अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदार्ची जगती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
वि॒द्युत्पुं॑श्च॒ली स्त॑नयि॒त्नुर्मा॑ग॒धो वि॒ज्ञानं॒ वासोऽह॑रु॒ष्णीषं॒रात्री॒ केशा॒ हरि॑तौ प्रव॒र्तौ क॑ल्म॒लिर्म॒णिः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽद्युत् । पुं॒श्च॒ली । स्त॒न॒यि॒त्नु: । मा॒ग॒ध: । वि॒ऽज्ञान॑म् । वास॑: । अह॑: । उ॒ष्णीष॑म् । रात्री॑ । केशा॑: । हरि॑तौ । प्र॒ऽव॒र्तौ । क॒ल्म॒लि: । म॒णि: ॥२.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्युत्पुंश्चली स्तनयित्नुर्मागधो विज्ञानं वासोऽहरुष्णीषंरात्री केशा हरितौ प्रवर्तौ कल्मलिर्मणिः ॥
स्वर रहित पद पाठविऽद्युत् । पुंश्चली । स्तनयित्नु: । मागध: । विऽज्ञानम् । वास: । अह: । उष्णीषम् । रात्री । केशा: । हरितौ । प्रऽवर्तौ । कल्मलि: । मणि: ॥२.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 25
भाषार्थ -
(विद्युत्) विजुली१ की चमक (पुश्चली) व्रात्य-संन्यासी की सहचारिणी धर्मपत्नी होती है, (स्तनयित्नुः) मेघ२ की गर्जना (मागधः) गायक होती है। (विज्ञानम्.....) विज्ञान ..... आदि, पूर्ववत् (मन्त्र ५)।
टिप्पणी -
[बढ़े हुए योगाभ्यास में योगी को ध्यान में नानाविध ज्योतियां दृष्टिगोचर होती हैं। ये ज्योतियां आंखों के विषयरूप नहीं होती, अपितु मानसिक होती हैं। नीहार अर्थात् कोहरे की प्रतीति, धूम, सूर्य, वायु के चलने, अग्नि, जुगनू या ताराओं की चमक, विद्युत्, स्फटिक, चांद आदि की प्रतीतियां ध्यानावस्थित योगी को होती हैं। ये प्रतीतियां ईश्वरीयदर्शन से पूर्व होती हैं। इन प्रतीतियों के होते, समय पर, योगी को ईश्वरदर्शन हो जाता है। इन प्रतीतियों में "विद्युत की चमक" भी है, जिसका कि वर्णन मन्त्र २५ में हुआ है। यथा "नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्। एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥" (श्वेता० उप० अ० २।११)। विद्युत् की प्रतीति व्रात्य-संन्यासी के लिये स्नेहमयी धर्मपत्नी के सदृश है। विद्युत् का वर्णन केवल दृष्टान्त मात्र है। योगी को अन्य प्रतीतियां भी होती रहती हैं। स्तनयित्नु = मेघ की गर्जना। जैसे मेघ में विद्युत् की चमक और मेघ की गर्जना होती है, इसी प्रकार योगी को ध्यानावस्था में विद्युत् आदि की चमक का भी भान होता है, और मेघगर्जना आदि का भी। ऐसी अव्यक्त ध्वनियों को योग की परिभाषा में "नाद" कहते हैं। ये नाद भी कई तरह के हैं। घण्टा बजने का नाद, झींगड़ की आवाज, ढोल आदि की ध्वनि आदि। इस अवस्था पर पहुंचें हुए योगी के लिये ये नाद ही गायन रूप होते हैं, और योगी का चित्त इन गायनों का गायक होता है]। [१. उत्तरध्रुव या सप्तर्षितारामण्डल के समीप उत्तरध्रुव की ओर प्राकृतिक वैद्युत-प्रकाश भी दृष्टिगोचर होता है, जिसे कि “Northern lights" या "Aurora borealis" भी कहते हैं। इस का वर्णन निम्नलिखित है, "A luminous meteoric phenomenon of electrical character seen in and towards The Solar regions, with a tremulous motion, and giving forth streams of light" (Chambers's Western Century Dictionary)। अर्थात् उत्तरध्रुव में या उत्तर-ध्रुव की ओर एक चमकता दृश्य दिखाई देता है जो कि विद्युत् का सा होता है, साथ ही उस में कम्पनशील गति होती हैं, और उस में से प्रकाश की धारा या प्रवाह वह रहा होता है। इस प्रकार सप्तर्षि तारामण्डल के साथ प्राकृतिकविद्युत् का भी सम्बन्ध है। सम्भव है कि मन्त्रोक्त "विद्युत्" पद द्वारा ध्रुवीय प्रकाश अभिप्रेत हो। २. स्तनयित्नु = मेघगर्जना। यह आध्यात्मिक नादरूप है, जैसे कि विद्युत् आध्यात्मिक-विद्युत् है। मेघ भी आध्यात्मिक मेघ है, न कि अन्तरिक्षस्थ प्राकृतिक-मेघ। इस आध्यात्मिक-मेघ को "धर्ममेघसमाधि" कहते हैं ॥ यथा "प्रसंख्यानेऽप्यसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेः धर्ममेघः समाधिः" (योग ४।२९)। इस समाधि में सम्भवतः कोई विशेष प्रकार के नाद होती हों जिन्हें कि मन्त्र में स्तनयित्नु कहा हैं।]