अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
की॒र्तिश्च॒यश॑श्च पुरःस॒रावैनं॑ की॒र्तिर्ग॑च्छ॒त्या यशो॑ गच्छति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठकी॒र्ति: । च॒ । यश॑: । च॒ । पु॒र॒:ऽस॒रौ । आ । ए॒न॒म् । की॒र्ति: । ग॒च्छ॒ति॒ । आ । यश॑: । ग॒च्छ॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
कीर्तिश्चयशश्च पुरःसरावैनं कीर्तिर्गच्छत्या यशो गच्छति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठकीर्ति: । च । यश: । च । पुर:ऽसरौ । आ । एनम् । कीर्ति: । गच्छति । आ । यश: । गच्छति । य: । एवम् । वेद ॥२.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(कीर्त्तिः च) व्रती तथा परोपकारी संन्यासी के सद्गुणों और सत्कर्मों का संकीर्तन१, (यशः च) और यश (पुरः२ सरौ) इस के आगे-आगे चलते हैं। (एनम्) इस व्यक्ति को भी (कीर्त्तिः) संकीर्तन (आ गच्छति) प्राप्त होता है, (यशः) तथा यश (आ गच्छति) प्राप्त होता है, (यः) जोकि (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता, तथा तदनुसार कर्म या आचरण करता है ।
टिप्पणी -
[कीर्त्ति = यशोगान; "कीर्त्यते संशब्द्यते सा कीर्त्तिः" (उणा० ४।१२०, म० दया०)। वेद = जानता है। वैदिक दृष्टि में वेदन अर्थात् ज्ञान "क्रियार्थ" होता है। केवल ज्ञानमात्र से वस्तु की प्राप्ति नहीं होती, जब तक विचारपूर्वक तदनुसार आचरण न किये जांय] यथा " आम्नायस्य क्रियार्थत्वात् आनर्थक्यमतदर्थानाम्" (पूर्वमीमांसा)।][१. कीर्तन = संकीर्तन = यशोगान। २. संन्यासी की कीर्त्ति-और यश, संन्यासी के अभिप्रेत स्थान में पहुंचने से पहिले ही मानो पहुंचे हुए होते हैं, और प्रजाजन उस के स्वागत के लिये तैयार रहते हैं।]