अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
यत्स॑मु॒द्रो अ॒भ्यक्र॑न्दत्प॒र्जन्यो॑ वि॒द्युता॑ स॒ह। ततो॑ हिर॒ण्ययो॑ बि॒न्दुस्ततो॑ द॒र्भो अ॑जायत ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। स॒मु॒द्रः। अ॒भि॒ऽक्र॑न्दत्। प॒र्जन्यः॑। वि॒ऽद्युता॑। स॒ह। ततः॑। हि॒र॒ण्ययः॑। बि॒न्दुः। ततः॑। द॒र्भः। अ॒जा॒य॒त॒ ॥३०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्समुद्रो अभ्यक्रन्दत्पर्जन्यो विद्युता सह। ततो हिरण्ययो बिन्दुस्ततो दर्भो अजायत ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। समुद्रः। अभिऽक्रन्दत्। पर्जन्यः। विऽद्युता। सह। ततः। हिरण्ययः। बिन्दुः। ततः। दर्भः। अजायत ॥३०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(यत्) जो (समुद्रः) समुद्र (अभ्यक्रन्दत्) गर्जा, और (विद्युता सह) विद्युत् के साथ (पर्जन्यः) मेघ गर्जा, (ततः) तत्पश्चात् (हिरण्ययः बिन्दुः) हिरण्यसदृश चमकीला या बहुमूल्य वीर्य-बिन्दु (अजायत) पैदा हुआ, और (ततः) उस बिन्दु से (दर्भः) शत्रुविदारक सेनापति पैदा हुआ है।
टिप्पणी -
[अभ्यक्रन्दत्= वर्षा ऋतु में समुद्र में लहरों द्वारा गर्जनाएँ होती हैं। तत्पश्चात् मेघों का निर्माण होता है, और विद्युत् के साथ गर्जते मेघों द्वारा वर्षा, तत्पश्चात् ओषधियाँ, अन्न और रेतस् (=वीर्य) तथा रेतस् से पुरुष उत्पन्न होता है। इस प्रकार जल का सम्बन्ध वीर्य और पुरुष के साथ है। तथा “पञ्चम्यामाहुतौ आपः पुरुषवचसो भवन्ति” (छान्दोग्य० ५.९.१) द्वारा भी जलों का सम्बन्ध पुरुषोत्पति के साथ दर्शाया है। हिरण्यय=हिरण्मय। हिरण्य= semen, Virile (आप्टे) अर्थात् पुरुष का वीर्य।]