अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदा साम्नी बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स प्र॒जाप॑तिःसु॒वर्ण॑मा॒त्मन्न॑पश्य॒त्तत्प्राज॑नयत् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । प्र॒जाऽप॑ति: । सु॒ऽवर्ण॑म् । आ॒त्मन् । अ॒प॒श्य॒त् । तत् । प्र । अ॒ज॒न॒य॒त् ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
स प्रजापतिःसुवर्णमात्मन्नपश्यत्तत्प्राजनयत् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । प्रजाऽपति: । सुऽवर्णम् । आत्मन् । अपश्यत् । तत् । प्र । अजनयत् ॥१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(सः) उस (प्रजापतिः) प्रजारक्षक ने (आत्मन्) अपने आश्रय में (सुवर्णम्) उत्तमवर्णों वाले प्रकृति-तत्त्व को (अपश्यत्) देखा, (तत्) उस प्रकृति-तत्व को (प्राजनयत्) उस ने सृष्टि पैदा करने में उन्मुख१ किया ।
टिप्पणी -
[सुवर्णम् = प्रकृति-तत्त्व उत्तम-वर्णों वाला है। श्वेता० उपनिषद् में प्रकृति को "अजा" अर्थात् अजन्मा कहा है, और इस के ३ घटकों अर्थात् सत्त्व, रजस्, तमस् को" शुक्ल, लोहित, और कृष्ण" कहा है। इस प्रकार इन तीन वर्णों का परस्पर मेल सुवर्ण रूप है, उत्तमवर्णों वाला है। "अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णाम्" (अ० ४, खं० ५)। आत्मन्ः= अपने में, अर्थात् अपने आश्रय में। इसी भावना से प्रकृति को "स्वधा" भी वेदों में कहा है। स्वधा = स्व (परमेश्वर ने जिसे अपने आश्रय में) + धा (धारित किया हुआ है)। यथा "आनीदवातं स्वधया तदेकम्२" तथा "स्वधा अवस्तात् प्रयतिः परस्तात्" (ऋग्वेद १०।१२९।२,५)। स्वधा अर्थात् स्वाश्रित-प्रकृति, निचली शक्ति हैं, और प्रयति अर्थात् परमेश्वर का प्रयत्न, ऊंची शक्ति, श्रेष्ठ शक्ति है। अपश्यत्ः- कारीगर किसी वस्तु का निर्माण करने से पूर्व उस वस्तु के कारणों को दृष्टिगत करता है। तदनन्तर वस्तु के निर्माण में प्रयत्नशील होता है। परमेश्वर ने भी जगत् के कारण प्रकृति तत्त्व को प्रथम दृष्टिगत किया, इस का ईक्षण या निरीक्षण किया। तदनन्तर उस प्रकृति तत्त्व को जगत् के निर्माणोन्मुख किया, "प्राजनयत्"। इसे ही वेदान्त दर्शन में "ईक्षतेनशिब्दम्"- द्वारा प्रकट किया है। तथा "तदैक्षत बहूस्यां प्रजायेय" (छान्दो० अ० ६, खं० २) में भी इसी तथ्य का कथन किया है।] [१. प्रलय में प्रकृति साम्यावस्था अर्थात् अनुत्पादनवस्था में होती है, परमेश्वर ने सृष्ट्युत्पादनार्थ प्रकृति को साम्यावस्था से वैषम्यावस्थोन्मुख किया। २. प्रलयकाल में, स्वाश्रय में निहित प्रकृति के साथ वह एक ब्रह्मतत्त्व प्राणवान् था, उस काल में वायु आदि की सत्ता न थी।]