अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - एकपदोष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तंय॑ज्ञाय॒ज्ञियं॑ च॒ वा॑मदे॒व्यं च॑ य॒ज्ञश्च॒ यज॑मानश्चप॒शव॑श्चानु॒व्यचलन्॥
स्वर सहित पद पाठतम् । य॒ज्ञा॒य॒ज्ञिय॑म् । च॒ । वा॒म॒ऽदे॒व्यम् । च॒ । य॒ज्ञ: । च॒ । यज॑मान: । च॒ । प॒शव॑: । च॒ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तंयज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं च यज्ञश्च यजमानश्चपशवश्चानुव्यचलन्॥
स्वर रहित पद पाठतम् । यज्ञायज्ञियम् । च । वामऽदेव्यम् । च । यज्ञ: । च । यजमान: । च । पशव: । च । अनुऽव्यचलन् ॥२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(तम, अनु) उस के साथ-साथ या पीछे-पीछे (यज्ञायज्ञियस् च) यज्ञायज्ञियनामक सामगान, और (वामदेव्यम्, च) वामदेव्य नामक सामगान, (यज्ञः, च) और यज्ञ (यजमानः च) तथा यजमान, (पशवः, च) और पशु (व्यचलन्) चले।
टिप्पणी -
[यज्ञायज्ञिय तथा वामदेव्य सामगान, दक्षिण दिशा के जलवायु तथा ऋतु के अनुकूल प्रतीत होते हैं। यज्ञ के लिये घृतादि चाहिये, इस-लिये गौ-पशु की भी आवश्यकता है। पृथिवी का दक्षिण भाग समुद्रप्रायः है। अतः वहां की वायु अधिक जलवाली होने के कारण, तथा वहां की संलग्न भूमि में जलाधिक्य के कारण, मलेरिया आदि रोगों, तथा कफ प्रधान रोगों की सम्भावना रहती है। तदर्थ यज्ञों की आवश्यकता है, और यजमानों की भी। यज्ञों द्वारा रोगों का निवारण होता है।]