यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 23
ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः । ऊरुमित्यस्य शुनः शेप ऋषिः
देवता - गृहपतयो देवताः
छन्दः - याजुषी उष्णिक्,निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,आसुरी गायत्री
स्वरः - ऋषभः, षड्जः
81
माहि॑र्भू॒र्मा पृदा॑कुः। उ॒रुꣳ हि राजा॒ व॑रुणश्च॒कार॒ सूर्या॑य॒ पन्था॒मन्वे॑त॒वाऽउ॑। अ॒पदे॒ पादा॒ प्रति॑धातवेऽकरु॒ताप॑व॒क्ता हृ॑दया॒विध॑श्चित्। नमो॒ वरु॑णाया॒भिष्ठि॑तो॒ वरु॑णस्य॒ पाशः॑॥२३॥
स्वर सहित पद पाठमा। अहिः॑। भूः॒। मा। पृदा॑कुः। उ॒रुम्। हि। राजा॑। वरु॑णः। च॒कार॑। सूर्य्या॑य। पन्था॑म्। अन्वे॑त॒वा इत्युनु॑ऽएत॒वै। ऊँऽइत्यूँ॑। अ॒पदे॑। पादा॑। प्रति॑धातव॒ इति॒ प्रति॑ऽधातवे। अ॒कः॒। उ॒त। अपव॒क्तेत्य॑पऽवक्ता। हृ॒द॒या॒विधः॑। हृ॒द॒य॒विध॒ इति॑ हृदय॒ऽविधः॑। चि॒त्। नमः॑। वरु॑णाय। अ॒भिष्ठि॑तः। अ॒भिस्थि॑त॒ इत्य॒भिऽस्थि॑तः। वरु॑णस्य। पाशः॑ ॥२३॥
स्वर रहित मन्त्र
माहिर्भूर्मा पृदाकुः । उरुँ हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा ऽउ । अपदे पादा प्रतिधातवेकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित् । नमो वरुणायाभिष्ठितो वरुणस्य पाशः ॥
स्वर रहित पद पाठ
मा। अहिः। भूः। मा। पृदाकुः। उरुम्। हि। राजा। वरुणः। चकार। सूर्य्याय। पन्थाम्। अन्वेतवा इत्युनुऽएतवै। ऊँऽइत्यूँ। अपदे। पादा। प्रतिधातव इति प्रतिऽधातवे। अकः। उत। अपवक्तेत्यपऽवक्ता। हृदयाविधः। हृदयविध इति हृदयऽविधः। चित्। नमः। वरुणाय। अभिष्ठितः। अभिस्थित इत्यभिऽस्थितः। वरुणस्य। पाशः॥२३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ राजोपदेशमाह॥
अन्वयः
हे राजन् सभेश्वर! त्वं वरुणायोरुं न्यायं कुर्वन्नन्वेतवै अपदे पादा प्रतिधातवेऽकः सूर्य्याय पन्थां चकार, उतापवक्ता हृदयाविधश्चिदिव मा पृदाकुर्माहिर्भूर्यथा वरुणस्य तवाभिष्ठितो नमः पाशश्च प्रकाशेत, तथा सततं प्रयतस्व॥२३॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (अहिः) सर्प्पवत् क्रुद्धो विषधरः (भूः) भवेः (मा) (पृदाकुः) कुत्सितवाक् (उरुम्) बहुगुणान्वितं न्यायम् (हि) खलु (राजा) प्रशस्तगुणस्वभावैः प्रकाशमानः (वरुणः) वरः (चकार) कुर्य्याः, अत्र लिर्ङ्थे लिट् (सूर्य्याय) चराचरात्मेश्वरप्रकाशाय (पन्थाम्) न्यायमार्गम् (अन्वेतवै) अनुक्रमेण गन्तुम् (उ) वितर्के (अपदे) चौरादिनिष्पादितेऽप्रसिद्धे व्यवहारे (पादा) चरणौ, अत्राकारादेशः (प्रतिधातवे) प्रतिधर्त्तुम् (अकः) कुरु (उत) अपि (अपवक्ता) मिथ्यावादी (हृदयाविधः) यो हृदयमाविध्यति सः (चित्) इव (नमः) वज्रम् (वरुणाय) प्रशस्तैश्वर्याय (अभिष्ठितः) अभितः स्थितः जाज्वल्यमानः (वरुणस्य) वीरगुणोपेतस्य (पाशः) बन्धनम्। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ४। ५। ३-११) व्याख्यातः॥२३॥
