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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 49
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - विश्वेदेवा प्रजापतयो देवताः छन्दः - विराट प्राजापत्या जगती,निचृत् आर्षी उष्णिक्, स्वरः - धैवतः
    70

    क॒कु॒भꣳ रू॒पं वृ॑ष॒भस्य॑ रोचते बृ॒हच्छु॒क्रः शु॒क्रस्य॑ पुरो॒गाः सोमः॒ सोम॑स्य पुरो॒गाः। यत्ते॑ सो॒मादा॑भ्यं॒ नाम॒ जागृ॑वि॒ तस्मै॑ त्वा गृह्णामि॒ तस्मै ते सोम॒ सोमा॑य॒ स्वाहा॑॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒कु॒भम्। रू॒पम्। वृ॒ष॒भस्य॑। रो॒च॒ते॒। बृ॒हत्। शुक्रः। शु॒क्रस्य॑। पु॒रो॒गा इति॑ पुरः॒ऽगाः। सोमः॑। सोम॑स्य। पु॒रो॒गा इति॑ पुरः॒ऽगाः। यत्। ते॒। सो॒म॒। अदा॑भ्यम्। नाम॑। जागृ॑वि। तस्मै॑। त्वा॒। गृ॒ह्णा॒मि॒। तस्मै॑। ते॒। सोम॑। सोमा॑य। स्वाहा॑ ॥४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ककुभँ रूपँ वृषभस्य रोचते बृहच्छुक्रः शुक्रस्य पुरोगाः सोमः सोमस्य पुरोगाः । यत्ते सोमादाभ्यन्नाम जागृवि तस्मै त्वा गृह्णामि तस्मै ते सोम सोमाय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ककुभम्। रूपम्। वृषभस्य। रोचते। बृहत्। शुक्रः। शुक्रस्य। पुरोगा इति पुरःऽगाः। सोमः। सोमस्य। पुरोगा इति पुरःऽगाः। यत्। ते। सोम। अदाभ्यम्। नाम। जागृवि। तस्मै। त्वा। गृह्णामि। तस्मै। ते। सोम। सोमाय। स्वाहा॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 49
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ गृहस्थान् राजपक्षे पुनरुपदिशति॥

    अन्वयः

    हे सोम! यद्यस्य वृषभस्य बृहत्ककुभं रूपं रोचते, स त्वं शुक्रस्य पुरोगाः शुक्रः पुरोगाः सोमो भव। यत्ते तवादाभ्यन्नाम जागृव्यस्ति तस्मै नाम्ने त्वा गृह्णामि। हे सोम! तस्मै सोमाय ते तुभ्यं स्वाहाऽस्तु॥४९॥

    पदार्थः

    (ककुभम्) दिग्वच्छुद्धम् (रूपम्) (वृषभस्य) सुखाभिवर्षकस्य सभापतेः (रोचते) प्रकाशते (बृहत्) (शुक्रः) शुद्धः (शुक्रस्य) शुद्धस्य धर्म्मस्य (पुरोगाः) पुरःसराः (सोमः) सोमगुणसम्पन्नः (सोमस्य) ऐश्वर्य्यणयुक्तस्य गृहाश्रमस्य (पुरोगाः) पुरोगामिनः (यत्) यस्य (ते) तव (सोम) प्राप्तैश्वर्य्य विद्वन्! (अदाभ्यम्) अहिंसनीयम् (नाम) ख्यातिः (जागृवि) जागरूकम् (तस्मै) (त्वा) त्वाम् (गृह्णामि) (तस्मै) (ते) तुभ्यम् (सोम) सत्कर्म्मसु प्रेरक! (सोमाय) शुभकर्म्मसु प्रवृत्ताय (स्वाहा) सत्या वाक्॥ अयं मन्त्रः (शत॰११।५।९।१०-११) व्याख्यातः॥४९॥

    भावार्थः

    सभाप्रजाजनैर्यस्य पुण्या प्रशंसा सौन्दर्य्यगुणयुक्तं रूपं विद्यान्यायो विनयः शौर्य्यं तेजः पक्षराहित्यं सुहृत्तोत्साह आरोग्यं बलं पराक्रमो धैर्य्यं जितेन्द्रियता वेदादिशास्त्रे श्रद्धा प्रजापालनप्रियत्वं च वर्तत्ते, स एव सभाधिपती राजा मन्तव्यः॥४९॥

