अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ताः, ब्रह्म
छन्दः - त्र्यवसाना शङ्कुमती पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह। सूर्यो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु॒ चक्षुः॒ सूर्यो॑ दधातु मे। सूर्या॑य॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑। ब्र॒ह्म॒ऽविदः॑। यान्ति॑। दी॒क्षया॑। तप॑सा। स॒ह। सूर्यः॑। मा॒। तत्र॑। न॒य॒तु॒। चक्षुः॑। सूर्यः॑। द॒धा॒तु॒। मे॒ ॥ सूर्या॑य। स्वाहा॑ ॥४३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह। सूर्यो मा तत्र नयतु चक्षुः सूर्यो दधातु मे। सूर्याय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। ब्रह्मऽविदः। यान्ति। दीक्षया। तपसा। सह। सूर्यः। मा। तत्र। नयतु। चक्षुः। सूर्यः। दधातु। मे ॥ सूर्याय। स्वाहा ॥४३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 43; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(दीक्षया) व्रतों-नियमों और (तपसा सह) तपश्चर्या के साथ वर्तमान (ब्रह्मविदः) ब्रह्मवेत्ता लोग (यत्र) जहाँ (यान्ति) जाते हैं, (तत्र) वहाँ (सूर्यः) सूर्यवत् स्वतःप्रकाशमान परमेश्वर (मा) मुझे (नयतु) पहुँचाए ले चले। तदर्थ (सूर्यः) सूर्यवत् स्वतः प्रकाशमान परमेश्वर (मे) मुझ में (चक्षुः) दिव्य चक्षु अर्थात् दिव्यदृष्टि (दधातु) स्थापित और परिपुष्ट करे। (सूर्याय) उस सूर्यों के सूर्य परमेश्वर के लिए (स्वाहा) मैं सर्वस्व समर्पण करता हूँ।
टिप्पणी -
[सूर्यः= मन्त्रसंख्या १ की व्याख्या में आदित्य पद द्वारा सूर्यनामक परमेश्वर कहा है। चक्षुः= दिव्यचक्षु, दिव्यदृष्टि या प्रातिभ आदर्शदृष्टि। यथा—“ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते” (योग ३.३६)। दिव्यचक्षुः= नेत्रेन्द्रिय की व्यवहित तथा सूक्ष्म पदार्थों को देखने की योग्यता। महाभारत युद्ध के समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्यचक्षु दी थी। यथा—“दिव्यं ददामि ते चक्षुः” (गीता० ११.४)।]