Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
सोऽर॑ज्यत॒ ततो॑राज॒न्योऽजायत ॥
स्वर सहित पद पाठस: । अ॒र॒ज्य॒त॒ । तत॑: । राज॒न्य᳡: । अ॒जा॒य॒त॒ ॥८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सोऽरज्यत ततोराजन्योऽजायत ॥
स्वर रहित पद पाठस: । अरज्यत । तत: । राजन्य: । अजायत ॥८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(सः) वह अर्थात् व्रती-व्रात्य (अरज्यत) अनुरागवान् हुआ, (ततः) तदनन्तर (राजन्यः) राजन्यरूप में (अजायत) पैदा हुआ, प्रकट हुआ।
टिप्पणी -
[व्याख्या - समग्र १५ काण्ड का देवता व्रात्य है। इस लिये "सः" द्वारा व्रात्य का ग्रहण किया है। यह व्रात्य "राजन्य" है, राजाओं में श्रेष्ठ है। प्रजाओं के पालन में उसे अनुराग युक्त होना चाहिए, इस निमित्त उसे व्रत धारण करना चाहिए, तभी वह राजन्य अर्थात् राजाओं में श्रेष्ठ कहलाएगा। यजुर्वेद २०/२ में सम्राट् को "धृतव्रतः वरुणः" कहा है । अर्थात् प्रजा द्वारा स्वीकृत किये गए सम्राट् को प्रजापालन का व्रतधारण करना चाहिए कि वह प्रजा को निज देह का अङ्ग-प्रत्यङ्ग जानकर उस का पालन-पोषण तथा संरक्षण करेगा। ऐसा व्रत ग्रहण करना वेद ने सम्राट् या राजा के लिये आवश्यक माना है (यजु० २०।५-८)। सूक्त ८ का राजन्य भी इसी प्रकार का व्रात्य अर्थात् व्रती है। अरज्यत, राजन्यः– इन शब्दों द्वारा प्रतीत होता है कि राजन्यपद में, वेद ने, "रञ्ज" धातु मानी है, जिस का अर्थ है "राग", अर्थात् प्रजा के प्रति अनुराग, अर्थात् प्रजारञ्जन, प्रजा की प्रसन्नता। परन्तु उणा० ३।१०० में राजन्यपद का व्युत्पादन "राजृ दीप्तौ" द्वारा किया है। "अजायत" पद द्वारा राज्याभिषेक विधि से, राजन्य के द्वितीयजन्म अर्थात् द्विज होने का निर्देश किया है। अतः “राज्ञः, अपत्यं राजन्यः” यह व्युत्पत्ति वेदानुमत प्रतीत नहीं होती। कवि ने "राजन्" शब्द में भी रञ्ज् धातु का प्रयोग किया है, यथा "राजा प्रकृतिरञ्जनात्” (रघुवंश २।१२); "राजा प्रजा रञ्जन लब्धवर्णः” (रघुवंश ६।१२); तथा '''तथैव सोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृतिरञ्जनात् (रघुवंश ४।१२)।]