अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - एकपदा यजुर्ब्राह्मी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तदेक॑मभव॒त्तल्ल॒लाम॑मभव॒त्तन्म॒हद॑भव॒त्तज्ज्ये॒ष्ठम॑भव॒त्तद्ब्रह्मा॑भव॒त्तत्तपो॑ऽभव॒त्तत्स॒त्यम॑भव॒त्तेन॒ प्राजा॑यत ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । एक॑म् । अ॒भ॒व॒त् । तत् । ल॒लाम॑म् । अ॒भ॒व॒त् । तत् । म॒हत् । अ॒भ॒व॒त् । तत् । ज्ये॒ष्ठम् । अ॒भ॒व॒त् । तत् । ब्रह्म॑ । अ॒भ॒व॒त् । तत् । तप॑: । अ॒भ॒व॒त् । तत् । स॒त्यम् । अ॒भ॒व॒त् । तेन॑ । प्र । अ॒जा॒य॒त॒ ॥१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
तदेकमभवत्तल्ललाममभवत्तन्महदभवत्तज्ज्येष्ठमभवत्तद्ब्रह्माभवत्तत्तपोऽभवत्तत्सत्यमभवत्तेन प्राजायत ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । एकम् । अभवत् । तत् । ललामम् । अभवत् । तत् । महत् । अभवत् । तत् । ज्येष्ठम् । अभवत् । तत् । ब्रह्म । अभवत् । तत् । तप: । अभवत् । तत् । सत्यम् । अभवत् । तेन । प्र । अजायत ॥१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(तत्) वह प्रथमोत्पन्न तत्व (एकम्) एक रूप (अभवत्) हुआ, (तत्) वह (ललामम्) अभीप्सित सुन्दर (अभवत्) हुआ, (तत्) वह (महत्) महत्तत्व (अभवत्) हुआ, (तत्) वह (ज्येष्ठम्) प्रथमोत्पन्न होने के कारण पश्चादुत्पन्न तत्त्वों से आयु की दृष्टि से ज्येष्ठ (अभवत्) हुआ, (तत्) वह (ब्रह्म) विस्तार में बृहत् (अभवत्) हुआ। (तत्) वह कालान्तर में (तपः) तप्तावस्थावाला (अभवत्) हुआ, (तत्) वह (सत्यम्) सत्तासम्पन्न यथार्थ रूप (अभवत्) हुआ, अर्थात् वह मिथ्या या भ्रमरूप न था। (तेन) उस द्वारा (प्राजायत) परमेश्वर प्रजापतिरूप में प्रकट हुआ।
टिप्पणी -
[महत् = मन्त्र में "महत्" द्वारा महत्तत्त्व का वर्णन हुआ है। यह प्रकृति का सर्वप्रथम परिणाम था। इसीलिये इसे "ज्येष्ठम्" कहा है। "सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महान्" (सांख्य अ० १, सू०६१) में "महत्" को "महान्" शब्द द्वारा सूचित किया है। यह महत्तत्त्व एकरूप हुआ। इस में सत्त्वगुण का प्राधान्य था। रजोगुण और तमोगुण केवल अत्यल्पमात्रा में थे, वे भी केवल महत्तत्त्व के स्वरूप की क्रियाशीलता और स्थिति बनाएं रखने के लिये। सत्त्वगुण प्रधान होने के कारण यह प्रकाशमय था- "सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टम्"। इसलिये यह ललामरूप था। महत्तत्त्व को ही बुद्धि कहते हैं। यथा "उस (प्रकृति) से महत्तत्व बुद्धि, उस अहङ्कार आदि" (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास ८) में महत्तत्व को बुद्धि कहा है। यह समष्टि-बुद्धि है। इसी समष्टि-बुद्धि से अस्मदादि की व्यष्टि बुद्धियां या चित पैदा हुए हैं। महत्तत्त्व या समष्टि-बुद्धितत्त्व विस्तार में बृहत् था, इसी लिये इसे ब्रह्म कहा है। बृंहति वर्धते तत् (उणा० ४।१४७)। यह महत्तत्त्व या बुद्धितत्व केवल प्रकाशमय था, प्रतप्तावस्था में न था। अस्मदादि की बुद्धियों के सदृश केवल प्रकाशमय था। अस्मदादि की बुद्धियां प्रकाशमय शीतलरूप है, प्रतप्तरूप नहीं। तपोऽभवत् = कालान्तर में नाना विषमपरिणामों में से गुजरता हुआ महत्तत्व, तपोरूप हुआ, अग्निरूप हुआ। परिणाम रूप में अग्नि-तत्त्व-प्रधान विद्युत्, आग, सूर्य, नक्षत्र और तारागण अग्नि-प्रधान कार्य उत्पन्न हुए। सत्यमभवत् = यह अग्नि प्रधान कार्य-जगत् सत्यस्वरूप हुआ। मायावादियों की दृष्टि से मायारूप या मिथ्या तथा भ्रमरूप नहीं है। वस्तुतः माया का अर्थ है प्रकृति। यथा "मायां तु प्रकृतिं विद्यात् मायिनं तु महेश्वरम्" (श्वेता० उप० ४।१०)। प्राजायत् = इस सत्य और यथार्थ स्वरूप जगत् को पैदा कर, इस जगत् की विविध रचनाओं द्वारा परमेश्वर-प्रजापति हुआ। माता-पिता१ न्यायकारी, कर्माध्यक्ष, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् आदि स्वरूपों में प्रकट हुआ। परमेश्वर के सम्बन्ध में जब "जन्" धातु का प्रयोग हो तो उस से परमेश्वर का शारीरिक-जन्म न समझना चाहिये, जैसे कि अवतारवादी समझते हैं। क्योंकि परमेश्वर को "अकायम्, अव्रणम् और अस्नाविरम्" (यजु० ४०।८), अर्थात् कायरहित, कायिक दोषों व्रण आदि से रहित, तथा नस-नाड़ियों से रहित कहा है। तथा "स वा ऋग्भ्योजायत" (अथर्व० १३। अनु० ४। पर्याय ४। मन्त्र ३८) में ऋचाओं द्वारा उसे जनित अर्थात् प्रकट हुआ कहा है। ऋचाओं द्वारा परमेश्वर के गुणधर्म प्रकट होते हैं, इन द्वारा परमेश्वर का शरीरिक जन्म नहीं हो सकता।][१. त्वं नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ। अधा ते सुम्नमीमहे। (अथर्व० २०।१०८।२) मन्त्र में परमेश्वर के पिता तथा माता स्वरूपों का वर्णन हुआ है।]