अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
श्रु॒तं च॒विश्रु॑तं च परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रु॒तम् । च॒ । विऽश्रु॑तम् । च॒ । प॒रि॒ऽस्क॒न्दौ । मन॑: । वि॒ऽप॒थम् ॥२.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुतं चविश्रुतं च परिष्कन्दौ मनो विपथम् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रुतम् । च । विऽश्रुतम् । च । परिऽस्कन्दौ । मन: । विऽपथम् ॥२.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 26
भाषार्थ -
(श्रुतम्, च) वेद का स्वाध्याय, (विश्रुतम्, च) और विविध प्रकार के प्रतिभ१ श्रवण (परिष्कन्दौ) व्रात्य-संन्यासी के चारों ओर से रक्षक होते हैं। (मनः....) मन इत्यादि पूर्ववत् (१५।२।६)।
टिप्पणी -
[श्रुतम् = वेद। यथा "मय्येवास्तु मयि श्रुतम्" (अथर्व का० १। सूक्त १। मं० २,३), तथा "सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि" (अथर्व० १।१।४), कि "मुझ में स्थित वेद मुझ में अवश्य स्थित रहे;" श्रुत अर्थात् वेदश्रुति के संग में हम रहें, वेदश्रुति से विमुख मैं न होऊं]। [१. तथा "ततः प्रतिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते (योग ३।३६) में प्रातिभश्रावण, प्रातिभ दिव्यस्पर्शज्ञान, प्रातिभदिव्यरूपों का दर्शन [जैसे कि श्वेता० उप० २।११ में दर्शाया है, प्रातिभ दिव्यरस का आस्वादन, तथा वार्ता अर्थात् प्रातिभगन्धग्रहण। तथा "श्रोत्राकाशयोः सम्बन्धसंयमाद् दिव्यं श्रोत्रम्" (योग ३।४१) में दिव्यशब्दों के श्रवण की योग्यता का वर्णन हुआ है]।