भावार्थः
प्रजापुरुषाणां योग्यतास्ति यो हि विद्वान् जितेन्द्रियो धार्म्मिकः पिता पुत्रानिव प्रजापालने तत्परः सर्वेभ्यः सुखकारी भवेत्, तं सभापतिं कुर्वीरन्। राजा वा प्रजापुरुषः कदापि दुष्टकर्म्मकारी न भवेत्, कथंचिद् यदि स्यात् तर्हि प्रजा यथापराधं राजानं दण्डयेत्, राजा च प्रजापुरुषं कदाप्यपराधिनं दण्डेन विना न त्यजेत्, अनपराधिनं च वृथा न पीडयेत्। एवं सर्वे न्यायाचरणतत्परा भूत्वा प्रयतेरन्, यतोऽधिका मित्रोदासीनशत्रवो न स्युः। पुनर्विद्याधर्म्ममार्गान् शुद्धान् प्रचार्य्य सर्वे परमात्मभक्तिपरायणा भूत्वा सदा सुखिनः स्युः॥२३॥
विषयः
अथ राजोपदेशमाह ॥
सपदार्थान्वयः
हे राजन् सभेश्वर ! त्वं [वरुणः] वरः [राजा] प्रशस्तगुणस्वभावैः प्रकाशमान: वरुणाय प्रशस्तैश्वर्याय उरुंबहुगुणान्वितंन्यायं कुर्वन्नन्वेतवै अनुक्रमेण गन्तुम् अपदे चौरादिनिष्पादितेऽप्रसिद्धे व्यवहारे पादा चरणौ प्रतिधातवे प्रतिधर्त्तुम् अकः कुरु । सूर्य्याय चराचरात्मेश्वरप्रकाशाय पन्थां न्यायमार्गं [हि] खलु चकार कुर्य्याः । उत अपि--अपवक्ता मिथ्यावादी हृदयाविधः यो हृदयमाविध्यति सः चित्=इवमा पृदाकुः कुत्सितवाक्मा अहि: सर्प्पवत् क्रुद्धो विषधरः भूः भवेः । यथा वरुणस्य वीरगुणोपेतस्य तवाभिष्ठितः अभितः स्थितो जाज्वल्यमानः नमः वज्रंपाशः बन्धनं च प्रकाशेत तथा सततं प्रयतस्व ॥ ८ । २३॥ [हे राजन् सभेश्वर ! त्वं......न्यायं कुर्वन्नन्वेतवै अपदे पादा प्रतिधातवेऽकः, सूर्याय पन्थां [हि] चकार]
पदार्थः
(मा) निषेधे (अहिः) सर्प्पवत् क्रुद्धो विषधरः (भूः) भवे: (मा)(पृदाकुः) कुत्सितवाक् (उरुम्) बहुगुणान्वितं न्यायम् (हि) खलु (राजा) प्रशस्तगुणस्वभावैः प्रकाशमानः (वरुणः) वर: (चकार) कुर्य्याः। अत्र लिङर्थे लिट्(सूर्य्याय) चराचरात्मेश्वरप्रकाशाय (पन्थाम्) न्यायमार्गम् (अन्वेतवै) अनुक्रमेण गन्तुम् (उ) वितर्के(अपदे) चौरादिनिष्पादितेऽप्रसिद्धै व्यवहारे (पादा) चरणौ । अत्राकारादेशः(प्रतिधातवे) प्रतिधर्त्तुम् (अकः) कुरु (उत) अपि (अपवक्ता) मिथ्यावादी (हृदयाविधिः) यो हृदयमाविध्यति सः (चित्) इव (नमः) वज्रम् (वरुणाय) प्रशस्तैश्वर्या य(अभिष्ठितः) अभितः स्थितः जाज्वल्यमान: (वरुणस्य) वीरगुणोपेतस्य (पाशः) बन्धनम् ॥ अयं मन्त्रः शत० ४।४।४।३--११ व्याख्यातः ॥ २३ ॥
भावार्थः