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    विषयः

    अथ गृहस्थान् राजपक्षे पुनुरुपदिशति ॥

    सपदार्थान्वयः

    - हे सोम ! प्राप्तैश्वर्य विद्वन्यद्यस्य वृषभस्य सुखाभिवर्षकस्य सभापतेः बृहत्ककुभं दिग्वच्छुद्धंरूपं रोचते प्रकाशते स त्वं शुक्रस्य शुद्धस्य धर्मस्य पुरोगा: पुरःसरः शुक्र: शुद्धः सोमस्य ऐश्वर्य्यगुणयुक्तस्य गृहाश्रमस्य पुरोगाः पुरोगामी सोमः सोमगुणसम्पन्नः भव । यत्ते=तवादाभ्यम् अहिंसनीयंनाम ख्यातिः जागृवि जागरूकम् अस्ति, तस्मै नाम्ने त्वा त्वां गृह्णामि । हे सोम ! सत्कर्मसुप्रेरक तस्मै सोमाय शुभकर्मसु प्रवृत्ताय ते=तुभ्यं स्वाहा सत्यावाक् अस्तु॥ ८ । ४९ ॥ [हेसोम! यद् यस्य....बृहत्ककुभं रूपं रोचते स त्वं शुक्रस्य पुरोगा: शुक्र:, सोमस्य पुरोगा: सोमो भव, यत्ते=तवादाभ्यं नाम जागृव्यस्ति, तस्मै नाम्ने त्वा गृह्णामि, हे सोम ! तस्मै सोमाय ते=तुभ्यंस्वाहास्तु ]

    पदार्थः

    (कुकुभम्) दिग्वच्छुद्धम्(रूपम्)(वृषभस्य) सुखाभिवर्षकस्य सभापतेः (रोचते) प्रकाशते (बृहत्)(शुक्रः) शुद्धः (शुक्रस्य) शुद्धस्य धर्मस्य (पुरोगाः) पुरःसराः (सोमः) सोमगुणसम्पन्नः (सोमस्य) ऐश्वर्य्यगुणयुक्तस्य गृहाश्रमस्य (पुरोगाः) पुरोगामिनः (यत्) यस्य (ते) तव(सोम) प्राप्तैश्वर्य्य विद्वन् ! (अदाभ्यम्) अहिंसनीयम् (नाम) ख्यातिः (जागृवि) जागरूकम् (तस्मै)(त्वा) त्वाम् (गृह्णामि)(तस्मै)(ते) तुभ्यम् (सोम) सत्कर्म्मसु प्रेरक ! (सोमाय) शुद्धकर्मसु प्रवृत्ताय (स्वाहा) सत्या वाक् । अयम्मंत्र: शत० ११। ५। ९ ।१०-११ व्याख्यातः ॥४९ ॥

    भावार्थः

    सभाप्रजाजनैर्यस्य पुण्या प्रशंसा, सौन्दर्य्यगुणयुक्तं रूपं, विद्या, न्यायो, विनयः, शौर्य्यं, तेजः, पक्षपातराहित्यं, सुहृत्तोत्साह, आरोग्यं, बलं, पराक्रमो, धैर्यं, जितेन्द्रियता, वेदादिशास्त्रे श्रद्धा, प्रजापालनप्रियत्वं च वर्तते, स एव सभाधिपती राजा मन्तव्यः ॥ ८ । ४९॥

    विशेषः

    कुकुभमित्यस्य देवाः। विश्वेदेवा प्रजापतय:=विद्वांसो गृहस्थाः । विराट् प्राजापत्या जगतीः। निषादः । यत्ते सोमेत्यस्य भुरिगार्ष्युष्णिक् धैवतः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब फिर गृहस्थों को राजपक्ष में उपदेश अगले मन्त्र में किया है

