अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 5/ मन्त्र 8
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - स्वराट् विराट् गायत्री
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
वि॒द्म ते॑स्वप्न ज॒नित्रं॑ देवजामी॒नां पु॒त्रोऽसि॑ य॒मस्य॒ कर॑णः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्म । ते॒ । स्व॒प्न॒ । ज॒नित्र॑म् । दे॒व॒ऽजा॒मी॒नाम् । पु॒त्र: । अ॒सि॒ । य॒मस्य॑ । कर॑ण: ॥५.८॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्म तेस्वप्न जनित्रं देवजामीनां पुत्रोऽसि यमस्य करणः ॥
स्वर रहित पद पाठविद्म । ते । स्वप्न । जनित्रम् । देवऽजामीनाम् । पुत्र: । असि । यमस्य । करण: ॥५.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 5; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(स्वप्न) हे सुस्वप्न ! (ते) तेरे (जनित्रम्) उत्पत्तिकारण को (विद्म) हम जानते हैं, (देव जामीनाम्) देवजामियों का (पुत्रः) परिणाम (असि) तू है, (यमस्य) यम-नियम रूप अपरिग्रह और सन्तोष वृत्ति का और संयम का (करणः) तू कर्म है।
टिप्पणी -
[देवजामीनाम् = देवपत्नीनाम् = देवकोटि के महात्माओं की पत्नीरूप अर्थात् जामिरूप चित्त वृत्तियां। देवलोंगों की सात्त्विक चित्त वृत्तियां मानो उन की पत्नियां या जामियां हैं, जो उन के साथ पतिव्रता रूप में सदा रहती हैं। इन सात्त्विक चित्तवृत्तिरूप पत्नियों का पुत्र है, सुस्वप्न। देवों के यम-नियम और संयम का भी कर्म है, सुस्वप्न। सुस्वप्न को "देवानाम् अमृतगर्भः" भी कहा है। यथा “यो न जीवोऽसि न मृतो देवानाममृतगर्भोऽसि स्वप्न।" (अथर्व० ६॥४६॥१), अर्थात् हे स्वप्न ! जो तू न तो जीवित है, और न मृत है, तू देवों का "न मरने वाला" गर्भ है, पुत्ररूप है। स्वप्न जाग्रदवस्था में नहीं होता, इसलिये वह जीवित नहीं, परन्तु वह मृत भी नहीं, क्योंकि निद्रावस्था में उस की स्थिति भी अनुभूत होती है। ऐसा स्वप्न देवकोटि के सत्पुरुषों का अमृत अर्थात् सदाजीवी गर्भरूप अर्थात पुत्ररूप है। स्वप्न को गर्भरूप कहते हुए चित्तवृत्तियों को इस की माता कहा है, और सत्पुरुषों की इन चित्तवृत्तियों को, जामियां तथा पत्नियां भी कहा प्रतीत होता है। यतः यह स्वप्न देवों का पुत्र है, इसलिए यह सुस्वप्न है, दुःष्वप्न नहीं।