यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 31
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - दम्पती देवते
छन्दः - आर्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः
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मरु॑तो॒ यस्य॒ हि क्षये॑ पा॒था दि॒वो वि॑महसः। स सु॑गो॒पात॑मो॒ जनः॑॥३१॥
स्वर सहित पद पाठमरु॑तः। यस्य॑। हि। क्षये॑। पा॒थ। दि॒वः। वि॒म॒ह॒स॒ इति॑ विऽमहसः। सः। सु॒गो॒पात॑म॒ इति॑ सुऽगो॒पात॑मः। जनः॑ ॥३१॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुतो यस्य हि क्षये पाथा दिवो विमहसः । स सुगोपातमो जनः ॥
स्वर रहित पद पाठ
मरुतः। यस्य। हि। क्षये। पाथ। दिवः। विमहस इति विऽमहसः। सः। सुगोपातम इति सुऽगोपातमः। जनः॥३१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनरपि गार्हस्थ्यधर्मविषयमाह॥
अन्वयः
हे कृतविवाहा विमहस ऋत्विजो मरुतो गृहस्था! यूयं यस्य गृहस्थस्य क्षये गृहे हिरण्यानि सुरूपाणि दिवः पाथ स हि सुगोपातमो जनः सदा सेव्यः॥३१॥
पदार्थः
(मरुतः) हिरण्यानि रूपाण्यृत्विजो विद्वांसश्च। मरुदिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं॰१।२) रूपनामसु पठितम्। (निघं॰ ३। ७) ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं॰३।१) पदनामसु च। (निघं॰५।५) (यस्य) गृहस्थस्य (हि) खलु (क्षये) गृहे (पाथ) प्राप्नुत। द्व्यचोऽतस्तिङः। (अष्टा॰६।३।१३५) इति दीर्घः (दिवः) दिव्या गुणाः स्वभावाः क्रिया वा (विमहसः) विविधतया पूजनीयाः (सः) (सुगोपातमः) शोभनधर्म्मेण गां पृथिवीं वाचं वा पाति सोऽतिशयितः (जनः) प्रसिद्धः। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ५। २। १७) व्याख्यातः॥३१॥
भावार्थः
नहि केनचित् मनुष्येण किल ब्रह्मचर्य्यसुशिक्षाविद्याशरीरात्मबलारोग्यपुरुषार्थैश्वर्य्यसज्जन- सङ्गालस्यत्यागयमनियमसेवनसुसहायैर्विना गृहाश्रमो धर्तुं शक्यः। नह्येतेन विना धर्मार्थकाममोक्षसिद्धिर्भवितुं योग्या, तस्मादयं सर्वैः प्रयत्नेन सेवितव्यः॥३१॥
विषयः
पुनरपि गार्हस्थ्यधर्मविषयमाह॥
सपदार्थान्वयः
हे कृतविवाहा विमहस: विविधतया पूजनीया ऋत्विजो मरुतः हिरण्यानि, रूपाणि, ऋत्विजो विद्वांसश्च गृहस्थाः ! यूयं यस्य गृहस्थस्य क्षये=गृहे हिरण्यानि सुरूपाणि दिव: दिव्या गुणा: स्वभावाः क्रिया वा पाथ प्राप्नुत स हि खलु सुगोपातमः शोभनधर्मेण गां=पृथिवीं वाचं वा पाति सोऽतिशयितः जनः प्रसिद्धःसदा सेव्यः ॥ ८ । ३१॥ [हे......गृहस्थाः ! यूयं यस्य गृहस्थस्य क्षये=गृहे हिरण्यानि सुरूपाणि दिव: पाथ, स हि सुगोपातमो जनः सदा सेव्य:]
पदार्थः
(मरुतः) हिरण्यानि रूपाण्यृत्विजो विद्वांसश्च । मरुदिति हिरण्यना० ॥ निघं० १। २॥ रूपना० ३। ७॥ ऋत्विङ् ना० ३ । १ ॥ पदनामसु च ॥ निघं० ५ । ५ ॥(यस्य) गृहस्थस्य (हि) खलु(क्षये) गृहे (पाथ) प्राप्नुत द्वय्चोतस्तिङः ॥ अ० ६ । ३ । १३५ ॥ इति दीर्घ:(दिवः) दिव्या गुणाः स्वभावाः क्रिया वा (विमहसः) विविधतया पूजनीयाः (सः)(सुगोपातमः) शोभनधर्म्मण गां=पृथिवीं वाचं वा पाति सोऽशयितः (जनः) प्रसिद्धः ॥ अयं मन्त्रः शत० ४।५।२ । १७ व्याख्यातः ॥३१ ॥
