अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदा अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
नीले॑नै॒वाप्रि॑यं॒ भ्रातृ॑व्यं॒ प्रोर्णो॑ति॒ लोहि॑तेन द्वि॒षन्तं॑ विध्य॒तीति॑ब्रह्मवा॒दिनो॑ वदन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठनीले॑न । ए॒व । अप्रि॑यम्। भ्रातृ॑व्यम् । प्र । ऊ॒र्णो॒ति॒ । लोहि॑तेन । द्वि॒षन्त॑म् । वि॒ध्य॒ति॒ । इति॑ । ब्र॒ह्म॒ऽवा॒दिन॑: । व॒द॒न्ति॒ ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
नीलेनैवाप्रियं भ्रातृव्यं प्रोर्णोति लोहितेन द्विषन्तं विध्यतीतिब्रह्मवादिनो वदन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठनीलेन । एव । अप्रियम्। भ्रातृव्यम् । प्र । ऊर्णोति । लोहितेन । द्विषन्तम् । विध्यति । इति । ब्रह्मऽवादिन: । वदन्ति ॥१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(नीलेन) नीले किरणसमूह द्वारा (एव) ही, (अप्रियम्) स्वराष्ट्र के साथ प्रेम न करने वाले अत एव अप्रिय (भ्रातृव्यम्१) भाई-की-सन्तानों-सदृश वर्तमान, परन्तु राष्ट्र के अन्तर्द्वेषी को (प्रोर्णोति) आच्छादन करता है, और (लोहितेन) लाल किरण समूह द्वारा (द्विषन्तम्) द्वेष करने वाले अर्थात् परराष्ट्र के बाह्य शत्रु को (विध्यति) बींधता है (इति) यह (ब्रह्मवादिनः) वेदवेत्ता (वदन्ति) कहते हैं।
टिप्पणी -
[७वां और ८वां मन्त्र राष्ट्रपरक हैं। राजा इन दोनों प्रकार के किरण समूहों का प्रयोग, शस्त्रास्त्ररूप में करे,- ऐसा कथन वेदवेत्ताओं का है। शत्रु सेना पर विजय प्राप्त करने के लिये इन किरणों के प्रयोग का विधान, अर्थववेद के निम्नलिखित मन्त्र में भी हुआ है। यथा, "इतो जयेतो वि जय सं जय जय स्वाहा। इमे जयन्तु परामी जयन्तां स्वाहैभ्यो दुराहामीभ्यः। नीललोहितेनामूनभ्यवतनोमि" (८।८।२४) अर्थात् " इधर से जीत, इधर से विजयी बन, सम्यक्-विजय प्राप्त कर, विजयी बन, एतदर्थ (स्वाहा) युद्धयज्ञ में आहूतियां प्रदान कर। (इमे) ये हमारे सैनिक (जयन्तु) विजयी हों, (अमी) वे परराष्ट्र के सैनिक (पराजयन्ताम्) पराजित हों। (एभ्यः) इन निज प्रजाजनों के लिये (स्वाहा) युद्धयज्ञ में हमारी आहुतियां सुखदायक हों, और (अमीभ्यः) उन परराष्ट्र के प्रजाजनों के लिये (दुराहा) युद्धयज्ञ में उन की आहुतियां दुःखदायक हों। (नीललोहितेन) नीले और लाल किरणसमूह द्वारा (अमून्) उन अन्तःशत्रुओं और बाह्यशत्रुओं के (अभि) संमुख हो कर उन्हें (अवतनोमि) मैं आच्छादित करता हूं, अथवा उन के धनुषों की डोरियों को तनाव से रहित करता हूँ।२ [स्वाहा = सु + आ+हा (ओहाक् त्यागे)। दुराहा = दुर्+आ+हा (ओहाक् त्यागे)। अभवा स्वाहा = सु + आ + हा (ओहाङ् गतौ) = दुर्गति। नीललोहितेन = सायणाचार्य ने इस का अर्थ किया है "नीललोहितसूत्रेण३" अर्थात् नीले-और-लाल सूत्र द्वारा, धागे द्वारा। ऐसे सूत्र द्वारा शत्रुओं को आच्छादित तथा उन का वध, तथा उन पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है,-यह विचारणीय है। अवतनोमि, अवतानः = Cover (आप्टे)। इस अर्थ में मन्त्र ८ में "प्रोर्णोति" तथा मन्त्र ८।