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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
ये ऽमा॑वा॒स्यां॑३ रात्रि॑मु॒दस्थु॑र्व्रा॒जम॒त्त्रिणः॑। अ॒ग्निस्तु॒रीयो॑ यातु॒हा सो अ॒स्मभ्य॒मधि॑ ब्रवत् ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒मा॒ऽवा॒स्याम् । रात्रि॑म् । उ॒त्ऽअस्थु॑: । व्रा॒जम् । अ॒त्त्रिण॑: । अ॒ग्नि: । तु॒रीय॑: । या॒तु॒ऽहा । स: । अ॒स्मभ्य॑म् । अधि॑ । व्र॒व॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये ऽमावास्यां३ रात्रिमुदस्थुर्व्राजमत्त्रिणः। अग्निस्तुरीयो यातुहा सो अस्मभ्यमधि ब्रवत् ॥
स्वर रहित पद पाठये । अमाऽवास्याम् । रात्रिम् । उत्ऽअस्थु: । व्राजम् । अत्त्रिण: । अग्नि: । तुरीय: । यातुऽहा । स: । अस्मभ्यम् । अधि । व्रवत् ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(ये) जो (अत्रिणः) भक्षक चोर-डाकू या शत्रु सैनिकों का ( व्राजम् ) समूह, (अमावास्यां रात्रिम्) अमावास्या की रात्रि को निमित्त करके (उदस्थु:) उत्थान करते हैं [ आक्रमण करने के लिये ] (सः ) वह ( यातुहा) यातनाकारियों का हनन करनेवाला, (तुरीयः) तुरीयावस्था का परमेश्वर, (अग्निः) जो कि अग्निवत् प्रकाशस्वरूप है, (अस्मभ्यम् ) हमें (अधिब्रवत्) स्वाधिकारपूर्वक इसका उपदेश करे।
टिप्पणी -
[ तुरीयः= माण्डू उप० (पाद १२ )। जो कि तुरीयावस्था का होता है न कि जो "ब्रवत्" रूप में तुर्यावस्था का है। "ब्रवत्" रूप में वह तुरीयावस्था का नहीं । अग्नि को "तुरीय:" कहा है यह दर्शाने के लिये कि यह अग्नि और कोई नहीं विना तुरीय ब्रह्म के। "ब्रवत्" अर्थात् बोलना या उपदेश देना चेतन अग्नि द्वारा ही सम्भव है, जड़-अग्नि द्वारा नहीं। ब्रवत्=परमेश्वर ने मन्त्रों द्वारा सीसे के प्रयोग का कथन किया ही है। ]