अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
सूक्त - वाक्
देवता - निचृत विराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
ऋषी॑णांप्रस्त॒रोऽसि॒ नमो॑ऽस्तु॒ दैवा॑य प्रस्त॒राय॑ ॥
स्वर सहित पद पाठऋषी॑णाम् । प्र॒ऽस्त॒र: । अ॒सि॒ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । दैवा॑य । प्रऽस्त॒राय॑ ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋषीणांप्रस्तरोऽसि नमोऽस्तु दैवाय प्रस्तराय ॥
स्वर रहित पद पाठऋषीणाम् । प्रऽस्तर: । असि । नम: । अस्तु । दैवाय । प्रऽस्तराय ॥२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
हे अविनश्वर ज्योतिः परमेश्वर ! आप (ऋषीणाम्) ऋषियों के (प्रस्तरः) बिछौने (असि) हैं, (दैवाय) दिव्य (प्रस्तराय) बिछौने अर्थात परमेश्वर के लिये (नमः, अस्तु) नमस्कार हो।
टिप्पणी -
[प्रस्तरः=बिछौना। जैसे बिछौने पर शयन कर आराम और शान्ति मिलती तथा सांसारिक बाधाओं और चिन्ताओं से तात्कालिक मुक्ति प्राप्त होती है। इसी प्रकार परमेश्वर के आश्रय, समाधि निद्रा में, ऋषियों को आराम, शान्ति तथा बाधाओं-चिन्ताओं से मुक्ति मिलती है। इस मन्त्र में परमेश्वर को प्रस्तर कहा है, तथा अथर्व० १५।१।३।१-११ में वैदिक-आसन्दी का वर्णन हुआ है। इस प्रकार के अलौकिक वर्णन वेदों में प्रायः मिलते हैं। प्रस्तरः=A couch or bad is general (आप्टे)। वर्तमान सूक्त २ में जिन सद्गुणों का वर्णन हुआ है वह सूक्त १ के ९ से १३ तक मन्त्रों में प्रोक्त दिव्य भावनाओं आदि का परिणाम है। वैदिक साहित्य में परमेश्वर को "उपस्तरण और अपिधान भी कहा है। यथा "अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा। अमृतापिधानमसि स्वाहा। उपस्तरण=बिछौना। अपिधान=ओढ़नी।