अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - विराट् गायत्री,प्राजापत्या गायत्री,द्विपदा साम्नी बृहती
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
वि॒द्म ते॑स्वप्न ज॒नित्रं॒ निरृ॑त्याः पु॒त्रोऽसि॑ य॒मस्य॒ कर॑णः । अन्त॑कोऽसिमृ॒त्युर॑सि । तं त्वा॑ स्वप्न॒ तथा॒ सं वि॑द्म॒ स नः॑ स्वप्नदुः॒ष्वप्न्या॑त्पाहि ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्म । ते॒ । स्व॒प्न॒ । ज॒नित्र॑म् । नि:ऽऋ॑त्या: । पु॒त्र: । अ॒सि॒ । य॒मस्य॑ । कर॑ण: ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्म तेस्वप्न जनित्रं निरृत्याः पुत्रोऽसि यमस्य करणः । अन्तकोऽसिमृत्युरसि । तं त्वा स्वप्न तथा सं विद्म स नः स्वप्नदुःष्वप्न्यात्पाहि ॥
स्वर रहित पद पाठविद्म । ते । स्वप्न । जनित्रम् । नि:ऽऋत्या: । पुत्र: । असि । यमस्य । करण: ॥५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(स्वप्न) हे सुस्वप्न ! (ते) तेरे (जनित्रम्) उत्पत्तिकारण को (विद्म) हम जानते हैं (निर्ऋृत्याः पुत्रः असि) निर्ऋति का परिणाम तू है,– शेष, मन्त्र १-३, की तरह।
टिप्पणी -
[निर्ऋत्या= निर्ऋति के दो अर्थ हैं,–पृथिवी और कृच्छ्रापति (निरु० २/२/८)। दोनों ही अर्थ मन्त्र में उपपन्न नहीं होते। कृच्छ्रापत्ति का अर्थ है कष्टापादन। कष्टों का परिणाम दुःष्वप्न हो सकता है, सुस्वप्न नहीं। इस लिये निर्ऋति का यौगिक अर्थ मन्त्रार्थ में अधिक उपपन्न होगा। अतः निर्ऋति= निर् + ऋति (ऋ गतौ), अर्थात् गति का निराकरण, ऐन्द्रियिक-चञ्चलता तथा मानसिक-चञ्चलता का निराकरण अर्थात् अभाव। इस निर्ऋति का परिणाम सुस्वप्न सम्भव है। पुत्रः = सुस्वप्न कहा है। पुत्रः= पुनाति पवित्रं करोति (उणा० ४।१६६, महर्षि दयानन्द)। सुस्वप्न पवित्र करते हैं, और दुःष्वप्न अपिवत्रता के कारण होते हैं। सुस्वप्न सात्त्विक संस्कारों के परिणाम होते हैं, और दुःष्वप्न राजस् और तामस् संस्कारों के परिणाम होते हैं। सात्त्विक संस्कार पवित्रता के और राजस् तथा तामस् संस्कार अपवित्रता के कारण होते हैं।