प्रजापुरुषाणां योग्यतास्तियो हि विद्वान्, जितेन्द्रियो, धार्मिकः, पिता पुत्रानिवप्रजापालने तत्पर:, सर्वेभ्यः सुखकारी भवेत् तं सभापतिं कुर्वीरन्, [उत-अपवक्ता हृदयाविधश्चिदिव मा पृदाकुर्माहिर्भूः] राजा, वा प्रजापुरुषः कदापि दुष्टकर्म्मकारी न भवेत्, कथंचिद्यति स्यात् तर्हि प्रजा यथापराधं राजानं दण्डयेत् राजा च प्रजापुरुषं, कदाप्यपरोधिनं दण्डेन विना न त्यजेत्, अनपराधिनं च वृथा न पीडयेत्। [सूर्याय पन्थां हि चकार] एवं--सर्वे न्यायाचरणतत्परा भूत्वा प्रयतेरन्, यतोऽधिका मित्रोदासीनशत्रवो न स्युः, पुनर्विद्याधर्म्ममार्गान् शुद्धान् प्रचार्य्य सर्वे परमात्मभक्तिपरायणा भूत्वा सदा सुखिनः स्युः ॥८ । २३॥
विशेषः
अत्रिः । गृहपतय:=गृहस्थाः । आद्यस्य याजुष्युष्णिक्। ऋषभः । उरुमित्यस्य शुनःशेप । भुरिगार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः । नम इत्यस्यासुरी गायत्री। षड्ज: ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में राजा के लिये उपदेश किया है॥
पदार्थ
हे राजन् सभापते! तू (वरुणाय) उत्तम ऐश्वर्य्य के वास्ते (उरुम्) बहुत गुणों से युक्त न्याय को (अकः) कर (सूर्य्याय) चराचर के आत्मा जगदीश्वर के विज्ञान होने (सूर्य्याय) और प्रजागणों को यथायोग्य धर्म्म प्रकाश में चलने के लिये (पन्थाम्) न्यायमार्ग को (चकार) प्रकाशित कर (उत) और कभी (अपवक्ता) झूंठ बोलने वाला (हृदयाविधः) धर्मात्माओं के मन को सन्ताप देने वाले के (चित्) सदृश (पृदाकुः) खोटे वचन कहने वाला (मा) मत हो और (अहिः) सर्प्प के समान क्रोधरूपी विष का धारण करने वाला (मा) मत (भूः) हो और जैसे (वरुणस्य) वीर गुण वाले तेरा (अभिष्ठितः) अति प्रकाशित (नमः) वज्ररूप दण्ड और (पाशः) बन्धन करने की सामग्री प्रकाशमान रहे, वैसे प्रयत्न को सदा किया कर॥२३॥
भावार्थ
प्रजाजनों को चाहिये कि जो विद्वान् इन्द्रियों का जीतने वाला, धर्मात्मा और पिता जैसे अपने पुत्रों को वैसे प्रजा की पालना करने में अति चित्त लगावे और सब के लिये सुख करने वाला सत्पुरुष हो, उसी को सभापति करें और राजा वा प्रजाजन कभी अधर्म के कामों को न करें, जो किसी प्रकार कोई करे तो अपराध के अनुकूल प्रजा राजा को और राजा प्रजा को दण्ड देवे, किन्तु कभी अपराधी को दण्ड दिये विना न छोड़े और निरपराधी को निष्प्रयोजन पीड़ा न देवे। इस प्रकार सब कोई न्यायमार्ग से धर्माचरण करते हुए अपने-अपने प्रत्येक कामों के चिन्तन में रहें, जिससे अधिक मित्र, थोड़े प्रीति रखने वाले और शत्रु न हों और विद्या तथा धर्म के मार्गों का प्रचार करते हुए सब लोग ईश्वर की भक्ति में परायण हो के सदा सुखी रहें॥२३॥
विषय
विशाल संसार में सभी के लिए स्थान है
पदार्थ
