यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 61
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - ब्राह्मी उष्णिक्,
स्वरः - ऋषभः
73
चतु॑स्त्रिꣳश॒त् तन्त॑वो॒ ये वि॑तत्नि॒रे य इ॒मं य॒ज्ञ स्व॒धया॒ दद॑न्ते। तेषां॑ छि॒न्नꣳ सम्वे॒तद्द॑धामि॒ स्वाहा॑ घ॒र्मोऽअप्ये॑तु दे॒वान्॥६१॥
स्वर सहित पद पाठचतु॑स्त्रिꣳश॒दिति॒ चतुः॑ऽत्रिꣳशत्। तन्त॑वः। ये। वि॒त॒त्नि॒र इति॑ विऽतत्नि॒रे। ये। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। स्व॒धया॑। दद॑न्ते। तेषा॑म्। छि॒न्नम्। सम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। ए॒तत्। द॒धा॒मि॒। स्वाहा॑। घ॒र्मः। अपि॑। ए॒तु॒। दे॒वान् ॥६१॥
स्वर रहित मन्त्र
चतुस्त्रिँशत्तन्तवो ये वितत्निरे य इमँ यज्ञँ स्वधया ददन्ते । तेषाय्छिन्नँ सम्वेतद्दधामि स्वाहा घर्मा ऽअप्येतु देवान् ॥
स्वर रहित पद पाठ
चतुस्त्रिꣳशदिति चतुःऽत्रिꣳशत्। तन्तवः। ये। वितत्निर इति विऽतत्निरे। ये। इमम्। यज्ञम्। स्वधया। ददन्ते। तेषाम्। छिन्नम्। सम्। ऊँऽइत्यूँ। एतत्। दधामि। स्वाहा। घर्मः। अपि। एतु। देवान्॥६१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अस्य जगत उत्पत्तौ कति कारणानि सन्तीत्याह॥
अन्वयः
ये चतुस्त्रिंशत् तन्तवो यज्ञं वितत्निरे, ये च स्वधयेमं ददन्ते, तेषां छिन्नं यद् द्वैधीकृतं तदेतत् स्वाहा सन्दधामि उ इति वितर्के घर्म्मो देवानप्येतु॥६१॥
पदार्थः
(चतुस्त्रिंशत्) अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्या इन्द्रः प्रजापतिः प्रकृतिश्चेति (तन्तवः) सूत्रवत् समवेतुं शीलाः (ये) (वितत्निरे) (ये) (इमम्) (यज्ञम्) सौख्यजनकम् (स्वधया) अन्नादिना (ददन्ते) (तेषाम्) (छिन्नम्) द्वैधीकृतम् (सम्) (उ) वितर्के (एतत्) (दधामि) (स्वाहा) सत्यया क्रियया वाचा वा (घर्म्मः) यज्ञः, घर्म्म इति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं॰३।१७) (अपि) निश्चये (एतु) (देवान्) विदुषः। अयं मन्त्रः (शत॰ १२। ६। १। ३७) व्याख्यातः॥६१॥
भावार्थः
अस्य प्रत्यक्षस्य जगतश्चतुस्त्रिंशत् तत्त्वानि कारणानि सन्ति, तेषां गुणदोषान् ये जानन्ति, तानेव सुखमेति॥६१॥
विषयः
अस्य जगत उत्पत्तौकति कारणानि सन्तीत्याह ॥
सपदार्थान्वयः
हे चतुस्त्रिंशत् अष्टौ वसवः, एकादश रुद्राः, द्वादशादित्याः, इन्द्रः, प्रजापतिः प्रकृतिश्चेति तन्तवः सूत्रवत्समवेतुं शीलाः यज्ञं सौख्यजनकंवितत्निरे, ये च स्वधया अन्नादिना इमं ददन्ते, तेषां छिन्नं=¬यद् द्वैधीकृतं तदेतत्स्वाहा सत्यया क्रियया वाचा वा [सं+दधामि]=संदधाति, उ इति वितर्कें घर्म्मः यज्ञः देवान् विदुषः अपि+एतु निश्चयेनैतु ॥३ । ६१॥ [चतुस्त्रिंशत् तन्तवो यज्ञं वितत्निरे]
पदार्थः
(चतुस्त्रिंशत्) अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्या इन्द्रः प्रजापतिः प्रकृतिश्चेति (तन्तवः) सूत्रवत्समवेतुं शीला: (ये)(वितत्निरे)(ये)(इमम्)(यज्ञम्) सौख्यजनकम्(स्वधया) अन्नादिना (ददन्ते)(तेषाम्)(छिन्नम्) द्वैधीकृतम् (सम्)(उ) वितर्के(एतत्)(दधामि)(स्वाहा) सत्यया क्रियया वाचा वा (घर्म्मः) यज्ञ: घर्म्म इति यज्ञना० ॥ निघं० ३।१७ ॥(अपि) निश्चये (एतु)(देवान्) विदुषः ॥ अयम्मन्त्रः शत० १२ । ६। १।३७ व्याख्यातः ॥ ६१॥