    पदार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्य्य को प्राप्त हुए विद्वन्! आप (यत्) जिस (वृषभस्य) सब सुखों के वर्षानेवाले आप का (ककुभम्) दिशाओं के समान शुद्ध (बृहत्) बड़ा (रूपम्) सुन्दर स्वरूप (रोचते) प्रकाशमान होता है, सो आप (शुक्रस्य) शुद्ध धर्म्म के (पुरोगाः) अग्रगामी वा (सोमस्य) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के (पुरोगाः) अग्रेगन्ता (शुक्रः) शुद्ध (सोमः) सोमगुणसम्पन्न ऐश्वर्य्ययुक्त हूजिये, जिससे आपका (अदाभ्यम्) प्रशंसा करने योग्य (नाम) नाम (जागृवि) जाग रहा है, (तस्मै) उसी के लिये (त्वा) आपको (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं और हे (सोम) उत्तम कामों में प्रेरक! (तस्मै) उन (सोमाय) श्रेष्ठ कामों में प्रवृत्त हुए (ते) आप के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी प्राप्त हो॥४९॥

    भावार्थ

    सभाजन और प्रजाजनों को चाहिये कि जिसकी पुण्य प्रशंसा, सुन्दररूप, विद्या, न्याय, विनय, शूरता, तेज, अपक्षपात, मित्रता, सब कामों में उत्साह, आरोग्य, बल, पराक्रम, धीरज, जितेन्द्रियता, वेदादि शास्त्रों में श्रद्धा और प्रजापालन में प्रीति हो, उसी को सभा का अधिपति राजा मानें॥४९॥

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    विषय

    शुद्धता व शक्ति की श्रेणी में प्रथम

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार राजा संयमी जीवनवाला बनता है तो ( वृषभस्य ) = शक्तिशाली राजा का ( कुकुभम् रूपम् ) = [ ककुभं इति महन्नाम—नि० ] उत्कृष्ट महान् रूप ( रोचते ) = चमकता है। वह राजा प्रजा में सचमुच नररूपधारी महादेव प्रतीत होने लगता है। 

    २. ( बृहच्छुक्रः ) = यह वृद्धिशील शुद्ध जीवनवाला राजा ( शुक्रस्य ) = शुद्धता व शुचिता का ( पुरोगाः ) = अग्रेसर होता है। 

    ३. यह ( सोमः ) = वीर्य का पुञ्ज ( सोमस्य ) = शक्तिशाली पर विनीत लोगों का ( पुरोगाः ) = मुखिया होता है, अर्थात् वीर्यरक्षा के द्वारा शक्तिशाली बनता है और विनीत होता है। 

    ४. हे ( सोम ) =  शक्तिशालिन् पर विनीत राजन्! ( यत् ) = क्योंकि ( ते नाम ) = तेरी ख्याति, प्रसिद्धि इस रूप में है कि तू ( अदाभ्यम् ) = न दबाये जाने योग्य, अहिंसनीय है तथा ( जागृवि ) = सदा जागनेवाला है, कभी प्रजारक्षणरूप कार्य में प्रमत्त नहीं होता। ( तस्मै ) = इसलिए ( त्वा गृह्णामि ) = हम तेरा ग्रहण करते हैं। 

    ४. हे ( सोम ) = शक्तिशालिन् विनीत राजन्! ( तस्मै ते सोमाय ) = उस तुझ सोम के लिए ( स्वाहा ) = हम अपना अर्पण करते हैं। शक्तिशाली परन्तु विनीत राजा के लिए प्रजा अपना जीवन देने के लिए उद्यत रहती है। ऐसा ही राजा अन्ततोगत्वा चमकता है। यह ‘देव’ होता है। ऐसे पति ‘देवाः’ कहलाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — राजा शुद्धता व शक्ति के दृष्टिकोण से सर्वप्रथम बनने का प्रयत्न करता है। ऐसे ही राजा के प्रति प्रजाएँ नतमस्तक होती हैं।