८।२४ में "अवतनोमि" पद एकाभिप्रायक प्रतीत होते हैं] [व्याख्या - वर्षाकाल में कभी कभी बादलों में इन्द्रधनुष (Rainbow) दृष्टिगोचर होता है। जल के कणों के कारण सूर्य की किरणे फट कर सप्तरंगी धनुष् का निर्माण करती है। इस धनुष् की पीठ अर्थात् बाहिर का घेरा लोहितपट्टी का होता है, और अन्दर की पट्टी बैंगनी (violet) होती है, जिसे मन्त्र में नील कहा है। इन्द्रधनुष् में ७ रंगों की ७ पट्टियां निम्नलिखित क्रम में होती है। लाल (Red), पीत (yellow), नारंगी (orange), हरी (green), आकाशीय या आसमानी (blue), नीलपौदे के रंगवाली (indigo), बैंगनी (violet)। मन्त्र में नील और लोहित पद नीली और लाल पट्टियों का निर्देश करते हैं। इन दो प्रकार की या इन दो के मध्यगत भी पट्टियों के सदृश किरणसमूहों का युद्ध में प्रयोग किस प्रकार किया जा सकता है,- इसका निर्देश मन्त्र में नहीं हुआ। सप्तरंगी रश्मियों में लालरश्मियों के पूर्ववर्ती रश्मियों को Infrared कहते हैं, और बैंगनी रश्मियों के पश्चात्-वर्ती अर्थात् उत्तरवर्ती, या परवर्ती रश्मियों को UltraViolet कहते हैं। इन दो प्रकार की रश्मियों का प्रयोग द्वितीय-महायुद्ध में हुआ था। यथाः- "Infra-red rays show the heating effect. Infra-red Photography Played an important part in world-war II, in detecting enemy in dark and finger prints on a piece of paper may be detected by sprinkling fluorescent powder on the paper and then looking it in the ultra violet light" (Physics guide, P-310, Published by Raj Hans Prakashan Mandir Meerut), अर्थात् Infra-red रश्मियों द्वारा, द्वितीय महायुद्ध में, फोटो ले कर अन्धकार में भी शत्रुओं की खोज की गई थी। तथा कागज पर पड़ी अङ्गुली-छापों पर एक प्रकार का चमकीला-चूर्ण डाल कर, Ultra-violet राश्मियों में उन की पर्खें की गई थीं। इसी प्रकार उक्त मन्त्रों में नीली और लाल रश्मियों का प्रयोग भी युद्ध में किये जाने का निर्देश हुआ है। इस प्रकार प्रलय से लेकर राष्ट्रों तक की उत्पत्ति में मुख्य-मुख्य वैज्ञानिक क्रमों का वर्णन इस सूक्त में हुआ है। यह वर्णन परस्पर असम्बद्ध बाल प्रलाप है, या वैज्ञानिक तथ्य रूप, इस का निर्णय पाठक स्वयं कर सकते हैं। वर्णन दुर्बोध, अस्पष्ट तथा गूढ़ अवश्य है।] [१. "व्यन् सपत्ने" (अष्टा० ४।१।१४५)। सपत्न= एक-राष्ट्रपति के राष्ट के अन्तःशत्रु। २. राष्ट्रों और उन में परस्पर युद्धों के वर्णन द्वारा, अर्थापत्या, उन से पूर्व प्राणियों तथा मनुष्यों की उत्पत्ति भी दर्शा दी है। ३. "नीललोहितेन" पद में समाहार द्वन्द है, और चूंकि मन्त्र ६ और ७ में नील और लोहित का सम्बन्ध वर्षाकालीन इन्द्रधनुष् के साथ दर्शाया है, इसलिये "नील और लोहित" किरण-समूह ही सम्भव है, न कि सूत्र।