भावार्थः
अस्य प्रत्यक्षस्य जगतश्चतुस्त्रिंशत् तत्त्वानि कारणानि सन्ति, तेषां गुण-दोषान् ये जानन्ति तानेव सुखमेति ॥८ । ६१॥
भावार्थ पदार्थः
यज्ञम्=जगत् ॥
विशेषः
वसिष्ठः। विश्वेदेवाः=जगदुत्पत्तिहेतवः ॥ साम्न्युष्णिक् । ऋषभः ॥
हिन्दी (4)
विषय
इस जगत् की उत्पत्ति में कितने कारण हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(ये) जो (चतुस्त्रिंशत्) आठों वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र, प्रजापति और प्रकृति (तन्तवः) सूत के समान (यज्ञम्) सुख उत्पन्न करनेहारे यज्ञ को (वितत्निरे) विस्तार करते हैं, अथवा (ये) जो (स्वधया) अन्न आदि उत्तम पदार्थों से (इमम्) इस यज्ञ को (ददन्ते) देते हैं (तेषाम्) उनका जो (छिन्नम्) अलग किया हुआ यज्ञ (एतत्) उस को (स्वाहा) सत्य क्रिया वा सत्य वाणी से (सम्) (दधामि) इकट्ठा करता हूं (उ) और वही (घर्म्मः) यज्ञ (देवान्) विद्वानों को (अपि) निश्चय से (एतु) प्राप्त हो॥६१॥
भावार्थ
इस प्रत्यक्ष चराचर जगत् के चौंतीस तत्त्व कारण हैं, उनके गुण और दोषों को जो जानते हैं, उन्हीं को सुख मिलता है॥६१॥
विषय
चौंतीस सूत्र
पदार्थ
१. मन्त्र ५३ से ५९ के पूर्वार्ध तक जीवन के ३४ सूत्रों का वर्णन हुआ है। ये ३४ सूत्र ही जीवन का उत्तमता से धारण करते हैं। ( ये ) = जो ( चतुस्त्रिंशत् ) = ३४ ( तन्तवः ) = सूत्र ( वितत्निरे ) = विशेषरूप से फैले हुए हैं ( ये ) = जो सूत्र ( इमं यज्ञम् ) = इस सृष्टि-यज्ञ को और तदन्तर्गत हमारे जीवन-यज्ञ को ( स्वधया ) = अपनी धारणशक्ति से ( ददन्ते ) = धारण करते हैं [ दद दानधारणयोः ], ( तेषाम् ) = उन सूत्रों का ( छिन्नम् ) = जो भी कुछ अंश टूटता है ( उ ) = निश्चय से ( एतत् ) = इसको ( संदधामि ) = ठीक-ठीक कर देता हूँ, अर्थात् मैं यथासम्भव जीवन के नियमों का पालन करता हूँ, उनमें होनेवाली त्रुटियों को दूर करता हूँ।
२. इन त्रुटियों के दूरीकरण के लिए ( स्वाहा ) = मैं अपने [ स्व+हा ] स्वार्थ का त्याग करता हूँ। स्वार्थ ही त्रुटियों का कारण हुआ करता है। स्वार्थ के दूर करने से त्रुटियाँ दूर हो जाती हैं।
३. त्रुटियों के दूर होने पर मनुष्य का जीवन दिव्य बनता है। इन ( देवान् ) = देवों को—दिव्य गुणयुक्त जीवनवालों को ( घर्मः ) = [ Heat, Warmth, Sunshine ] शक्ति की उष्णता व ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है।
४. संक्षेप में संसार के धारण करनेवाले ३४ सूत्र हैं। ये ही वैयक्तिक जीवन के नियम हैं। इनके पालन में त्रुटि न आने देना ही हमारा कर्त्तव्य है। जब इनका पालन ठीक प्रकार से होता है तब जीवन में शक्ति की उष्णता व ज्ञान का प्रकाश दोनों उपस्थित होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ — हम अपने जीवनों को नियमबद्ध करने का प्रयत्न करें।
विषय
यज्ञ और राष्ट्र का वर्णन ।
भावार्थ