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    विषय

    सदा सावधान रहने योग्य राजपद ।

    भावार्थ

     ( वृषभस्य ) सब सुखों के वर्षक राजा या सभापति का ( ककु- भम् ) दिशा के समान शुद्ध और आदित्य के समान कान्तिमान् ( रूपं रोचते ) रूप प्रकाशित होता है । ( शुक्रस्य ) दीप्त, उज्ज्वल शुद्ध धर्म का ( बृहत् ) महान् ( शुक्रः ) कान्तिमान आदित्य जिस प्रकार ( शुक्रस्य ) शुद्ध दीप्ति मानादिका (पुरोगाः) पुरोगामी, नेता, प्रवर्तक होता है उसी प्रकार (शुक्र) तेजस्वी शुद्धाचारी राजा ही (शुक्रस्य पुरोगाः) शुक्र और तेजस्वी धर्मानुकूल राष्ट्र का नेता होता है, या तेजस्वी राजा का तेजस्वी विद्वान् ही पुरोगामी नेता होता है। इसी प्रकार (सोमः ) हे राजन् तू सोम सबका प्रेरक होकर ( सोमस्य ) ऐश्वर्य पूर्ण राष्ट्र का ( पुरोगाः ) नेता हो । हे सोम ! राजन् ! यत् ) क्योंकि (ते) तेरा ( अदाभ्यम् ) कभी नाश न होने वाला( जागृवि ) सदा जागरणशील, सदा सावधान (नाम) स्वरूप है ( तस्मै ) उस कर्त्तव्य के लिये ही (त्वा गृहामि) तुझे मैं ग्रहण करता हूं। हे (सोम) राजन् ! ( तस्मै ते ) उस तेरे लिये ( सु आहा ) उत्तम यश प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    १ क॒कुभ २ यत्ते॑ ।४९ - ' ककुह१५'० ' बृहत्सोमः सोमस्य पुरोगाः शुक्रा शुक्रस्य पुरोगाः स्वाहा । इति काण्व० || 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवा ऋषयः । विश्वेदेवाः प्रजापतयो देवता: । ( १ ) विराट् प्राजापत्या जगती । निषादः । ( २ ) भुरिगार्षी उष्णिक् । धैवतः ॥  

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    विषय

    अब फिर गृहस्थों को राजपक्ष में उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्यवान् विद्वान् पुरुष! यदि इस (वृषभस्य) सुख की वर्षा करने वाले सभापति का (बृहत्ककुभम्) दिशा के समान शुद्ध रूप (रोचते) प्रकाशित होता है तो आप (शुक्रस्य) शुद्ध धर्म का (पुरोगाःशुक्रः) विशुद्ध नेता बनो तथा (सोमस्य) ऐश्वर्य से युक्त गृहाश्रम का (पुरोगाः सोमः) सोम के गुणों से युक्त नेता बनो। और जो (ते) तेरी (अदाभ्यम्) अमर (नाम) ख्याति (जागृवि) जागरूक है, उस ख्याति के कारण (त्वा) आपको सभापति स्वीकार करता हूँ। हे (सोम) शुभ कर्मों में प्रेरणा करने वाले सभापते ! उक्त गुणों से युक्त (सोमाय) शुभ कर्मों में लगे हुये (ते) आपके लिये (स्वाहा) सत्य वेदवाणी हो ॥ ८ । ४९ ।।

    भावार्थ

    सभा और प्रजा जनों को योग्य है कि वे जिसकी पुण्य प्रशंसा, सुन्दरता से युक्त रूप, विद्या, न्याय, विनय, शौर्य, तेज, पक्षपात का अभाव, मित्रता, उत्साह, नीरोगता, बल, पराक्रम, धैर्य, जितेन्द्रियता, वेदादि शास्त्रों में श्रद्धा और प्रजा के पालन में प्रीति होवे उसी को सभापति राजा मानें ॥ ८ । ४९ ॥

