अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 5
सूक्त - भृगु
देवता - आञ्जनम्
छन्दः - त्रिपदा निचृद्गायत्री
सूक्तम् - भैषज्य सूक्त
सिन्धो॒र्गर्भो॑ऽसि वि॒द्युतां॑ पुष्प॑म्। वा॑तः प्रा॒णः सूर्य॒श्चक्षु॑र्दि॒वस्पयः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसिन्धोः॑। गर्भः॑। अ॒सि॒। वि॒ऽद्युता॑म्। पुष्प॑म्। वातः॑। प्रा॒णः। सूर्यः॑। चक्षुः॑। दि॒वः। पयः॑ ॥४४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
सिन्धोर्गर्भोऽसि विद्युतां पुष्पम्। वातः प्राणः सूर्यश्चक्षुर्दिवस्पयः ॥
स्वर रहित पद पाठसिन्धोः। गर्भः। असि। विऽद्युताम्। पुष्पम्। वातः। प्राणः। सूर्यः। चक्षुः। दिवः। पयः ॥४४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
हे परमेश्वर! आप (सिन्धोः) नदियों और समुद्रों के (गर्भः) जन्मदाता (असि) हैं, (विद्युताम्) विद्योतमान बिजुलियों और सूर्य-नक्षत्र-तारा-गणों को (पुष्पम्) विकसित करते हैं। (वातः) आपकी वायु (प्राणः) हमें प्राण प्रदान करती है, (सूर्यः) सूर्य (चक्षुः) चक्षु अर्थात् दृष्टिशक्ति प्रदान करता, तथा (दिवः) द्युलोक (पयः) जल प्रदान करता है। [पुष्पम्=पुष्प विकसने। दिवम्=Heaven (आप्टे)।]