( ये ) जो ( इयं ) इस ( यज्ञं ) यज्ञ को ( वितत्निरे विस्तृत करते हैं वे ( चतुस्त्रिंशत् ) ३४ चौंतीस हैं। यज्ञ के विस्तार करने से ही वे ( तन्तवः ) तन्तु हैं । पट को बनाने वाले जैसे तन्तु होते हैं उसी प्रकार राज्य आदि के घटक अवयव भी ' तन्तु' ही कहाते हैं । इसी प्रकार जगन्मय यज्ञ के घटक भी ३४ तन्तु ही हैं । ( ये ) जो वे ( इमं यज्ञ ) इस यज्ञको ( स्वधया) स्वधा, अपने धारण सामर्थ्य से और अन्न आदि पोषण सामर्थ्य से ( ददन्ते ) धारण करते हैं । ( तेषाम् ) उनका जो ( छिन्नम् ) पृथक् अपना २ कर्त्तव्य कर्म और अंश है उसको मैं ( एतत् ) इस प्रकार एक संगठित रूप से ( स्वाहा ) सत्य वाणी या उत्तम परस्पर आदान प्रतिदान द्वारा ( सम् दधामि ) एकत्र जोड़ता हूं। वह ( धर्मः ) धर्म, यज्ञ प्रदीप्त राष्ट्र या एकत्र किया हुआ एकीभूत यज्ञ ( देवान् ) देवों, विद्वान् शासकों को ( अप्येतु) प्राप्त हो, उनके वश में रहे। ब्रह्माण्ड जगत् मय यज्ञ के ३४ तन्तु, आठ वसु, ११ रुद, १२ आदित्य, इन्द्र, प्रजापति और प्रकृति ये जगत् के ३४ कारण हैं । राष्ट्र में ५४ से ५९ तक कहे सोम राजा के अधीन ३४ पदाधिकारी जो सोम के ही अंश हैं वे ३४ तत्तु हैं ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः । यज्ञो देवता । स्वराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
इस जगत् की उत्पत्ति में कितने कारण हैं, इस विषय का उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
जो (चतुस्त्रिंशत्) आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र, प्रजापति और प्रकृति--ये चौंतीस (तन्तवः) सूत्र के समान परस्पर ओत-प्रोत होकर इस (यज्ञम्) जगत् रूप सुखकारक यज्ञ को (वितत्निरे) फैला रहे हैं, और जो (स्वधया) अन्न आदि से (इमम्) इस यज्ञ का (ददन्ते) दान करते हैं उनके जो (छिन्नम्) छिन्न-भिन्न हुए कार्यों को (एतद्) यह (स्वाहा) सत्य कर्म वा वाणीसे [सं+दधामि], संयुक्त कर देता है। (उ) और विचार यह है कि उक्त (घर्मः) यज्ञ (देवान्) विद्वानों को (अपि + एतु) निश्चय से प्राप्त हो ॥ ८। ६१ ॥
भावार्थ
इस प्रत्यक्ष जगत् के चौंतीस तत्त्व कारण हैं, उनके गुणों और दोषों को जो जानते हैं, उन्हें ही सुख प्राप्त होता है ।। ८ । ६१ ।।
प्रमाणार्थ
(घर्मः) यह शब्द निघं० ( ३ । १७) में यज्ञ-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (१२ । ६ । १ । ३७) में की गई है ॥ ८ । ६१ ॥
भाष्यसार
जगत् की उत्पत्ति में कितने कारण हैं--आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र, प्रजापति और प्रकृति--ये चौंतीस तत्त्व जगत् की उत्पत्ति में कारण हैं, जो तन्तु (सूत्र) के समान परस्पर ओत-प्रोत हैं। यह जगत् एक सौख्य-उत्पादक यज्ञ है । ये चौंतीस कारण-तन्तु ही इसका विस्तार करते हैं। और जो लोग अन्नादि से इस यज्ञ को करते हैं, दान करते हैं, उनके छिन्न-भिन्न हुये भी कार्य इस सत्यकर्म और सत्यवाणी से फिर संयुक्त हो जाते हैं, पूर्ण हो जाते हैं। विद्वान् लोग विचार से इस तथ्य को निश्चित जानकर यज्ञ को प्राप्त हों। इन चौंतीस तत्त्वों वाले जगत् (यज्ञ) के गुण-दोषों को जानकर सुख को प्राप्त करें ।। ८ । ६१ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
हे चराचर जग ३४ कारण तत्त्वांपासून बनलेले आहे. जी माणसे त्यांचे गुणदोष जाणतात. त्यांनाच सुख प्राप्त होते.