भावार्थः
नहि केनचित् मनुष्येण किल ब्रह्मचर्यसुशिक्षाविद्याशरीरात्मबलारोग्य-पुरुषार्थैश्वर्य- सज्जनसङ्गालस्यत्याग-यमनियमसेवनसुसहायैर्विनागृहाश्रमो धर्तुं शक्यः । न ह्येतेन विना धर्मार्थ- काममोक्षसिद्धिर्भवितुं योग्या, तस्मादयं सर्वैः प्रयत्नेन सेवितव्यः ॥ ८ ।३१॥
भावार्थ पदार्थः
दिव:=ब्रह्मचर्यसुशिक्षाविद्याशरीरात्मबलारोग्यपुरुषार्थैश्वर्यसज्जनसङ्गा- लस्यत्यागयमनियमसेवनसुसहायाः ॥
विशेषः
गोतमः । दम्पती:=स्त्रीपुरुषौ । आर्षी गायत्री। षड्जः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में भी गृहस्थधर्म्म का विषय कहा है॥
पदार्थ
हे (विमहसः) विविध प्रकार से प्रशंसा करने योग्य (मरुतः) विद्वान् गृहस्थ लोगो! तुम (यस्य) जिस गृहस्थ के (क्षये) घर में सुवर्ण उत्तम रूप (दिवः) दिव्य गुण स्वभाव वा प्रत्येक कामों के करने की रीति को (पाथ) प्राप्त हों, (सः) (हि) वह (सुगोपातमः) अच्छे प्रकार वाणी और पृथिवी की पालना करने वाला (जनः) मनुष्य सेवा के योग्य है॥३१॥
भावार्थ
इस बात का निश्चय है कि ब्रह्मचर्य्य, उत्तम शिक्षा, विद्या, शरीर और आत्मा का बल, आरोग्य, पुरुषार्थ, ऐश्वर्य, सज्जनों का संग, आलस्य का त्याग, यम-नियम और उत्तम सहाय के विना किसी मनुष्य से गृहाश्रम धारा जा नहीं सकता। [इसके विना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिये इस का पालन सब को बड़े यत्न से करना चाहिये᳕॥३१॥
विषय
मरुतः
पदार्थ
१. ‘पिछले मन्त्र के वर्णन के अनुसार हमारे सन्तान सुन्दर, श्रेष्ठ बनें’ इसके लिए आवश्यक है कि माता-पिता प्राणसाधना करनेवाले हों, क्योंकि इस प्राणसाधना से इन्द्रियों के दोष दूर होकर हम प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘गो-तम’ = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बनते हैं। इन गोतमों की ही सन्तानें उत्तम होती हैं।
२. अतः मन्त्र में कहते हैं कि ( मरुतः ) = हे प्राणो! ( यस्य ) = जिसके ( क्षये ) = घर में ( हि ) = निश्चय से ( पाथ ) = रक्षा करते हो ( सः ) = वह ( जनः ) = अपनी शक्तियों का विकास करनेवाला मनुष्य ( सुगोपा-तमः ) = उत्तमता से इन्द्रियों की रक्षा करनेवालों में श्रेष्ठ बनता है।
३. हे प्राणो! आप ( दिवः ) = प्रकाशमय हो। आपकी साधना से बुद्धि सूक्ष्म होकर कठिन-से-कठिन विषय का ग्रहण करनेवाली होती है। ( विमहसः ) = आप विशिष्ट तेजवाले हो। यह प्राणसाधना मनुष्य को तेजस्वी बनाती है। एवं, प्राणसाधना के दो लाभ हैं—[ क ] मस्तिष्क ज्ञानाग्नि से दीप्त बनता है। [ ख ] शरीर तेजस्वी होता है। इस प्रकार के माता-पिता की सन्तान निश्चय से उत्तम होगी। इसी कारण उत्तम सन्तान के प्रतिपादक गत मन्त्र के बाद यह प्राणसाधनावाला मन्त्र आया है। दूसरे शब्दों में इस साधना के होने पर सन्तान एक प्रकार से इन मरुतों के ही पुत्र होंगे, मारुति बनेंगे।
भावार्थ
भावार्थ — हम प्राणसाधना करेंगे तो हमारे सन्तान मारुति = हनुमान् के समान प्रभु के सेवक बनेंगे। हमारे सन्तानों की इन्द्रियाँ बड़ी शुद्ध होंगी।
विषय
उत्तम रक्षक ।
भावार्थ
