन्द । प्रजापतिः परमेष्ठी वामदेवो वेति सन्दिह्यते ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
त्वष्टा देवता । बिष्ठ त्रिष्टुप् ।धैवतः॥
विषय
मित्र के कर्त्तव्य का फिर उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे आप्त विद्वानो! आपकी सुमतिमें प्रवृत्त हुये हम लोग--जो हमारे मध्य में श्रेष्ठ (सुदत्रः) उत्तम ज्ञान का दाता, (त्वष्टा) अविद्या का विच्छेदन करने वाला विद्वान् हमारे लिये (संवर्चसा) तेजोयुक्त दिन तथा (पयसा) रात्रि से, (संतनूभिः) बलवान् शरीरों वाले विद्वानों से, (संशिवेन) सुखदायक (मनसा) मनन से जिन (रायः) विद्या आदि धनों का (विदधातु) विधान करे और जो (तन्वः) शरीर के (विलिष्टम्) रोम आदि मलों का लेश है उसे (अनुमार्ष्टु) बार-बार शुद्ध करो । उक्त दिन आदि साधनों से उक्त धनों को प्राप्त करें तथा उक्त मल को साफ करें ।। ८ । १६ ।।
भावार्थ
सब मनुष्य दिन-रात आप्त विद्वानों के संग से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को उत्तम रीति से सिद्ध करें ।। ८ । १६ ।।
प्रमाणार्थ
(पयसा) राज्या। 'पय:' शब्द निघं० (१ । ७) में रात्रि-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४। ४। ४। ८ ) में की गई है ॥ ८ । १६ ।।
भाष्यसार
मित्रों का कर्त्तव्य--आप्त विद्वान् लोग गृहस्थ जनों के मित्र होते हैं। अतः उनकी सम्मति के अनुसार कार्यों में प्रवृत्त होकर गृहस्थ लोग दिन-रात बलवान् आप्त विद्वानों के संग से तथा कल्याणकारी मन से विद्या आदि धनों एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करें। शरीर के सब मलों का मार्जन करें ।। ८ । १६ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
सतत सज्जनांची संगत धरुन माणसांनी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करावेत.
विषय
पुढील मंत्रात त्याच विषयी प्रतिपादन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (गृहस्थजन विद्वज्जनांस म्हणत आहेत) हे आप्त आणि अत्युत्तम विद्वज्जन, तुमच्या सन्मतीप्रमाणे वागणार्या आम्ही गृहस्थजनांनी तुमच्या संगतीत राहून (सुदत्र:) विद्या आणि विज्ञान रूप दान घेत रहावे. तसेच (त्वष्टा) अविद्या आदी दोषांना नष्ट करणार्या विद्वानांकडून (संरर्चसा) उत्तम दिनीं (पयसा) आणि उत्तम रात्रीत (संशिवेन) अतिकल्याणकारी (मनसा) विमानाद्वारे (यत्) या आमच्या (तन्व:) शरीराच्या हानिकारक व्यवहाराला दूर करावे. (आम्ही शरीराने हानिकारक दुष्कर्म करू नये) आणि (राय:) पुष्टिकर द्रव्यांना (विदधातु) प्राप्त करावे. आम्हांस ते स्वास्थ्यकर पदार्थ (समगन्महि) मिळत राहोत ॥16॥
भावार्थ
missing
इंग्लिश (3)
Meaning
O highly learned persons, acting upon your judgment, may we approach amongst ye, him, who gives us good knowledge, removes the ills of ignorance, imparts knowledge to us day and night out of his vast store, and removes the ills of our body.
Meaning
Follow as we do the noble genius of superior people among us, bless us Twashta, remover of the veils of ignorance and giver of knowledge. By the bright day and in the night, with the help and guidance of healthy and intelligent scholars and sages, and with the gift of a noble mind and concentration, bless us with the wealth of life, knowledge, wisdom, health and culture, and cleanse us of all the negativities and impurities of body and mind.
Translation
May we be blessed with intellectual lustre, vigour, bodies, and noble mind. May liberally-giving cosmic architect provide us with riches and remove every blemish from our bodies. (1)
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মিত্রকৃত্যমাহ ॥
পুনরায় মিত্রের কৃত্য পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (মঘবন্) পূজ্য ধনযুক্ত (ইন্দ্র) সত্যবিদ্যাদি ঐশ্বর্য্য সহিত (সম্) সম্যক্ অধ্যাপন ও উপদেশকারী ! আপনি যদ্দ্বারা (সম্) (মনসা) উত্তম অন্তঃকরণ দ্বারা (সম্) উত্তম মার্গ (গোভিঃ) গাভি অথবা (সম্) (স্বস্ত্যা) ভাল-ভাল বচনযুক্ত সুখরূপ ব্যবহার দ্বারা (সূরিভিঃ) বিদ্বান্ দিগের সহ (ব্রহ্মণা) বেদ-বিজ্ঞান বা ধন দ্বারা বিদ্যা এবং (য়ৎ) যাহা (য়জ্ঞিয়ানাম্) যজ্ঞ পালনকারীর করণীয় (দেবনাম্) বিদ্বান্দিগের (স্বাহা) সত্য বাণীযুক্ত (সুমতৌ) শ্রেষ্ঠ বুদ্ধিতে (দেবকৃতম্) বিদ্বান্দিগের কৃত কর্ম্ম উহাকে (স্বাহা) সত্য বাণী দ্বারা (নঃ) আমাদেরকে (সন্নেষি) সম্যক্ প্রকারে প্রাপ্ত করেন, এইজন্য আপনি আমাদের পূজ্য ॥ ১৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- গৃহস্থেরা বিদ্বান্দিগের এইজন্য সৎকার করিবেন কেননা তাঁহারা বালকদিগের নিজ শিক্ষা দ্বারা গুণবান্ এবং র্াজা ও প্রজাদেরকে ঐশ্বর্য্যযুক্ত করেন ॥ ১৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সমি॑ন্দ্র ণো॒ মন॑সা নেষি॒ গোভিঃ॒ সꣳ সূ॒রিভি॑র্মঘব॒ন্ৎসꣳ স্ব॒স্ত্যা । সং ব্রহ্ম॑ণা দে॒বকৃ॑তং॒ য়দস্তি॒ সং দে॒বানা॑ᳬं সুম॒তৌ য়॒জ্ঞিয়া॑না॒ᳬं স্বাহা॑ ॥ ১৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সমিন্দ্রেত্যস্যাত্রির্ঋষিঃ । গৃহপতির্দেবতা । ভুরিগার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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