१. गत मन्त्र में यज्ञियवृत्ति का उल्लेख था। यज्ञियवृत्तिवाला व्यक्ति दूसरे से लड़ता नहीं, न हानि पहुँचाता है। मन्त्र में कहते हैं कि— ( मा अहिः भूः ) = तू साँप मन बन, अर्थात् कभी कुटिलता का आश्रय मत ले और न ही साँप की तरह औरों को डसनेवाला बन। कभी कड़वे—चुभनेवाले शब्द न बोल।
२. ( मा पृदाकुः ) = तू अजगर मत बन। दूसरे की सम्पत्ति को हड़पनेवाला मत बन, क्योंकि उस ( राजा वरुणः ) = सारे संसार के शासक वरुण ने ( हि ) = निश्चय से ( उरुम् चकार ) = इस संसार को अत्यन्त विशाल बनाया है। दूसरे के भाग को हड़पकर क्या करना? परस्पर लड़ना भी क्यों?
३. उस प्रभु ने तो ( सूर्याय उ ) = सूर्य के लिए भी, जोकि पृथिवी से लाखों गुणा बड़ा है, ( अन्वेतवा ) = अनुक्रम से चलने के लिए, ( पन्थाम् ) = मार्ग को ( चकार ) = बनाया है फिर इस छोटे से देह में प्रविष्ट मेरे लिए इस संसार में कोई कमी है क्या? नहीं, मुझे अपने हृदय को विशाल बनाना चाहिए और छोटे-छोटे भू-भागों के लिए भाइयों से लड़ना न चाहिए।
४. ( अपदे ) = जहाँ पाँव का रखना भी कठिन था, जहाँ नाममात्र भी आना-जाना न था, वहाँ भी ( पादा प्रतिधातवे ) = पाँवों के प्रतिधारण—स्थापन के लिए ( अकः ) = उस प्रभु ने व्यवस्था कर दी। प्रभु कृपा से जङ्गल में भी मङ्गल हो गया। जहाँ दिन में भी चलना कठिन था वहाँ रात में भी चलना सुगम हो गया, अतः मनुष्य को चाहिए यही कि परस्पर लड़ने की बजाय तनिक पुरुषार्थ से वीरान भू-भागों को आबाद कर ले।
५. ( उत ) = और वे प्रभु ( हृदयाविधः ) = दूसरे के हृदयों को पीड़ित करनेवाली वाणी बोलनेवाले की ( चित् ) = भी ( अपवक्ता ) = भर्त्स्ना करनेवाले हैं। उसे प्रभु अपनी गोद में स्थान नहीं देते।
६. हमें चाहिए कि हम प्रातः-सायं ( वरुणाय नमः ) = इस वरुण के प्रति नतमस्तक हों, ( वरुणस्य पाशः ) = उस वरुण का पाश ( अभिष्ठितः ) = दोनों ओर स्थित है। वे प्रभु ऐहलौकिक व पारलौकिक दोनों ही दण्ड देते हैं। औरों का भाग हड़पनेवाले को यहाँ नींद नहीं और परलोक में यह सर्पादि की हीन योनि में ही जाता है।
भावार्थ
भावार्थ — हम संसार में सरलवृत्ति से चलें, औरों के भाग को न हड़प जाएँ। संसार अत्यन्त विशाल है, छोटे-छोटे भू-भागों के लिए परस्पर लड़ें नहीं। कभी मर्मपीड़ाकर वचन न बोलें।
विषय
ऋजु मार्ग का उपदेश ।
भावार्थ
