अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 4
सूक्त - भृगु
देवता - आञ्जनम्
छन्दः - चतुष्पदा शङकुमत्युष्णिक्
सूक्तम् - भैषज्य सूक्त
प्राण॑ प्रा॒णं त्रा॑यस्वासो॒ अस॑वे मृड। निरृ॑ते॒ निरृ॑त्या नः॒ पाशे॑भ्यो मुञ्च ॥
स्वर सहित पद पाठप्राण॑। प्रा॒णम्। त्रा॒य॒स्व॒। असो॒ इति॑। अस॑वे। मृ॒ड॒। निःऽऋ॑ते। निःऽऋ॑त्याः। नः॒। पाशे॑भ्यः। मु॒ञ्च॒ ॥४४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राण प्राणं त्रायस्वासो असवे मृड। निरृते निरृत्या नः पाशेभ्यो मुञ्च ॥
स्वर रहित पद पाठप्राण। प्राणम्। त्रायस्व। असो इति। असवे। मृड। निःऽऋते। निःऽऋत्याः। नः। पाशेभ्यः। मुञ्च ॥४४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(प्राण) हे प्राणस्वरूप! (प्राणं नः) हमारे प्राणों का (त्रायस्व) त्राण कीजिए। (असो) हे प्रज्ञानमय! (मृड) हमें सुखी कीजिए, ताकि हम (असवे) प्रज्ञान प्राप्त करे सकें। (निऋर्ते) हे कष्टों से छुड़ानेवाले! (नः) हम सुकर्मियों को (निऋर्त्याः) कष्टों के (पाशेभ्यः) फंदों से (मुञ्च) मुक्त कीजिए। [असुः=प्रज्ञानाम (निघं० ३.९)। निऋर्तिः= निर्+ऋतिः (कृच्छ्रापत्तिः)।]