अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
भू॒तं च॑भवि॒ष्यच्च॑ परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम् ॥
स्वर सहित पद पाठभू॒तम् । च॒ । भ॒वि॒ष्यत् । च॒ । प॒रि॒ऽस्क॒न्दौ । मन॑: । वि॒ऽप॒थम् ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
भूतं चभविष्यच्च परिष्कन्दौ मनो विपथम् ॥
स्वर रहित पद पाठभूतम् । च । भविष्यत् । च । परिऽस्कन्दौ । मन: । विऽपथम् ॥२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
संन्यासी का (भूतम् च) भूतकाल में हुआ (भविष्यत् च) और भविष्य में होनेवाला व्रतमय और परोपकारी जीवन (परिष्कन्दौ) इस के चारों ओर से रक्षक होते हैं, (मनः) मन (विपथम्) विविध पथगामीरथ होता है, विविध प्रकार के कठिन-मार्गो में भी ले चलनेवाला रथ होता है।
टिप्पणी -
[संन्यासी के व्रतमय तथा परहितकारी जीवन ही इस के लिये दो रक्षक-पुरुष हैं। इस का मनोबल इस की कठिन से कठिन जीवन यात्रा में रथ होता है, जो क्लिष्ट पथों पर भी चल सकता है]।