राज्यव्यवस्था में राजा की न्यायानुकूल व्यवस्था । हे पुरुष ! तू ( अहिः मा भूः ) सांप के समान कुटिल, क्रोधी मत बन । ( मा वृदाकुः अजगर के समान सब प्राणियों को निगलनेवाला, एवं उनको अपने बंधन में बांधकर मारनेवाला क्रूर या कुत्सितभाषी भी तू मत बन । ( वरुणः राजा) सर्वश्रेष्ठ राजा ने ( सूर्याय ) सूर्य के प्रकाश के समान उज्ज्वल सत्य, तक ( अनु एते व उ ) पहुंचने के लिये ही ( उरुम् पन्थाम् चकार ) विशाल मार्ग बना दिया है । वह ( अपदे ) जहाँ पैर भी नहीं रखा जा सके ऐसे स्थानों में भी ( पादा) पैर ( प्रतिधातवे) रखने के लिये मार्ग ( अकः ) बना देता है । और वह वरुण राजा ( हृदयाविधः चित् ) हृदय को कटु वाक्यों से और अपने क्रूर कृत्यों से दूसरों के छेदने वाले मर्मभेदी दुष्ट पुरुष का भी ( अपवक्त ) अपवाद करनेवाला उसके प्रति अभियोग चला कर निग्रह करनेवाला है। ऐसे ( वरुणाय ) सर्वश्रेष्ठ, पापों के वारण करनेहारे राजा को ( नमः ) नमस्कार है । ( वरुणस्य ) ऐसे सर्वश्रेष्ठ राजा का ( पाशः ) पाश, राज्य नियमों का दमनकारी पाश ( अभिष्ठितः ) सर्वत्र स्थिर रहे । शत० ४ । ४ । ५। १-११ ॥
टिप्पणी
१ माहिर्भूर्म॥ २ उरु हि। ३ नमो।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
( १ ) याजुषी उष्णिक् । ऋषभः । (२) भुरिगार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः । ( ३ ) आसुरी गायत्री । षड्जः । शुनःशेप ऋषिः । वरुणो देवता ।
विषय
अब राजा के लिये उपदेश किया जाता है ॥
भाषार्थ
हे राजन्, सभापते ! आप [वरुण:] श्रेष्ठ और [राजा] प्रशंसनीय गुण स्वभावों से प्रकाशमान हो इसलिये (वरुणाय) प्रशस्त ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (उरुम्) नाना गुणों से युक्त न्याय को करके (अन्वेतवै) उसके अनुकूल चलने के लिये तथा (अपदे) चोर आदि के छिपे हुये व्यवहार में (पादा) पैरों को (प्रतिधातवै) रखने के लिये (अक:) न्याय कर । और--(सूर्याय) चराचर के आत्मा ईश्वर के प्रकाश के लिये (पन्थाम्) न्याय मार्ग को [हि] ही (चकार) बना । (उत) और--(अपवक्ता) मिथ्यावादी एवं (हृदयाविधः) हृदय का वेध करने वाले दुर्जन के (चित्) समान (पृदाकुः) कुत्सित वाणी वाला एवं (अहिः) क्रुद्ध, विषधर सर्प के समान (मा भूः) मत हो । जैसे--(वरुणस्य) वीर-गुणों से युक्त आपका (अभिष्ठितः) सर्वत्र विद्यमान एवं चमकता हुआ (नमः) वज्र और (पाशः) बन्धन प्रसिद्ध होवे वैसा निरन्तर प्रयत्न कर ॥ ८ । २३ ॥
भावार्थ
प्रजा-जनों को योग्य है कि वे--जो विद्वान्, जितेन्द्रिय, धार्मिक, जैसे पिता पुत्रों का पालन करता है वैसे प्रजा पालन में तत्पर और सब के लिये सुखकारी हो उसे सभापति बनावें,राजा अथवा प्रजा जन कभी भी दुष्ट कर्म करने वाले न हों, यदि किसी प्रकार कोई करे तो प्रजा अपराध के अनुसार राजा को दण्ड देवे और राजा प्रजा को दण्ड दिया करे, अपराधी को कभी भी दण्ड के बिना न छोड़े, और निर्दोष को वृथा पीड़ा कभी न देवें । इस प्रकार सब न्यायाचरण में तत्पर होकर प्रयत्न करें जिससे अधिक लोग मित्र, उदासीन और शत्रु न हों। तत्पश्चात् विद्या और धर्म के मार्गों को साफ करके सब लोग परमात्मा की भक्ति में लीन होकर सदा सुखी रहें ।। ८ । २३ ।।
