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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 43

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 43/ मन्त्र 7
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - मन्त्रोक्ताः, ब्रह्म छन्दः - त्र्यवसाना शङ्कुमती पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त

    यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह। आपो॑ मा॒ तत्र॑ नयत्व॒मृतं॒ मोप॑ तिष्ठतु। अ॒द्भ्यः स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑। ब्र॒ह्म॒ऽविदः॑। यान्ति॑। दी॒क्षया॑। तप॑सा। स॒ह। आपः॑। मा॒। तत्र॑। न॒य॒तु॒। अ॒मृत॑म्। मा॒ । उप॑। ति॒ष्ठ॒तु॒ ॥ अ॒त्ऽभ्यः। स्वाहा॑ ॥४३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह। आपो मा तत्र नयत्वमृतं मोप तिष्ठतु। अद्भ्यः स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। ब्रह्मऽविदः। यान्ति। दीक्षया। तपसा। सह। आपः। मा। तत्र। नयतु। अमृतम्। मा । उप। तिष्ठतु ॥ अत्ऽभ्यः। स्वाहा ॥४३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 43; मन्त्र » 7

    भाषार्थ -
    (दीक्षया) व्रतों नियमों और (तपसा सह) तपश्चर्या के साथ वर्तमान (ब्रह्मविदः) ब्रह्मवेत्ता लोग (यत्र) जहां (यान्ति) जाते हैं, (तत्र) वहां (आपः) सर्वव्यापक और जलवत् शान्तिदायक परमेश्वर (मा) मुझे (नयन्तु) पहुंचाए, ले चले। और (मा) मुझे (अमृतम्) मोक्ष (उप तिष्ठतु) प्राप्त हो। (अद्भ्यः) सर्वव्यापक तथा जलवत् शान्तिदायक परमेश्वर के लिए (स्वाहा) मैं सर्वस्व समर्पित करता हूं।[आपः= आप्लृ व्याप्तौ, अर्थात् सर्वव्यापक परमेश्वर। तथा आपः=जल, अर्थात् जलवत् शान्तिदायक परमेश्वर। मन्त्रसंख्या १ की व्याख्या में “आपः” शब्द परमेश्वरार्थक प्रदर्शित किया है।]

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