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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
    सूक्त - चातनः देवता - वरुणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुबाधन सूक्त

    इ॒दं विष्क॑न्धं सहत इ॒दं बा॑धते अ॒त्त्रिणः॑। अ॒नेन॒ विश्वा॑ ससहे॒ या जा॒तानि॑ पिशा॒च्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । विऽस्क॑न्धम् । स॒ह॒ते॒ । इ॒दम् । बा॒ध॒ते॒ । अ॒त्त्रिण॑: । अ॒नेन॑ । विश्वा॑ । स॒स॒हे॒ । या । जा॒तानि॑ । पि॒शा॒च्या: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं विष्कन्धं सहत इदं बाधते अत्त्रिणः। अनेन विश्वा ससहे या जातानि पिशाच्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । विऽस्कन्धम् । सहते । इदम् । बाधते । अत्त्रिण: । अनेन । विश्वा । ससहे । या । जातानि । पिशाच्या: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 16; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (इदम्) यह सीस (विष्कन्धम्) गति के प्रतिवन्धक अर्थात् विघ्न करनेवाले का (सहते) पराभव करता है, (इदम् ) यह सीस (अत्त्रिणः) परभक्षिकों का (बांधते) बद्ध करता है, हनन करता है । अनेन) इस सीस द्वारा (विश्वा=विश्वानि ) सबको (ससहे) मैं पराभूत करता हूँ (या = यानि) जितनी कि (पिशाच्चा:) पिशाचों की (जातानि) जातियां हैं, उत्पत्तियां हैं।

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