अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 10
मि॒त्रश्च॑ त्वा॒ वरु॑णश्चानु॒प्रेय॑तुराञ्जन। तौ त्वा॑नु॒गत्य॑ दू॒रं भो॒गाय॒ पुन॒रोह॑तुः ॥
स्वर सहित पद पाठस्वर रहित मन्त्र
मित्रश्च त्वा वरुणश्चानुप्रेयतुराञ्जन। तौ त्वानुगत्य दूरं भोगाय पुनरोहतुः ॥
स्वर रहित पद पाठ अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(आञ्जन) हे संसार को अभिव्यक्त तथा कान्तिमान् करनेवाले परमेश्वर! (मित्रः च) सर्वभूत मैत्रीसम्पन्न व्यक्ति, (वरुणः च) और निज दुष्कर्मों का निवारण करनेवाला व्यक्ति—ये दोनों (त्वा) आप के (अनु) अनुकूल (प्रेयतुः) प्रयाण करते हैं, अपना अचार-व्यवहार रखते हैं। (तौ) वे दोनों (दूरम्) दूर तक (त्वा) आप के (अनुगत्य) अनुकूल चल कर [और आगे चलने में असमर्थ हो जाते हैं, इसलिये पुनर्जन्म पाकर वे] (भोगाय) अवशिष्ट कर्मों के फलभोग के लिये (पुनः) फिर (ओहतुः) शरीरों का वहन करते हैं।
टिप्पणी -
[ओहतुः= आ ऊहतुः (वह प्रापणे, लिट्)। अभिप्राय यह है कि सर्वभूतमैत्री तथा अपापविद्ध होना—ये आपके सद्गुण हैं। परन्तु ये ही दो सद्गुण व्यक्ति को मोक्ष का अधिकारी नहीं बना सकते। मोक्ष के लिये योगाङ्गों का पूर्ण अनुष्ठान आवश्यक है। इसलिये इन पूर्वोक्त व्यक्तियों को पुनः शरीर धारण कर भोग भोगने पड़ते हैं। इस सूक्त में आञ्जन पद द्वारा मुख्यरूप में परमेश्वर का वर्णन हुआ है, और आञ्जन-औषध का गौणरूप में। अंग्रेजी में औषधरूप आञ्जन को Antimony कहते हैं। रोगों में Antimony और Antimony के समासों (compounds) का प्रयोग होता है, Antimony के समास, यथा—"Antimonium arsenieum; Antimonium chlorid, Antimonium jodatum; Antimonium sulph; Antimonium tast आदि।]