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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - मन्त्रोक्ताः, ब्रह्म छन्दः - त्र्यवसाना शङ्कुमती पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
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    यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह। सूर्यो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु॒ चक्षुः॒ सूर्यो॑ दधातु मे। सूर्या॑य॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑। ब्र॒ह्म॒ऽविदः॑। यान्ति॑। दी॒क्षया॑। तप॑सा। स॒ह। सूर्यः॑। मा॒। तत्र॑। न॒य॒तु॒। चक्षुः॑। सूर्यः॑। द॒धा॒तु॒। मे॒ ॥ सूर्या॑य। स्वाहा॑ ॥४३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह। सूर्यो मा तत्र नयतु चक्षुः सूर्यो दधातु मे। सूर्याय स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। ब्रह्मऽविदः। यान्ति। दीक्षया। तपसा। सह। सूर्यः। मा। तत्र। नयतु। चक्षुः। सूर्यः। दधातु। मे ॥ सूर्याय। स्वाहा ॥४३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 43; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्र) जिस [सुख] में (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानी..... [मन्त्र १]। (सूर्यः) सूर्य [सूर्य के समान प्रकाशमान परमात्मा] (मा) मुझे (तत्र) वहाँ (नयतु) पहुँचावे, (सूर्यः) सूर्य [परमात्मा] (मा) मुझको (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्य (दधातु) देवे (सूर्याय) सूर्य [परमात्मा] के लिये (स्वाहा) स्वाहा [सुन्दर वाणी] होवे ॥३॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(सूर्यः) सूर्यवत्प्रकाशमानः परमात्मा (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्यम् (सूर्यः) (सूर्याय) प्रकाशमानाय परमात्मने। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    भाषार्थ

    (दीक्षया) व्रतों-नियमों और (तपसा सह) तपश्चर्या के साथ वर्तमान (ब्रह्मविदः) ब्रह्मवेत्ता लोग (यत्र) जहाँ (यान्ति) जाते हैं, (तत्र) वहाँ (सूर्यः) सूर्यवत् स्वतःप्रकाशमान परमेश्वर (मा) मुझे (नयतु) पहुँचाए ले चले। तदर्थ (सूर्यः) सूर्यवत् स्वतः प्रकाशमान परमेश्वर (मे) मुझ में (चक्षुः) दिव्य चक्षु अर्थात् दिव्यदृष्टि (दधातु) स्थापित और परिपुष्ट करे। (सूर्याय) उस सूर्यों के सूर्य परमेश्वर के लिए (स्वाहा) मैं सर्वस्व समर्पण करता हूँ।

    टिप्पणी

    [सूर्यः= मन्त्रसंख्या १ की व्याख्या में आदित्य पद द्वारा सूर्यनामक परमेश्वर कहा है। चक्षुः= दिव्यचक्षु, दिव्यदृष्टि या प्रातिभ आदर्शदृष्टि। यथा—“ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते” (योग ३.३६)। दिव्यचक्षुः= नेत्रेन्द्रिय की व्यवहित तथा सूक्ष्म पदार्थों को देखने की योग्यता। महाभारत युद्ध के समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्यचक्षु दी थी। यथा—“दिव्यं ददामि ते चक्षुः” (गीता० ११.४)।]

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    विषय

    सुर्य-चक्षु

    पदार्थ

    १. (यत्र) = जहाँ (ब्रह्मविद:) = ब्रह्मज्ञानी पुरुष (दीक्षया तपसा सह) = व्रतसंग्रह व तप के साथ (यान्ति) = जाते हैं, (सूर्यः) = सूर्य के समान देदीप्यमान ज्योति वह ब्रह्म (मा तत्र नयन्तु) = मुझे वहाँ प्राप्त कराए। २. इसी दृष्टिकोण से (सूर्य:) = यह सूर्यसम दीप्त प्रभु (मे) = मेरे लिए (चक्षुः दधातु) = दर्शनशक्ति को धारण करें। 'चक्षु' से मार्ग को देखता हुआ, मैं मार्ग पर ही चलूँ और उत्तम लोक को प्रात करूँ। (सूर्याय) = इस सूर्य नामक प्रभु के लिए हम (स्वाहा) = अपना अर्पण करते हैं।

    भावार्थ

    सूर्यसम दीप्त प्रभु मुझे दर्शनशक्ति दें। इससे ठीक मार्ग पर चलता हुआ मैं व्रती व तपस्वी बनूँ और ब्रह्मज्ञ बनकर उत्तम लोक को प्राप्त करूँ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Supreme

    Meaning

    Where men dedicated to Brahma go, with Diksha and Tapas, initiation, commitment and austere discipline, there may the Sun, self-refulgent light-giver, lead me. May the Sun bless me with light of the eye to see. Homage to the Sun in truth of word and deed.

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    Translation

    Whither the realizers of the divine supreme go with consecration and austerity; may the sun lead me thither; may the sun grant me vision. I dedicate it to the sun.

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    Translation

    Let Vayu, the air......... of maintaining my vital breaths and «now occupy. I......... Vayu.

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    Translation

    May the Brilliant God or the teacher lead .... austerity. Let God or the teacher grant me sight to see afar. I pray to them for it.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सूर्यः) सूर्यवत्प्रकाशमानः परमात्मा (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्यम् (सूर्यः) (सूर्याय) प्रकाशमानाय परमात्मने। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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