प्रमाणार्थ
(चकार) यहाँ लिङ् अर्थ में लिट् लकार है। (पादा) यहाँ ['सुपां सुलुक्०' अ० ७ । १ । ३९] इस सूत्र से आकार आदेश है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।४।४।३-११) में की गई है ॥ ८ । २३ ॥
भाष्यसार
राजा के लिये उपदेश--सभापति राजा प्रशस्त गुण स्वभावों से प्रकाशमान हो अर्थात् वह विद्वान्, जितेन्द्रिय, धार्मिक, जैसे पिता अपने पुत्रों का पालन करता है, वैसे प्रजा का पालन करने वाला तथा सबके लिये सुखकारी हो । प्रशस्त ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना गुणों से युक्त न्याय का आचरण करे। चोर आदि दुष्ट-जनों के द्वारा छुप कर किये कार्यों को जानने वाला हो। चराचर के आत्मा ईश्वर के प्रकाश की प्राप्ति के लिये सदा न्यायाचरण में तत्पर रहे क्योंकि न्यायाचरण से अधिक लोग मित्र, उदासीन और शत्रु नहीं बनते। विद्या और धर्म के मार्गों को साफ करे। जिससे सब लोग परमात्मा की भक्ति में तत्पर होकर सुखी रहें। जैसे अजगर (पृदाकु) कुत्सित शब्द करने वाला होता है वैसे राजा कुत्सित मिथ्या भाषण करने वाला न हो, और जैसे सर्प डस कर प्राणी के हृदय को बींधता है वैसे राजा क्रुद्ध विषधर के समान प्रजा को पीड़ा न देवे। तात्पर्य यह है कि राजा और प्रजा में से कोई भी मिथ्या भाषण आदि करने वाला न हो। यदि दुष्टाचरण करें तो दोनों दण्ड के अधिकारी हों। राजा का वीरतापूर्ण वज्र और पाश प्रजा में सर्वत्र प्रकाशित रहे । किन्तु दण्ड प्रयोग में राजा यह विशेष ध्यान रखेकि अपराधी को दण्ड के बिना न छोड़े और निर्दोष को वृथा पीड़ित न करे ॥ ८ । २३ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
विद्वान, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा पिता आपल्या पुत्रांशी जसा वागतो तसे राजाने प्रजापालनात अतिदक्ष असावे व सर्वांना सुखी करणाऱ्या सत्पुरुषालाच प्रजेने राजा बनवावे. राजाने किंवा प्रजेने अधर्माची कामे कधीही करू नयेत. कोणी जर गुन्हा केला तर त्यानुसार प्रजेने राजाला व राजाने प्रजेला दंड द्यावा; परंतु अपराधी व्यक्तीला शिक्षा केल्याशिवाय राहू नये व निरपराधी व्यक्तीला विनाकारण शिक्षा करू नये. याप्रमाणे सर्वांनी न्यायमार्गाने धर्माचरणी बनून आपल्या प्रत्येक कामात दक्ष राहावे. ज्यामुळे मित्र अधिक व्हावेत व शत्रू निर्माण होऊ नयेत. विद्या व धर्ममार्गाचा प्रचार करावा. सर्व लोक ईश्वरभक्तपरायण व सुखी व्हावेत.