    प्रमाणार्थ

    इस मन्त्र की व्याख्या शत० (११ । ५ । ९। १०-११) में की गई है ।। ८ । ४९ ।।

    भाष्यसार

    गृहस्थों को राजपक्षीय उपदेश--सभा और प्रजा के जन कहते हैं कि हे ऐश्वर्य को प्राप्त विद्वान् सभापते! आप सुख की वर्षा करने वाले हो, दिशाओं के समान आपका शुद्धरूप है अर्थात् आप सुन्दर रूपवान् हो, आप शुद्ध धर्म के नेता अर्थात् विद्या, न्याय, विनय, शौर्य, तेज, पक्षपात से शून्य इन शुद्ध गुणों से भूषित हो, ऐश्वर्य गुण से युक्त गृहाश्रम के भी नेता अर्थात् मित्रता, उत्साह, आरोग्य, बल, पराक्रम, धैर्य, जितेन्द्रियता इन सौम्य गुणों से अलङ्कृत हो, आपकी तिरस्काररहित ख्याति सर्वत्र जागरूक है अर्थात् आपकी पुण्य प्रशंसा है, आप सबको शुभ कर्मों में प्रेरित करने वाले और स्वयं शुभ कर्मों में प्रवृत्त हो, सत्यवाणी अर्थात् वेदादि शास्त्रों में आपकी श्रद्धा है, वेदानुकूल प्रजापालन में आपका प्रेम है, इसलिये हम आप को ही सभाधिपति राजा मानते हैं ।। ८ । ४९ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सभेतील सभासद व प्रजा यांनी सुंदर रूप, विद्या, न्याय, विनय, शौर्य, तेज, भेदभावरहित मित्रता, सर्व कामांत उत्साह, आरोग्य, बल, पराक्रम, धैर्य, जितेन्द्रियता, वेद इत्यादी शास्त्रात श्रद्धा तसेच पुण्यकार्य व प्रशंसायुक्त कार्य करणारा आणि प्रजेबद्दल प्रेम असणारा असेल त्यालाच सभेचा राजा मानावे.

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    विषय

    पुनश्च, गृहस्थजनांना राजाविषयी असलेल्या कर्तव्याविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (गृहस्थजन म्हणतो) हे (सोम) ऐश्वर्यशाली विद्वान सभापती, (वृषभस्य) सुखांची वृष्टी करणारे तुम्ही तुमचे असे (यत्) जे (ककुभम्) दिशांप्रमाणे शुद्ध आणि (बृहत्) महान (रुपम्) सुंदर रुप (रोचते) सर्वत्र प्रकाशित होत आहे, ते कीर्तीमय रुप (शुक्रस्य) शुद्ध धर्माच्या प्रसारात (पुरोगा:) असाच अग्रगामी होवो तुम्ही (सोमस्य) ऐश्वर्याच्या (पुरोगा:) अग्रस्थानीं राहून (शुक्र:) शुद्ध (सोम:) सोमगुण- संपन्न ऐश्वर्ययुक्त व्हा (अशी माझी कामना आहे) तुमचे (अयाभ्यम्) प्रशंसनीय (नाम) नाम (यश) सर्वत्र (जागृवि) जागत वा प्रसारित आहे. (तस्मै) त्या यशाच्या वृद्धीसाठी मी (त्वा) तुमचे (गृह्णामि) ग्रहण करतो. हे (सोम) आम्हांस उत्तमकर्मांकरिता प्रेरणा देणारे सभापती, (तस्मै) त्या (सोमाय) श्रेष्ठ कर्मांत प्रवृत्त असणार्‍या (ते) तुमच्याकरिता (स्वाहा) आमची ही वाणी सत्य सिद्ध होवो. ॥49॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सभाजनांसाठी लोकसभा, राज्यसभा आदींचे सदस्य) आणि प्रजाजनांसाठी हे योग्य आहे की, त्यांनी त्याच सुयोग्य व्यक्तीस सभेचा अधिपती राजा म्हणून मान्यता द्यावी (वा निवड करावी) की जो पुण्यवान, प्रशंसित, सुंदर, विद्यावान, न्यायकारी असून विनय, शूरत्व, तेज, अपक्षपात, मित्रत्व आदी गुणांनी संपन्न आहे. ज्याला सर्व कार्याविषयी उत्साह आहे, जो आरोग्य, बल, पराक्रम, धैर्य, जितेंद्रियता, आदी गणांनी समृद्ध आहे, तसेच ज्यास वेदादीशास्त्रात श्रद्धा आहे आणि प्रजापालनात प्रीती आहे. (अशाच अतिगुणवान व्यक्तीस सभापती म्हणून निवडावे) ॥49॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned and educated King, the giver of pleasures, thy beauty shines pure like vast space. Be thou the undefiled leader of holy religion. Be thou the excellent leader of thy advancing country. Whatever invincible and stimulating popularity is thine, for that popularity I take thee. O king, as our stimulator for noble deeds, may I utter true words for thee, the doer of noble deeds.

