अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स उद॑तिष्ठ॒त्सप्राचीं॒ दिश॒मनु॒ व्यचलत् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । उत् । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । स: । प्राची॑म् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स उदतिष्ठत्सप्राचीं दिशमनु व्यचलत् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । उत् । अतिष्ठत् । स: । प्राचीम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् ॥२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(सः) वह व्रात्य अर्थात् व्रती तथा मनुष्यहितकारी [संन्यासी] (उदतिष्ठत) उठा, प्रयत्नवान् हुआ, (सः) वह (प्राचीं दिशम्) पूर्व दिशा१ के (अनु) साथ-साथ (व्यचलत्) विशेषतया चला या विचरा।
टिप्पणी -
[मन्त्र में किसी ऐतिहासिक वृत्त का वर्णन नहीं। प्ररोचनार्थ ऐतिहासिक ढंग के शब्दों में वर्णन किया है। यह केवल अर्थवाद है, काल्पनिक कथारूप है। अर्थवाद में किसी अभिप्रेत वस्तु की सिद्धि के लिये वस्तु का कथारूप में वर्णन किया जाता है। उदतिष्ठत = यथा "उत्तिष्टत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत" (कठोप० १।३।१४) में उठने का अभिप्राय है, –यत्न करना। अनु= Along, Alongside (आप्टे), अर्थात् साथ-साथ। यथा "अनुगङ्ग वाराणसी। व्यचलत् = विशेषतया अर्थात् दूर तक। सूक्त २ में व्रात्यदसंन्यासी का वर्णन है, यह अगले मन्त्रों से स्पष्ट हो जायगा]। [१. सूत्र २ में संन्यासी के - पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशा में, - गमन का कथन किया है। इस कथन का अभिप्राय यह दर्शाना है कि संन्यासी यथासम्भव सर्वत्र जा कर सदुपदेश किया करे।]