विषय
पुल मंत्रात राजासाठी उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे सभापती राजा, आपण (वरूणाय) उत्तम ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी (उत्तम) प्रभूत गुणांनी युक्त अशा न्यायपद्धतीचा (अक:) अवलंब करा (योग्य न्याय करीत जा), (सूर्य्याय) तसेच चराचर जगाचा जो आत्मा, त्या परमात्म्याचे ज्ञान होण्याकरिता अथवा प्रजाजनांना यथोचित धर्माप्रमाणे गतिमान होण्यासाठी (पंथाम्) न्याय्य मार्ग (चकार) दाखवीत जा. (उठ) आणखी असे की कधीही (अपवक्ता) असत्यभाषी (हृदयविध:) धर्मात्माजनांचे हृदय पीडित करणार्या (चित्र) माणसाप्रमाणे (पृदाकु:) असत्यभाषण (मा) करूं नका. तसेच आपण कधीही (अहि:) सापाप्रमाणे क्रोधरुप विष धारण करणारे (मा) (भू:) होऊ नका. (वरुणस्य) आपल्या अंगी जे वीरत्वगुण आहे, ते गुण सदा (अभिष्ठित:) प्रसिद्ध होत राहो. आपले (नम:) वज्ररुप दंड आणि (पाश:) बांधणारी साधनें (कारागृह, दंड, रज्जुबंधन आदी) सदैव जागृत असू द्या. (आपल्या वीरत्व व प्रतापाची तसेच दंडविधानाची जरब सर्व दुष्ट-दुर्जनांवर बसावी) ॥23॥
भावार्थ
भावार्थ - प्रजेने अशाच सत्पुरुषाला सभापती म्हणून निवडावे की जो विद्वान आहे, जितेंद्रिय आणि धर्मात्मा आहे, तसेच जो प्रजेचे अशा रीतीने की पिता जसे पुत्राचे, त्याप्रमाणे पालन करण्यामध्ये पूर्ण दत्तचित्त असेल व सर्वांकरिता सुखकर असेल. राजा आणि प्रजा दोघांनी कोणतेही अधार्मिक कार्य करू नये. जर यदा कदाचित कोणी दुष्कर्म केले, तर प्रजेने राजाला आणि राजाने प्रजेला दंडित करावे. अपराधी माणसाला कदापि दंड दिल्याशिवाय सोडूं नये, पण कोणाही निर्दोष व्यक्तीस निष्कारण त्रास वा दंड देऊ नये. अशा प्रकारे राजा आणि प्रजाजन दोघांनी न्यायपूर्ण मार्गाने धर्मानुसरण करीत आपापल्या कर्तव्यांमध्ये मन रमवावे की ज्यामुळे त्यांच्या मित्रांची संख्या वाढेल, प्रीतीभाव असणारे वाढतील आणि शत्रू निर्माण होणार नाहीत. अशाप्रकारे विद्या आणि धर्माचा प्रसार करीत ईश्वराच्या भक्तीमध्ये मन रमवीत सर्वजण सदा सुखी राहतील. ॥23॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O ruler, be just for progress. For easy walk make the inaccessible paths fit for journey. Establish the path of justice, so that people being God-fearing lead a religious life. Never tell a lie. Dont use abusive language like him who hurts the feelings of noble souls. Be not angry like a venomous serpent. Thou, full of valour, shouldst always try to keep ever ready thy fetters and sharp instruments.