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    Meaning

    The excellence of the man’s image shines everywhere. Bright and generous, purest of the pure on top, noblest of the kind and beneficent, first among the great leaders of men, joyous and gracious, the glory of your name and reputation is irresistible. It is for that I accept and elect you. For that dedication of yours to the Lord of light and grandeur, blessed man, all hail and success to you! This is the divine voice.

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    Translation

    The majestic form of the showerer of joys shines bright. The pure precedes pure. The bliss precedes bliss. О blissful Lord, I accept you for the sake of your name that is invincible, and awake. (1) O blissful Lord, I dedicate to you, having the blissful form. (2)

    Notes

    Kakubham, majestic; ककुभं इति महत् नामसु पठितम्, great or majestic. Vrsablia, showerer (of joys). Purogah, one that precedes. Adabhyam, invincibie Jagrvi, awake. Somayn, (to you) having the blissful form.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ গৃহস্থান্ রাজপক্ষে পুনরুপদিশতি ॥
    এখন পুনরায় গৃহস্থদিগকে রাজপক্ষে উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (সোম) ঐশ্বর্য্য প্রাপ্ত বিদ্বান্ ! আপনি (য়ৎ) যে (বৃষভস্য) সর্ব সুখ বরিষণকারী আপনার (ককুভম্) দিশাগুলির সমান শুদ্ধ (বৃহৎ) বৃহৎ (রূপম্) সুন্দর স্বরূপ (রোচতে) প্রকাশমান হয়, সুতরাং আপনি (শুক্রস্য) শুদ্ধ ধর্মের (পুরোগাঃ) অগ্রগামী বা (সোমস্য) অত্যন্ত ঐশ্বর্য্যের (পুরোগাঃ) অগ্রগামী (শুক্রঃ) শুদ্ধ (সোমঃ) সোমগুণ সম্পন্ন ঐশ্বর্য্যযুক্ত হউন যদ্দ্বারা আপনার (অদাভ্যম্) প্রশংসা করিবার যোগ্য (নাম) নাম (জাগৃবি) জাগরিত হইতেছে (তস্মৈ) তদ্ধেতু (ত্বা) আপনাকে (গৃহ্ণামি) গ্রহণ করিতেছি এবং হে (সোম) উত্তম কর্ম্মে প্রেরক! (তস্মৈ) সেই সব (সোমায়) শ্রেষ্ঠ কর্ম্মে প্রবৃত্ত (তে) আপনার জন্য (স্বাহা) সত্যবাণী প্রাপ্ত হউক ॥ ৪ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- সভা ও প্রজাদের উচিত যে, যাহার পুণ্য, প্রশংসা, সুন্দররূপ, বিদ্যা, ন্যায়, বিনয়, শূরত্ব, তেজ, অপক্ষপাত, মিত্রতা, সর্ব কর্ম্মে উৎসাহ, আরোগ্য, বল, পরাক্রম, ধৈর্য্য, জিতেন্দ্রিয়ত্ব, বেদাদি শাস্ত্রে শ্রদ্ধাও প্রজাপালনে প্রীতি হয় তাহাকেই সভার অধিপতি রাজা মানিবে ॥ ৪ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ক॒কু॒ভꣳ রূ॒পং বৃ॑ষ॒ভস্য॑ রোচতে বৃ॒হচ্ছু॒ক্রঃ শু॒ক্রস্য॑ পুরো॒গাঃ সোমঃ॒ সোম॑স্য পুরো॒গাঃ । য়ত্তে॑ সো॒মাऽদা॑ভ্যং॒ নাম॒ জাগৃ॑বি॒ তস্মৈ॑ ত্বা গৃহ্ণামি॒ তস্মৈ॑ তে সোম॒ সোমা॑য়॒ স্বাহা॑ ॥ ৪ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ককুভমিত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । বিশ্বেদেবা প্রজাপতয়ো দেবতাঃ । বিরাট্ প্রাজাপত্যা জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ । য়ত্তে সোমেত্যস্য নিচৃদার্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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