हे ( विमहस: ) विविधरूपों से और विशेष रीति से पूजन, आदर सत्कार करने योग्य ( मरुतः ) मरुद्गणो ! वैश्यजनो ! और विद्वान पुरुषो ! एवं वायु के समान तीव्रगामी सैनिक पुरुषो ! आप लोग ( यस्य हि क्षये ) जिसके अधीन राष्ट्र में रहकर ( दिवः ) दिव्यगुणों को या उत्तम पदार्थों को ( पाथ ) प्राप्त होते और पालन करते हो ( सः ) वह ही ( जनः ) पुरुष ( सुगोपातमः ) सबसे उत्तम पृथ्वी या बाणी या प्रजा का रक्षक हैं || शत० ४ । ५ । २ । १७ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतम ऋषिः । मरुतो देवताः । आर्षी गायत्री । षड्जः ॥
विषय
गृहस्थ धर्म का फिर उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे विवाहित, (विमहसः) विविध प्रकार से पूजनीय, (मरुतः) हिरण्यवान्, रूपमान्, ऋत्विक्, विद्वान् गृहस्थो ! तुम लोग जिस गृहस्थ के (क्षये) घर में सुवर्ण, उत्तम रूप, (दिवः) दिव्य गुण, स्वभाव और कर्मों को (पाथ) पाते हो (हि) निश्चय ही उस (सुगोपातमः) उत्तम वेदोक्त धर्म से गौ अर्थात् पृथिवी वा वेदवाणी के सर्वथा पालक (जनः) प्रसिद्ध पुरुष की सदा सेवा करो ॥ ८ । ३१ ।।
भावार्थ
यह बात निश्चित है कि कोई भी मनुष्य ब्रह्मचर्य, सुशिक्षा विद्या, शरीर और आत्मा का बल, आरोग्य, पुरुषार्थ, ऐश्वर्य, सज्जनोंका संग, आलस्य का त्याग, यम-नियमों का सेवन और उत्तम सहायकों के बिना गृहाश्रम को धारण नहीं कर सकता। इसके बिना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि सम्भव नहीं अतः इसका सब लोग प्रयत्नपूर्वक सेवन करें ॥ ८ । ३१ ॥
प्रमाणार्थ
(मरुतः) 'मरुत्' शब्द निघं ० ( १ । २) मेंहिरण्य-नामों में, निघं० (३ । ७) में रूप-नामों में, निघं० (३। ७) में ऋत्विङ् नामों में और निघं० (५ । ५) में पद-नामों में पढ़ा है। (पाथा) पाथ। यहाँ'द्व्यचोऽतस्तिङ:' (अ० ६ । ३ । १३५) इस सूत्र से दीर्घ है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ५। २ । १७) में की गई है ।।८ । ३१ ।।
भाष्यसार
गृहस्थ-धर्म--विवाहित गृहस्थ लोग विविध प्रकार से पूजनीय, हिरण्यवान्, रूपवान्, ऋत्विक् और विद्वान् होते हों और वे जिस गृहस्थ के घर में हिरण्य, सरूप, दिव्य गुण, स्वभाव और कर्म अर्थात् ब्रह्मचर्य, सुशिक्षा, विद्या, शरीर और आत्मा का बल, आरोग्य, पुरुषार्थ, ऐश्वर्य, सज्जनों का संग, आलस्य का त्याग, यम-नियमों का सेवन और सुसहाय को प्राप्त करें उसी प्रसिद्ध गृहस्थ-जन की सेवा करें क्योंकि वही गृहाश्रम को उत्तम रीति से धारण करने में समर्थ होता है। वही इस पृथिवी और वेदवाणी का रक्षक है। वही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त करने वाला है ।। ८ । ३१ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
ब्रह्मचर्य, उत्तम शिक्षण, विद्या, शारीरिक व आत्मिक बल, आरोग्य, पुरुषार्थ, ऐश्वर्य, सज्जनांचा संग, आळशीपणाचा त्याग, यमनियम व उत्तम साह्य याखेरीज कोणत्याही माणसाचा गृहस्थाश्रम योग्य रीतीने चालू शकत नाही. (याशिवाय धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यांची सिद्धी होऊ शकत नाही. त्यासाठी प्रयत्नपूर्वक वरील गोष्टींचे पालन केले पाहिजे. )
