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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 43

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 43/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - मन्त्रोक्ताः, ब्रह्म छन्दः - त्र्यवसाना शङ्कुमती पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त

    यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह। ब्र॒ह्मा मा॒ तत्र॑ नयतु ब्र॒ह्मा ब्रह्म॑ दधातु मे। ब्र॒ह्मणे॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑। ब्र॒ह्म॒ऽविदः॑। यान्ति॑। दी॒क्षया॑। तप॑सा। स॒ह। ब्र॒ह्मा। मा॒। तत्र॑। न॒य॒तु॒। ब्र॒ह्मा। ब्रह्म॑। द॒धा॒तु॒। मे॒। ब्र॒ह्मणे॑। स्वाहा॑ ॥४३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह। ब्रह्मा मा तत्र नयतु ब्रह्मा ब्रह्म दधातु मे। ब्रह्मणे स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। ब्रह्मऽविदः। यान्ति। दीक्षया। तपसा। सह। ब्रह्मा। मा। तत्र। नयतु। ब्रह्मा। ब्रह्म। दधातु। मे। ब्रह्मणे। स्वाहा ॥४३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 43; मन्त्र » 8

    भाषार्थ -
    (दीक्षया) व्रतों नियमों और (तपसा सह) तपश्चर्या के साथ विद्यमान (ब्रह्मविदः) ब्रह्मवेत्ता लोग (यत्र) जहां (यान्ति) जाते हैं, (तत्र) वहां (ब्रह्मा) चारों वेदों का विद्वान् (मा) मुझे (नयतु) पहुंचाए, ले चले। (ब्रह्मा) चारों वेदों का विद्वान् (मे) मुझ में (ब्रह्म) वेदविद्या और ब्रह्मसाक्षात्कार (दधातु) स्थापित करे, और परिपुष्ट करे। (ब्रह्मणे) ब्रह्मा के लिए (स्वाहा) मैं श्रद्धा-भक्ति भेंट करता हूं।

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