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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - निचृत आर्षी पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    श्यै॒ताय॑ च॒ वैस नौ॑ध॒साय॑ च सप्त॒र्षिभ्य॑श्च॒ सोमा॑य च॒ राज्ञ॒ आ वृ॑श्चते॒ य ए॒वंवि॒द्वांसं॒ व्रात्य॑मुप॒वद॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्यै॒ताय॑ । च॒ । वै । स: । नौ॒ध॒साय॑ । च॒ । स॒प्त॒र्षिऽभ्य॑:। च॒ । सोमा॑य । च॒ । राज्ञे॑ । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । व्रात्य॑म् । उ॒प॒ऽवद॑ति ॥२.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्यैताय च वैस नौधसाय च सप्तर्षिभ्यश्च सोमाय च राज्ञ आ वृश्चते य एवंविद्वांसं व्रात्यमुपवदति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्यैताय । च । वै । स: । नौधसाय । च । सप्तर्षिऽभ्य:। च । सोमाय । च । राज्ञे । आ । वृश्चते । य: । एवम् । विद्वांसम् । व्रात्यम् । उपऽवदति ॥२.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 23

    भाषार्थ -
    (वै) निश्चय से (सः) वह व्यक्ति, (श्यैताय च) श्यैतनामक सामगानों से, (नौधसाय च) और नौधसनामक सामगानों से, (सप्तर्षिभ्यः च) सप्तर्षियों अर्थात् पृथिवी के उत्तरध्रुव के समीप तक की यात्रा से या इन्द्रियों पर वशीकार से, (सोमाय च) और जगदुत्पादक परमेश्वर की कृपा से (आवृश्चते) अपने आप को वञ्चित कर लेता है, (यः) जो कि (एवम्, विद्वांसम्, व्रात्यम्) इस प्रकार के विद्वान् व्रती तथा परोपकारी के (उप) समीप अर्थात् सत्संगति में रहकर (वदति) उस के साथ वाद-विवाद करता है, तर्क-बाजी करता है।

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