Meaning
Ruler and President of the Council, be not angry and poisonous as a snake, nor ferocious as a serpent. Be not false, hurtful and heart-breaking in speech. Be a ruler shining brilliant, supreme in virtue. Do excellently as behoves your chosen status. Make the highways of justice broad in honour and worship to the sun, the supreme light of the world, for all to see and follow the light so that none may stray into the paths of evil. Let the rule of law and the penal code be as firm and inviolable as the chains of Varuna and the thunderbolt of Indra.
Translation
Don't you be a snake, nor a python. (1) The radiant venerable Lord has made a spacious highway Fог the sun to travel along every day. For those who set their feet on the path, on which one should never walk, he is harsh admonisher and piercer of heart. (2) Our reverential homage be to the venerable Lord whose noose is spread all around. (3)
Notes
See notes VI. 12.
बंगाली (1)
विषय
পুনগৃর্হস্থেভ্যো বিশেষোপদেশমাহ ॥
পুনরায় গৃহস্থদিগের জন্য বিশেষ উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (য়জ্ঞ) সৎকর্ম দ্বারা সঙ্গতি সম্পন্ন গৃহাশ্রমী! তুমি (স্বাহা) সত্য সত্য ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞম্) বিদ্বান্দিগের গৃহাশ্রমকে (গচ্ছ) প্রাপ্ত হও । (য়জ্ঞপতিম্) সঙ্গ করিবার যোগ্য গৃহাশ্রমের পালনকারীকে (গচ্ছ) প্রাপ্ত হও । (স্বাম্) নিজ (য়োনিম্) গৃহ ও স্বভাবকে (গচ্ছ) প্রাপ্ত হও । (য়জ্ঞপতে) গৃহাশ্রম ধর্মপালক, তুমি (তো) তোমার যে (এষঃ) এই (সহসুক্তবাকঃ) ঋগ্, যজুঃ, সাম ও অথর্ব বেদের সুক্ত ও অনুবাক দ্বারা কথিত (সর্ববীরঃ) যদ্দ্বারা আত্মা ও শরীরের পূর্ণবলযুক্ত সমস্ত বীর প্রাপ্ত হয় (য়জ্ঞঃ) প্রশংসনীয় প্রজার রক্ষার নিমিত্ত বিদ্যাপ্রচাররূপ যজ্ঞ (তম্) তাহার তুমি (স্বাহা) সত্যবিদ্যা ন্যায় প্রকাশকারিণী বেদবাণী দ্বারা (জুষস্ব) প্রীতিপূর্বক সেবন কর ॥ ২২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- প্রজা গৃহস্থ পুরুষ বৃহৎ প্রচেষ্টা সহ গৃহের কার্য্যকে উত্তম রীতিপূর্বক করিবে । রাজভক্তি, রাজসহায়তা এবং উত্তম ধর্ম দ্বারা গৃহাশ্রমকে সব প্রকারে পালিবে এবং রাজাও শ্রেষ্ঠ বিদ্যার প্রচার দ্বারা সবাইকে সন্তুষ্ট করিবে ॥ ২২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়জ্ঞ॑ য়॒জ্ঞং গ॑চ্ছ য়॒জ্ঞপ॑তিং গচ্ছ॒ স্বাং য়োনিং॑ গচ্ছ॒ স্বাহা॑ । এ॒ষ তে॑ য়॒জ্ঞো য়॑জ্ঞপতে স॒হসূ॑ক্তবাকঃ॒ সর্ব॑বীর॒স্তং জু॑ষস্ব॒ স্বাহা॑ ॥ ২২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়জ্ঞ য়জ্ঞমিত্যস্যাত্রির্ঋষিঃ । গৃহপতয়ো দেবতাঃ । বিরাডার্চ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ । এষ ইত্যস্য বিরাডার্চী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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