विषय
पुढच्या मंत्रात देखील गृहस्थधर्माविषयीच सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (विमहस:) विविध प्रकारे प्रशंसा करण्यास योग अशा हे (मकत:) विद्वान गृहस्थजनहो (यस्य) ज्या गृहस्थाच्या (क्षये) घरीं सुवर्ण आदी संपत्ती आहे आणि (दिव:) ज्याच स्वभाव श्रेष्ठ आणि गुण दिव्य आहेत, कामाची पद्धती श्रेष्ठ आहे, अशा (आदर्श) गृहस्थाला (पाथ) तुम्ही प्राप्त व्हा (त्याचे अनुकरण करा) कारण की (स:) असा तो (सुगोपालम:) मधुर सुंदर भाषण करणारा आणि भूमीचा पालक (जन:) माणूसच तुमच्यासाठी अनुकरणीय आहे, सेवा करण्यास योग्य आहे .॥31॥
भावार्थ
भावार्थ - हे निश्चयाने म्हणता येते की कोणताही माणूस ब्रह्मचर्य-पालन, उत्तम विद्या, शारीरिक व आत्मिक शक्ती, आरोग्य, पुरुषार्थ, ऐश्वर्य, सज्जनांची संगती, आलस्य-त्याग, यम-नियम पालन आणि उत्तम सहाय्य, या सर्वांविना गृहाश्रम धारण करू शकत नाही. ॥31॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O adorable, learned married persons, in whomsoevers house ye go, and observe therein the display of wealth and fine qualities, he is truly the cultivator of earth, and master of speech.
Meaning
Married couples, brilliant and great in many ways, blest with beauty, wealth, yajna and knowledge, wherever in a home you find superior people of noble nature, character and action, that family is most dedicated to mother earth and the Veda.
Translation
O cloud-bearing winds, glorifiers of the heaven, he is the best defended person, at whose home you drink. (1)
Notes
Patha, पिवथ, drink.
बंगाली (1)
विषय
পুনরপি গার্হস্থ্যধর্মবিষয়মাহ ॥
পরবর্ত্তী মন্ত্রে ও গৃহস্থধর্ম্মের বিষয় বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (বিমহসঃ) বিবিধ প্রকারে প্রশংসা করিবার যোগ্য (মরুতঃ) বিদ্বান্ গৃহস্থগণ ! তোমরা (য়স্য) যে গৃহস্থের (ক্ষয়ে) গৃহে সুবর্ণ উত্তম রূপ (দিবঃ) দিব্যগুণ স্বভাব বা প্রত্যেক কর্ম্ম করিবার রীতিকে (পাথ) প্রাপ্ত হও, (সঃ) (হি) সেই (সুগোপাতমঃ) ভাল প্রকার বাণী ও পৃথিবীর পালক (জনঃ) মনুষ্য সেবার যোগ্য ॥ ৩১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এ কথা নিশ্চয় যে, ব্রহ্মচর্য্য, উত্তম শিক্ষা, বিদ্যা, শরীর ও আত্মার বল, আরোগ্য, পুরুষার্থ, ঐশ্বর্য্য, সজ্জনদিগের সঙ্গ, আলস্যের ত্যাগ, যম-নিয়ম ও উত্তম সাহায্য ব্যতীত কোন মনুষ্য গৃহাশ্রম ধর্ম পালন করিতে পারেন না । (ইহা ব্যতীত ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষের সিদ্ধি হইতে পারে না । এইজন্য ইহার পালন সকলকে অত্যন্ত যত্ন সহকারে করা উচিত । )
मन्त्र (बांग्ला)
মরু॑তো॒ য়স্য॒ হি ক্ষয়ে॑ পা॒থা দি॒বো বি॑মহসঃ ।
স সু॑গো॒পাত॑মো॒ জনঃ॑ ॥ ৩১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মরুতো য়স্যেত্যস্য গোতম ঋষিঃ । দম্পতী দেবতে । আর্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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