विषय
जगाच्या उत्पत्तीच्या कारणांचे वर्णन पुढील मंत्रात केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (ये) जे (चतुस्त्रिंशत्) आठ वसु, अकरा रुद्र, बारा आदित्य, इन्द्र, प्रजापति आणि प्रकृती, या चौतीस तत्त्वांनी (यज्ञम्) सुखकारक यज्ञाचा (तन्तव:) वस्त्राचा जसे तन्तू (विर्तात्वरे) विस्तार करतात, (त्याप्रमाणे वरील चौतीस तत्वांनी यज्ञाचा विस्तार केलेला आहे. यज्ञाचा प्रभाव या चौतीस तत्त्वापर्यंत पोहचतो) तसेच (ये) जे लोक (स्वधया) अन्न आदी उत्तम पदार्थ (इमम्) या यज्ञासाठी (ददेदे) देतात, (तेषाम्) त्यांनी केलेल्या या (छिभम्) वेगळ्या प्रकारच्या यज्ञाला (अन्न, समिधा, सामग्री आदीं वस्तूंचे दानरुप यज्ञाला ) मी (यज्ञिक पुरुष) (एहत्) त्या (स्वाहा) सत्य क्रिया आणि सत्य वाणीद्वारे (सम्) (दधानि) एकत्रित करतो (त्यांनी केलेल्या दानाचा सत्य मनाने स्वीकार करतो) (उ) आणि तो (धर्म्म:) यज्ञ (देवान्) विद्वानांना (अपि) निश्चयाने (एतु) प्राप्त होवो. (यज्ञाचा लाभ विद्वज्जनांना मिळो) ॥61॥
भावार्थ
भावार्थ - हे चौतीस 34 तत्त्व या प्रत्यक्ष चराचर जगाची कारणे आहेत. जे त्या तत्त्वांच्या गुणदोषांना जाणतात, त्यांनाच सुख प्राप्त होते. ॥61॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Thirty-four threads diffuse this yajna of the world. They sustain it with supply of food. I skilfully unify their different functions and duties. May this yajna be controlled by the learned.
Meaning
Thirty four fibres (eight Vasus, eleven Rudras, twelve Adityas, Indra, Prajapati and Nature) join, weave and extend this yajnic web of creation, and feed it with materials. And where nature leaves off, there, surely, I take it on with the truth of word and action. And, I pray, this yajna reach the devas, the learned and the wise.
Translation
Of the thirty-four threads (elements), with which this sacrifice has been established and with which it has been supported with food, whichever is broken, that I join again. Svaha. May this sacrifice reach the enlightened ones also. (1)
Notes
Tantevah, threads. Gharmah, sacrifice.
बंगाली (1)
विषय
অস্য জগত উৎপত্তৌ কতি কারণানি সন্তীত্যাহ ॥
এই জগতের উৎপত্তিতে কত কারণ, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (য়ে) যে (চতুস্ত্রিংশৎ) অষ্ট বসু, একাদশ রুদ্র, দ্বাদশ আদিত্য, ইন্দ্র, প্রজাপতি ও প্রকৃতি (তন্তবঃ) তন্তু সমান (য়জ্ঞম্) সুখ উৎপন্নকারী যজ্ঞের বিস্তার করে অথবা (য়ে) যে (স্বধয়া) অন্নাদি উত্তম পদার্থ দ্বারা (ইমম্) এই যজ্ঞকে (দদন্তে) প্রদান করে (তেষাম্) তাহাদের যে (ছিন্নম্) পৃথক কৃত যজ্ঞ (এতৎ) তাহাকে (স্বাহা) সত্য ক্রিয়া বা সত্য বাণী দ্বারা (সম্) (দধামি) সংগৃহীত করি (উ) এবং সেই (ধর্ম্মঃ) যজ্ঞ (দেবান্ঃ) বিদ্বান্দিগকে (অপি) নিশ্চয়পূর্বক (এতু) প্রাপ্ত হউক ॥ ৬১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই প্রত্যক্ষ চরাচর জগতের চৌত্রিশ (৩৪) তত্ত্ব কারণ তাহাদের গুণ ও দোষকে যাহারা জানে তাহারা সুখ প্রাপ্ত হয় ॥ ৬১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
চতু॑স্ত্রিꣳশ॒ৎ তন্ত॑বো॒ য়ে বি॑তত্নি॒রে য় ই॒মং য়॒জ্ঞᳬं স্ব॒ধয়া॒ দদ॑ন্তে ।
তেষাং॑ ছি॒ন্নꣳ সম্বে॒তদ্দ॑ধামি॒ স্বাহা॑ ঘ॒র্মোऽঅপ্যে॑তু দে॒বান্ ॥ ৬১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
চতুস্ত্রিংশদিত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । ব্রাহ্ম্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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